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हूँ और कवित्व दो सौ उन्तीस मैं लोग कैसे बता तुझे को तेरा मन स्थिर नहीं तुझमें कभी काशी कभी कावा कभी जाता हज मक्का में कभी कैला कभी हिमालय कभी जाता वृन्दावन में कभी पीतल, कभी पत्थर कभी ढूंढे गंगा जल में तभी वेद कभी पुराण कभी भागवत गीता में कभी कभी रेस्ट सागर में कभी मंसूर ज्ञान गंगा में कभी वायलील, कभी कुरान कभी ढूंढे बहुत मंथन में अगर चाहे तो मिलना तो आजा ससंघ गुरु शरण ने नाम जो भी गुरु तुझे थे हरीश भजन ना मन नहीं मन में मिलो कैसे बता तुझे को तेरा मन अस्थिर नहीं तुझमें हूँ
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