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कवित एक सौ छियासी यारो में जगह की मैं सिल से अब दूर गया हूँ छोड के सारे अहम ऊॅट गुरूर आ गया हूँ जिसको जहाँ ढूंढते सभी मंदिर और मस्जिदों में उसको मैं अपने दिल के ही करीब पांच चुका हूँ यार हूँ में जबकि मैं फिर से अब दूर गया हूँ देख के अपना आप है रासा हो गया हूँ हरीश अब कभी मैं भूल कर सब खुद में ही हो गया हूँ यहाँ तो मैं जगह कि मैं फिर से अब दूर गया हूँ छोड के सारे अहम ऊॅट गुरूर आ गया हूँ
Sound Engineer