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हूँ ऍम कवित एक सौ तिरासी मुझको फिकर नहीं है जमाने की मैंने पी रखी है मैं खाने की आकर के मस्तानों की नगरी में मत बात करो पैमाने की मैंने पी रखी है मैं खाने की मुझको फिक्र नहीं है जमाने की मैंने पी रखी है मैं खाने की जो हर गम को पीकर बैठे हैं उन्हें सिकर नहीं जहाँ तनी की मुझको शिखर नहीं है जमाने की मैंने पी रखी है मैं खाने की हरीश कभी गोपाल दया से मिली खबर कबीर तहखाने की मुझ को फिर घर नहीं है जमाने की मैंने भी रखी है मैं खाने की हूँ
Sound Engineer