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हूँ हूँ कवित एक सौ इक्यासी हमें नफरत न तुम सिख लाओ हम प्रेम के पंथी काफी रहे हैं नफरत से हम न कभी तुम को मिलेंगे प्रेम से चाहो जब हाजिर हैं हम प्रेम के पाँच ई का फिर हैं नफरत से हम जी नहीं सकते ट्रेम में इतने शातिर हैं हम प्रेम के पंछी का फिर हैं सुन ले नफरत से भरी दुनिया हम हाथ ना तेरे आएंगे हम वो मस्ताने पाँच ही है हम छोड सभी को चले जाते हैं हम प्रेम के पंछी का फिर है हरीश कभी कहे बात ये सच्ची हम कवि री अलग जगह जाते हैं काम ट्रेनिंग के पंछी का फिर है हमें नफरत ना तुमसे खिलाओ अम् प्रेम के पंछी का फिर हैं
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