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हूँ कवित एक सौ चालीस अब रही हैं कोई भी दुविधा जो साहेब लगाते हैं काम, क्रोध, मद, लोभ भी छोटे अहंकार बिस रह गए हैं अब तो सूरत निरस्त भाई एक सुख मना आनंद पाते हैं अब आ रही है कोई भी दुविधा जो साहेब अलग है आज से तत्व रहे नहीं त्रिगुण ऐसी अलग जगह हैं सहेज समाधि उन मुझे जागे सहज सहज समाज रहे हैं अब नहीं रही है कोई भी दुविधा जो साहेब अलग आ जाते हैं खूब मगन हुए ना अच्छे हैं मनवा सुख दुख सब विश्व रह रहे हैं हरीश कवि गोपाल दया से अखंड है पद पा रहे हैं अब नहीं रही है कोई भी दुविधा जो साढे ऍम हैं
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