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हूँ कवित छत्तीस ॅ सतगुरु मेरे यार क्यों तो डरे है बार बार सत्र की नहीं ज्ञान की डंडी विवेक विचार आधार शील संतोष के ऊपर वो थी वैराग्य त्याग है सारे खेवट क्या है सतगुरु मेरे यार क्यों तोड रहे हैं बार बार काम क्रोध की धार है बहती लोग मोह अहंकार कृष्णा तरंग घर पर लोग बजे राग द्वेष डूब हार खेवट दिया है सतगुरु मेरे यहाँ क्यों तो डर रहे हैं बार बार सब जगह उलझा ये मैं यहाँ नहीं पडा चौरासी की धार सतगुरु राम को जो जान भजते सहज उत्तरे भवपार खेवट दिया है सतगुरु मेरे यार क्यों तो डरें बार बार मेरे खेवडिया साहेब दुख गोपाल हैं, पार्टी करेंगे उस पर साहेब कवीर दिल्ली बीच में बैठे देखा हरीश निहार खेवन किया है सतगुरु मेरे लिया क्यों तो डरें बारंबार हैं ।
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