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6. पुनरुथान in Hindi

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13 K Listens
AuthorSaransh Broadways
इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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पुनरुत्थान अपनी हार के बाद इंदिरा मात्र तीन साल की छोटी सी अवधि में ही सत्ता में जोरदार वापसी करने में कामयाब रही । वो उनमें में पार्टी में दोबारा हुए दोफाड को भी आसानी से पच आ गई । जिसकी कोक से कांग्रेस आय का जन्म हुआ । उसी साल इंदिरा गांधी चिकमंगलूर से उपचुनाव भारी बहुमत से जीतकर संसद में फिर से आई जनता सरकार उन्नीस सौ नवासी में गिर गई । अगले साल उन्नीस सौ अस्सी में इंदिरा ने मध्यावधि आम चुनाव जीता और उन्हें उन्नीस सौ अस्सी में चौदह जनवरी को चौथी बार प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई गई । प्रिया श्रीमती गांधी साल के चुनाव में आपकी शिकस्त हुई । जिस देश को आप अपना बच्चा कहती थी आपके पतन पर खुशियों की फुलझडियां छोड रहा था । चुनाव परिणाम आने पर लोगों ने मार्च की उस ऐतिहासिक रात को पटाखों और ढोल नगाडों के कोलाहल से गुलजार कर दिया । आपातकाल इसे आप हमेशा लोगों की भलाई के लिए किया गया बता दी रही । उसे लोगों ने नकार दिया था । आप उनके नाम पर जो कुछ कर रही थी उसके प्रति उन्होंने अपनी ना पसंदगी जोरदार ढंग से दर्ज कराई । संजय गांधी को युवराज बनाना जबरिया नसबंदी, लाखों लोगों को उजाडने वाली सौंदर्यीकरण की मुहिम और आपातकाल के आर्थिक कार्यक्रम आपके मुखौटे को नोचने वाले साबित हो गई । क्या आपने इस सब को छोडने का मन बना लिया था? आप अपनी उम्र के साठ साल बीतने के कगार पर थी । आपातकाल अहमन्यता के गर्त में शर्मिंदगी की हद तक गिरावट का प्रतीक थी । आपको मतदाता उसकी सजा दे चुके थे । आपने अपने दोस्तों से कहा भी कि अपना बाकी जीवन पहाडों में जाकर आप सुकून से बताना चाहती थी । हिमालय की गोद में जंगलों के बीच कश्मीर के पूर्व राज्यपाल और आपातकाल के स्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन मंत्री डॉक्टर करण सिंह ने जम्मू की पहाडियों में आपको अपना कॉटेज सौंपने की पेशकश भी की थी । उधर कुछ लोग ये भी कह रहे थे कि आपने जनता सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए कमर कस हुई थी । जनता पार्टी ने आप पर जो कानूनी आरोपों का पिटारा खोल दिया था उसके मद्देनजर आपका कहना था की आपके पास मैदान में डटे रहने के अलावा कोई चारा नहीं था । आप ये कहने वाली थी मैं तभी सबसे जोरदार लडाई कर पाती हूँ । मेरे पास और कोई चारा नहीं होता । तन्हाई को अपनाना आपकी फितरत में ही नहीं था । आपका व्यक्तित्व बहुत शक्तिशाली था । उथलपुथल में पली जीव, हमेशा पहली कतार में डटे रहने की अभ्यास । नेहरू की बेटी के रूप में अपने भाग्य को आजमाने की भावना आपने इतनी प्रबल थी । जीवन की सांस को अपनाने के बाद दूर की कौडी ही लगती है । अंबिका ने जवाब से पूछा, क्या आप मैदान से हटाई क्यों नहीं? तो आपका जवाब था पीछे हटना इतना आसान नहीं । हमने कहा, हमेशा सबकी नजरों का केंद्र बने रहना चाहिए । चुनाव हरने के बाद आपने उस हर एक रसूखदार समारोह में जाना प्रारंभ कर दिया, जहां से बुलावा आता था । ब्रिटेन के उच्चायुक्त द्वारा अपनी महारानी का जन्मदिन मनाने के लिए आयोजित ऐसे ही किसी समारोह में प्रधानमंत्री के पहुंचते ही सभी आपको नजरंदाज करके उनकी और अब के अगर आप वहाँ से चले जाने के बजाय वहीं डटी रही । अब भारत के नए शासकों के साथ सुलह सफाई की कोशिश भी की थी । बाहर से आए पत्रकार ने गर्जियन अखबार में लिखा, वे हताश और शर्मिंदा दिखती हैं, जैसे कोई पराजित मुक्केबाज किसी चमत्कार की आस लगाए हो । जनता की याददाश्त में से अपनी उपस्थिति के मिट जाने का भय आपको हमेशा सताता था । अपने आपको सत्ताच्युत करने वाले बहुत कद के लोगों की दादागिरी खेलने के लिए आप कतई तैयार नहीं थी । बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी और पारिवारिक मित्र अरुणा आसफ अली ने जब आपको ये भरोसा दिलाया कि आप सत्ता में वापसी कर लेंगे तो आपने अधीर होकर पूछा, काम जब मैं मर जाऊंगी नहीं, आप उतना लंबा इंतजार नहीं करने वाली थी । आपका वापसी का संघर्ष सत्ता से खदेडे जाने के चंद ही महीने बाद शुरू हो गया । आप के पास दौड गई मान उनकी आंखों में आंखें डालकर पूछने के लिए मुझे बताऊँ । क्या तुम लोग सब मुझे नहीं चाहते हैं? वैसे भी बाधाओं और चुनौतियों के पेश आने पर आपकी संघर्षशीलता स्वान ही प्रबल हो जाती थी । आपके स्मारक संग्रहालय में प्रदर्शित आपके खिलोनों में प्लास्टिक के फूलों और सब्जियों के बीच आपके जैसी नकचढी । इस तरी के लिहाज से एकदम विचित्र खिलाना भी रुका हुआ है । अपने स्वाभाविक आकार का तिलचट्टा इसे दो शौक रंगों वाले तितलियों के बीच बिठाया गया है । फिर चट्टान अकेला अच्छा जीत है । परमाणु तबाही के बावजूद सभी जीव जंतुओं में से जीवित बच पाएगा । इंदिरा ने प्रधानमंत्री के पद से उम्मीद के मार्च महीने में ये घोषित करते हुए इस्तीफा दिया था । मतदाता की सामूहिक निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए और सार्वजनिक बयान में ये कहते हुए प्रधानमंत्री के रूप में आपके बीच से विदा लेते हुए मुझे आपका दिल की गहराई से शुक्रगुजार होना चाहिए । मेरा लक्ष्य बचपन से ही अपनी सामर्थ्य भर जनता की सेवा करना रहा है । ये मैं आगे भी करती रहूंगी । खून और हिम्मत भरी बहुत एक यात्रा से देश सेवा के बाद यहाँ से उनके भाषणों में तो हराई जाती रहेगी । वो कहेंगी की कमजोर और तो कैसे तंग किया जा रहा था । वो कैसे अपनी जनता के साथ जियेंगे, साथ मारेंगे उन का खून किस प्रकार भारत की ताकत बनेगा । चुनाव परिणाम सिर्फ राजनीतिक और भावनात्मक ही नहीं थे, लगभग नासूर बन गए थे और वे अपने पर जो गुजरी उसे बहुत शारीरिक घायलावस्था के रूप में बयान करती थी । लघु बहने के रूप में कमला नेहरू जिनकी शारीरिक पीडा उनकी भावनात्मक पीडा में व्यस्त होती थी, अब उनका आदर्श हो गई थी । अत्यधिक आरक्षक छांव में नेहरू की बेटी की जगह कमला की बेटी लेती प्रतीत होती थी आनंद भवन । इलाहाबाद में इंदिरा के सोने ये कमरे में रामकृष्ण परमहंस आनंद नहीं माँ की तस्वीर और बिस्तर के पास और दक्ष के मान के रखे हैं । उनकी माँ के आध्यात्मिक सम्बल कालांतर में उन का भी सहारा बन गए थे । प्रधानमंत्री पद के सभी रुतबे धीरे धीरे सिमट पे चले गए । घर कर्मचारी वफादार पार्टी जाएगा । उन्होंने में आनंद भवन पर परिवार का मालिकाना हक खत्म कर दिया था और नेहरू के खानदानी घर को संग्रहालय में तब्दील कर दिया था । फिर सार्वजनिक संपत्ति बन गया । उनके पास रहने के लिए अपना घर भी नहीं था । उसके बावजूद भी आराम दे और सुरुचिपूर्ण ढंग से रहने की आदि थी । कलात्मक वस्तुओं और पेंटिंगों के बीच उनके फर्नीचर संग्रह में फॅस ले कार्बूजिए का सोफा शामिल थे । उनकी शैली सुरूचिपूर्ण मगर सादगीपूर्ण थी । बहुत बडी अथवा चमक दमक वाली वस्तुएं उनके लिए बेअदबी की प्रति थी । उन्होंने प्रधानमंत्री निवास एक सफदरगंज मार उम्मीद सोलह सौ सत्तर को मई महीने में छोडा जहाँ वो पहली बार तीन वर्ष पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में रहने नहीं । उसे छोडने के दिन भी भगत सफाई के प्रति उनके आग्रह को याद करती हैं । उनके बेडरूम से जब कोई आलमारी उठाई गई तो उन्होंने देखा उसके पीछे धूल जमा हो गई थी । उन्होंने सफाई में कोताही का जिक्र किया है और झाडू मंगाई था । उसे लेकर खुद ही बाहर नहीं लगी । फ्री और उनका परिवार उनके मित्र मोहम्मद यूनुस के बारह विलिंगटन ऍम बंगले में रहने चले गए जिससे यूनुस ने उनके लिए खाली किया था । वहाँ अपेक्षाकृत छोटे सामान से भरे घर में वो अपने परिवार और पांच पालतू कुत्तों के साथ रहने लगी जहां चारों और फाइलों, किताबों और संदूकों के ढेर लगे हुए थे । पतित तानाशाह लगभग सभी और से उपेक्षित पूर्व सर्वोच्च शख्सियत जिस के आस पास व्यावहारिक रूप में कोई भी नहीं था । हाँ, अपवाद स्वरूप पुल जयकर जैसे पुराने मित्रों और आरके धवन तथा डॉक्टर माथुर जैसे वफादारों के अलावा उन्होंने हर ने के बाद की अपनी जीवन यात्रा अपने आप में डूबे हुए और सबसे अलग थलग रहकर शुरू की । बी के नेहरू कहते हैं, चुप चाप एक अंत में अपने दो बेटों और उनकी पत्नियों के साथ जिनके संबंध मधुर तो नहीं थे, रह रही थी । बेवकूफ और कुप्रचार के शिकार लोगों ने कहा कि इंदिरा ने प्रधानमंत्री रहने के दौरान बेशुमार दौलत बनाई । मैं एकदम पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि उन्हें जब एक सफदरगंज रोड से निकाल बाहर फेंका गया, अब उनके पास सिर छुपाने को एक अदद छत दी नहीं थी । वो बेहद किफायत से रहती थी । रोज गांधी ने में मेहरोली में थोडी सी जमीन खरीदी थी और राजीव ने परिवार के लिए घर बनवाना शुरू किया था लेकिन ये अधूरा था और रहने के काबिल नहीं था । कांग्रेस रिश्वत लेने के मामले में भले ही कितनी भी बदनाम हुई हो अगर इंदिरा की निजी दौलत में कोई वृद्धि नहीं दिखाई दी । रात के खाने के लिए कभी कभी रुक जाने पर पुल जयकर को खाने में उबला अंडा अगले हालु और एक आम परोसा जाता था । आनंदवन के पूर्व निदेशक प्रमोद पांडेय पूछते हैं, उनकी तरह कोई नेता अच्छा एकड में फैले आनंद भवन जैसी विशाल ज्यादा को दान करना चाहेगा । आज ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है । कुछ लोगों के बयान के मुताबिक उनका गुजारा विदेश में बसे कुछ वफादार कारोबारियों और उद्योगपतियों के सहारे होता था । स्वराज बॉल भी उनमें शामिल है जिनकी मदद उन्होंने उनकी ल्यूकेमिया ग्रस्त बेटी के इलाज के लिए की थी । कहा जाता है उनके चुनाव करने के बाद उन्होंने फोन पर उन्हें आश्वस्त किया इंदिराजी जब तक मेरे पास खाने को कुछ भी है, उसमें से पहले आप खाएंगे । अलबत्ता उन्नीस सौ साठ और उन्नीस सौ सत्तर के दशक में उनकी आमदनी का मुख्य जरिया उनके पिता के किताबों पर मिलने वाली रॉयल्टी की रकम थी । साल में करीब एक लाख रुपये । यही पैसा उनके आडे समय बहुत कम आया । मेनका याद करती हैं, पराजय के बाद लगभग दो महीने तो मेरी साथ सदमे में रहे हैं । इसलिए वो अपने कमरे से बहुत कम ही बाहर आती नहीं । लगातार सोचती रही । घर में भी खासा उलटफेर हुआ था । लोग चले गए थे और कोई भी आपस में बात नहीं करता था और उसी बीच उन्हें एहसास हुआ । घर में ही बहुत सारा प्यार मिल सकता था और दुनिया कहीं खत्म नहीं हो रही थी । वो बैडमिंटन खेलेंगे । लम्बी लम्बी शहर करेंगे सारी कांग्रेस पार्टी के गायब हो जाने से परिवार के आपसी रिश्ते गाडी हो गए । पैसे की किल्लत थी हमारे पास खानसामा भी नहीं बचा था । डॉक्टर माथुर याद करते हैं, इंद्रा अपने परिवार के अलावा सभी के द्वारा मिश्रा दी गई और खुद को अकेली महसूस करती थी । उनसे न तो कोई मिलने आता था और न कोई उनके पास कुछ करने को था । माथुर कहते हैं कि वह शायद अपनी पुरानी यादें ताजा करने के लिए एक कमरे से दूसरे कमरे में जा जाकर नदियाँ पार दें । फर्नीचर को व्यवस्थित करती रहती थी । उनके विरोधियों ने अफवाह उडाना शुरू कर दिया । उनका मानसिक संतुलन बिगड रहा है और भगवा ही मुद्रा में आंखें और फैलाए घर में यहाँ से वहाँ सकती रहती हैं । अस्पताल में भर्ती किसी सहकर्मी को देखने जाते समय तो कभी डॉक्टर माथुर द्वारा चलाई जा रही है । उनकी फियेट कार में उनके साथ वाली अगली सीट पर बैठकर उनसे साथ गयी थी क्योंकि उनके पास अपनी कोई कार ही नहीं थी । आजकल पूर्व प्रधानमंत्रियों को सरकारी बंगले आवंटित किए जा रहे हैं और उनके बच्चों की सुरक्षा की व्यवस्था हो रही है । मगर इंदिरा अचानक सरकारी सुविधाओं के सुरक्षा घेरे से महरूम हो गई । इसकी वह तीन दशक से पहले प्रधानमंत्री की बेटी और फिर स्वयं प्रधानमंत्री के रूप में आदि थी । नटवर सिंह अपनी पूर्व बहुत से मिलने जाने दावा क्या बयान करते हैं, वो सारा सारा खेली थी और कोई भी नहीं था । जब मैं उनसे मिलने गया तो आई टी वालों ने मुझसे मेरा नंबर जरूर लिखवाया था । उन्होंने हालांकि उन्हें सभा करने को बुरे से बुरा उपाय करने में कोई कसर नहीं छोडी थी, मगर उनमें पलटवार की हिम्मत थी । वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं, इंदिरा ऐसी औरत नहीं थी जो हार मानकर बैठ जाती है । हम तो था दिल्ली की रद्दी हाथ लगते ही जनता पार्टी अब इंदिरा मुक्त भारत बनाने की मुहिम में जुट गई । शासन की एकदम नई शैली से देश को रूबरू कराने अथवा जनता के आदर्शों पर कोई बहस छेडने के बजाय नई सरकार ने जल्द ही इंदिरा को शहीद बनाने की कार्यवाही शुरू कर दी । जनता की रूढिवादी समाजवाद और इंदिरा गांधी के धर्मनिरपेक्ष समाजवाद में कोई बुनियादी अंतर सामने नहीं आया । वो सब इंदिरा को पराजित करने के लिए ही संयुक्त मोर्चे के झंडे तले जमा हुए थे और शक्तिशाली प्रतिद्वंदी को चित करने के लिए सिर्फ चुनावी समीकरणों पर निर्भर रहने कार्यवाहक आज भी जारी है । इस से पता चलता है चुनाव घोषणा पत्र में कोई विशेष फर्क होने के बजाय करीब सभी दलों का एजेंडा सामान ही है । इंदिरा के साथ कोई वास्तविक विचारधारात्मक अंतर न होने और किसी एकदम भिन्न कार्ययोजना को लागू करने का लक्ष्य सामने न होने के कारण जनता पार्टी उनकी छवि बिगाडने के प्रचंड उपक्रम में तल्लीन हो गई । इंदिरा ने जिस प्रकार उन सबको जेल में डाले रखा, उसके खिलाफ तो उनके मन में गहरा को सफाई ऊपर से उनके औरत होने की चीज और जुड गई । सत्ता संभाले बैठे बुजुर्गों की बातचीत में अब बहुत नामक और अपना और अब जैसे शब्द प्रयुक्त होने लगे । मान उनकी राजनीति के समान ही उनका जेंडर भी इन लोगों के लिए अपमान का द्योतक था । इंदिरा से दशक भर लड चुके मोरारजी की उम्र अब इक्यासी साल हो चुकी थी और वो इंदिरा से घर ना इसलिए करते थे क्योंकि उन्होंने पहले उन्नीस सौ छियासठ और फिर में भी प्रधानमंत्री की गद्दी उनके हाथ नहीं लगने दी थी । इसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं कर सके । मुरारजी भाई ने देश की पहली गैर कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ नहीं । देसाई हमेशा खुद को नेहरू का असली उत्तराधिकारी मानते थे । बार बार इस पद पर उन्होंने दावा किया था मगर हर एक बार उन्हें वित्तीय भर की छोकरी से मात खानी पडी । उस पद के लायक ही नहीं थी और जिसके प्रति उन्हें लगता था उसका विरोध करना उनका कर्तव्य था । लंबे समय से अपनी प्रतिद्वंद्वी को अब पानी करने की छोंक में ये इंदिरा गांधी के सरकारी मकान एक सफदरगंज रोड पर भी कब्जा कर बैठे । उन्होंने उस बंगले के पश्चात श्रेणी के पास खानों को तुडवाकर भारतीय शैली के बढ खानों में बदलवा डाला की अपेक्षा कब छोटा मकान था और मोरारजी किसी बडे घर को भी अपने रहने के लिए चुन सकते थे । मगर एक सब दरगन रो अच्छा जनता पार्टी के लिए सत्ता का प्रतीक था । बुरा जी ने अपने पद से विदा लेते पीएम घर को ज्ञान पिलाया । क्लियर पोट्रो से लेकर कैथरीन तक रेट तक तमाम महिला शासक बेकार और विफल रही हैं । उन्होंने विस्तार से इंडिया की महत्वाकांक्षा और रजिया सुल्तान की आत्ममुग्धता के बारे में बताया । इसके शिकार उनके मुताबिक इंदिरा गांधी भी थी । अपनी जवानी के दौरान सबसे अलग थलग रहने वाले मोरारजी का उन थे अस्सी वाला बुजुर्ग थे जिनके निशाने पर वो युवा स्त्री थी जिसने उनकी जिंदगी को खुल लगा दिया था । नया राजनीतिक नेतृत्व सिर्फ इंदिरा के प्रति अपनी नफरत के मामले में ही एक विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें इतिहास के कूडेदान में दफन करने की कसम खाई । उत्तर प्रदेश के जाट नेता और जनता के मजबूत स्तंभ तथा अब गृहमंत्री का जिम्मा संभाल रहे चौधरी चरण सिंह रहेंगे । संसद में खडे होकर ये घोषणा की इंदिरा गांधी ने सोचा था आपातकाल के दौरान जेल में बंद सभी विपक्षी नेताओं की हत्या कर देनी चाहिए । जगजीवन राम, राजनारायण, चरण सिंह और मोरारजी जैसे गठबंधन में शामिल मुख्तलिफ नेता आपस में जबरदस्त प्रतिद्वंदी थे । मोरारजी के प्रधानमंत्री चुने जाने से तरुण सिंह और जगजीवन राम को काम निकल जाने जैसी निराशा हुई थी । बावजूद इसके इंदिरा और उनके परिवार को निपटाने की मुहिम में वो सभी एकजुट थे । नवनिर्वाचित नेताओं द्वारा जहर उगला जाना हालांकि सबको पसंद नहीं आ रहा था । साल उन्नीस सौ सतहत्तर के आरंभिक महीनों में ही केंद्र मल्होत्रा दिल्ली में रात के खाने के दौरान अपने घर में हो रही बातचीत के बीच अचानक खाना परोस रही अपनी कामवाली की कही गई बात के बारे में लिखते हैं, वाजपेयी जी को इंदिरा जी के खिलाफ ऐसी भद्दी बात नहीं कहनी चाहिए थी । होता ने पूछा क्यों नहीं? इंदिरा ने अतीत में बुरे काम नहीं किए थे । वो बोली, हाँ, इंद्रजीत ने बुरे काम किए थे और उन्होंने अच्छे काम भी किए थे । लोगों ने उन्हें सत्ता से हटा दिया । क्या इतना काफी नहीं है? जनता पार्टी सरकार एक तार्किक लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने वाली सरकार बनने में नाकाम रही जो भारत के संवैधानिक ढांचे को इंदिरा द्वारा पहुंचाए गए नुकसान व्यवस्था तरीके से ठीक कर पाते हैं । इंदिरा की कार्यशैली और राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के उनके सामंतशाही रवैये को अपनाते हुए ही जनता ने राज्यों में चल रही कांग्रेस की सरकारों को इस दलील पर बर्खास्त कर दिया कि वह दल शासन करने का नैतिक अधिकार हो चुका था । आपातकाल के दौरान हुए संविधान संशोधनों में से कुछ को रद्द कर के आपातकाल द्वारा छीने गए नागरिक अधिकारों को बहाल किया गया । लेकिन लोकतंत्र के निलंबन के दौरान दिन संस्थाओं की बुनियादों में दरार पड गई थी । उन्हें फिर सहित मजबूत बनाने की कोई सतत कोशिश दिखाई नहीं पडी । जनता सरकार के बिखरे हुये स्वरूप ने उसे निष्प्रभावी बना दिया । जनसंघ और समाजवादियों के एक ही गठबंधन में शामिल होने के कारण उसमें मतभेद पैदा होने ते थे । जनता मोर्चा के निर्माण के बीच है । हालांकि जेपी का नैतिक बल और समझ का समर्थन था लेकिन सांप्रदायिक राजनीति का उन्होंने भी आजीवन और कडाई से विरोध किया था । अब तीसरा विरोधी गठबंधन को मूर्त रूप देने की अपनी सिद्ध में उन्हें जनसंघ को भी राजनीतिक सत्ता में भागीदारी देने को मजबूर होना पडा । अपने से उम्र में कहीं चोट इस तरी के प्रति उन सबके मन में इतनी अधिक करना भी इस सारे बुजुर्गवार विचारधारा को तिलांजलि देकर इकट्ठे हो गए । हम हमें तो अंदरूनी मतभेदों को उन लोगों ने अपने साझा दुश्मन पर नजर गडाए रखने के लिए दरकिनार रखा । जनता मोर्चा ने गांधी खानदान को लगभग उसी तेजी से अपने गुस्से का निशाना बनाया जैसी फुर्ती इंदिरा ने लोकतंत्र की जडें काटने में दिखाए थे । गांधी परिवार का खुफिया एजेंसियों द्वारा पीछा किया जाने लगा । सीबीआई उनके घर की हर समय निगरानी के साथ ही साथ उनके फोन भी तेज करने लगी । उन्होंने गांधी परिवार के मेहरोली के अब बने घर की मेटल डिटेक्टर से जांच की । कहीं उसमें खजाना तो नहीं पाया गया था । उनके पासपोर्ट जब्त कर लिए गए । तार संबंधी नियमों के उल्लंघन के आरोप में राजीव के खातों की जांच की गई । ये बात दीगर है । जांच एजेंसियों के हाथ कुछ भी नहीं लगा । साल उन्नीस सौ सतहत्तर के मई महीने में जनता सरकार ने आपातकाल में सत्ता के दुरुपयोग, ज्यादतियों और अनियमितताओं की जांच के लिए जस्टिस जेसी शाह की अध्यक्षता में जांच आयोग बिठा दिया । न्यायमूर्ति जयंतीलाल छोटा लालशाह भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें न्याय का शंकराचार्य कहा जाता है । कुलीन ऑफ अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे । इंदिरा गांधी को शुरू से ही उन पर विश्वास नहीं था, क्योंकि वे मानती थी उनके विचार बैंक राष्ट्रीयकरण के विरुद्ध थे, इसलिए वे व्यक्तिगत रूप में उनके विरोधी थे । शाह आयोग की नियुक्ति से इंदिरा भले ही कितनी भी परेशान हुई हूँ मगर बाहर से उसके प्रति उन्होंने शाही नफरत था, बाहर किया । उन्होंने स्पष्ट कर दिया ये उनकी नजरों में अवैध था और कहा आयोग का गठन सरकार द्वारा बदले की कार्यवाही था । उन्होंने ये आयोग ऐसे न्यायाधीश की अध्यक्षता में बनाया था तो मेरी और मेरी राजनीति के बारे में पहले ही कडी विरोधी टिप्पणी कर चुके थे । उन्होंने हमारे विरुद्ध भाषण किए थे । उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया और लगातार मेरे और मेरी सरकार के खिलाफ बोलते रहे । भारत में भी ऐसी मिसाल शायद ही मिले जहाँ किसी मुखर विरोधी को उसके निशाने पर रहे व्यक्ति के खिलाफ जांच का प्रभारी बनाया गया हो । उन्होंने आरोप लगाया कि ऐसे न्यायाधीश निष्पक्ष जांच कैसे निष्पादक कर सकते हैं । वो डरी हुई और मित्र वही थी । उनके कथित बलिदानी वफादार उन्हें पीठ दिखा चुके थे जिनमें इंद्रा इंडिया, इंदिरा इस इंडिया, इंडिया बिस इंदिरा का नारा गढने वाले, देवकांत बरुआ जैसे चापलूस थे । वे आगे चलकर फौजी नेहरू को लिखने वाली थी । अपना पिंड छुडाने के लिए हमारे अपने ही लोग हमारे विरुद्ध हो रहे हैं । निगरानी के कारण लोग आने से कतरा रहे हैं । फोन तेज होने के कारण वो लगभग बेकार हो गया है । मुझे गहरी चिंता सता रही है । हालांकि मैं समझ रही हूँ की ये मनोवैज्ञानिक लडाई है और मुझे इसके सामने बैठे रहना पडेगा । इस सब से भी ज्यादा उन्हें ये चिंता सफाई जा रही थी कि संजय का जनता पार्टी क्या हाल करेगी । इंदिरा ने शिकायती स्वर में लिखा हूँ संजय के बारे में तमाम अनर्गल किससे फैलाई जा रहे हैं । उनमें ये किस्सा अभी तय रहा था । वो डकैतों के गिरोह में शामिल था । मीडिया द्वारा आवांछित तो थी ही ऊपर से उनके मन में ये बात बैठ गई कि दक्षिणपंथी हिंदू ताकतें उनके खिलाफ षड्यंत्र कर रही हैं । इंदिरा गांधी ने बी के नेहरू को बताया, प्रेस में हमें राक्षसी प्रचार अभियान का शिकार बनाया जा रहा है । उसके तहत काल्पनिक और ओवर अफ्वाहों को प्रोत्साहित किया जा रहा है । आरएसएस में कुछ समूह अथवा कोई विदेशी एजेंसी व्यवस्था तरीके से काम कर रही है और हम पर हर एक संभव बुराई तो भी जा रही है । इंदिरा की हार के कुछ ही महीने बाद साल उन्नीस सौ सतहत्तर के मई महीने के आखिर में मेनका के पिता प्रशव खुले मैदान में पडा मिला । उनके पास ही पिस्तौल और ये लिखा हुआ पुर्जा मिला संजय के बारे में चिंता बर्दाश्त से बाहर है । उन्होंने हालांकि आत्महत्या की थी अगर उनकी मौत के बहाने और भी घटिया अफवाहें फैलाई गई और कयास लगाए जाने लगे । सीबीआई ने संजय से मारुति और उनके वित्तीय लेनदेन के बारे में पूछताछ शुरू की । जब कुछ पहले नहीं पडा तो आपातकाल के दौरान किस्सा कुर्सी का फिल्म का प्रिंट नष्ट करने के आरोप में उन पर आपराधिक मामला दर्ज कर दिया गया । फिल्में इंदिरा गांधी की आलोचना दिखाई गई थी । इमरजेंसी के पगलाये शासन के दौरान इंदिरा गांधी की आलोचना दिखाई गई थी । आपातकाल के पगलाई शासन के दौरान किसी भी संभावित आलोचना को दबाने के लिए वाहियात हथकंडे अपनाए गए थे । मीडिया की सफाई के उद्देश्य से आंधी फिल्म के प्रसारण पर भी उन्नीस सौ में रोक लगा दी गई थी । इस फिल्म में सुचित्रा साइन और संजीव कुमार की प्रमुख भूमिका थी तथा इसकी पटकथा को इंद्रा रूस की जिंदगी पर आधारित माना गया था । विडंबना यह रही है कि किस्सा कुर्सी का फिर और दोबारा जब बनाकर उन्नीस सौ पर प्रसारित किया गया फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पूरी तरह पड गई । इसका मुकाबले आंधी फिल्म को जनता सरकार ने प्रसारण की अनुमति देकर उसका प्रीमियर दूरदर्शन पर किया तो उसकी खूब तारीफ हुई । उसके घनत् बदला अभियान के भीतर इंदिरा नहीं, जनता पार्टी के बुजुर्ग नेताओं के मन में एक दूसरे के प्रति नफरत को तार लिया । उन्हें बट खरीदिए रखने की उनकी एकमात्र और सर्वग्राही मानसिकता के भीतर से उन्होंने अपनी ताकत धूम गई । मौनी याद करते हैं, राजनीतिक अवसरों को लपटने का जहां तक प्रश्न है तो उनकी छठी इंद्रीय बडी तेज । उन्होंने जयकर को लिखे पत्र में चलता पूर्व के लिखा था किसी भी तरह की राजनीति में रहने की मेरी कोई इच्छा नहीं है । ऐसा उन्होंने ये सोचकर लिखा था । उनके मित्र जनता पार्टी के लोगों को ये बात समझा देगी । वो सुलह सफाई की उम्मीद में मोरारजी और चरण सिंह से भी मिली । लेकिन उनके भीतर से उन्हें बदले की गहरी बुआई बदले की उनकी प्यास प्रभावित भी थी क्योंकि इंदिरा के हाथों उन्हें कैच ही नहीं बल्कि उत्पीडन और अपमान भी सहना पडा था । लेकिन गोद में धुलाई अपनी दृष्टि में वो अपने सामूहिक दुश्मन का वास्तविक विकल्प गढ देगा । सुनहरा मौका गंवा बैठे । उन्होंने व्यक्ति परक राजनीति करने के साथ ही उसे सही ठहराना भी शुरू कर दिया । इसका आधे आंख के बदले आंख निकालने की राजनीति थी । आखिर में जनता सरकार ही इंदिरा गांधी की वापसी की वजह भी बनी । छठी इंद्रीय के सक्रिय होते ही अगली चाल खुदबखुद सूत जाती है । मजा हुआ । राजनीतिक व्यक्ति जब वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर पैनी निगाह गडाए हो तो बिजली की कौन मात्र से उसे आगे की राह सूट जाती है । जमाई उसे घेरने लगती है तो मनुष्य की इच्छाशक्ति उसे धूल में छुपी हुई शहतीर भी दिखा देती है । अपमानजनक हार का वायॅस इसी प्रकार अप्रत्याशित पुनरुत्थान का वर्ष भी हुआ । राजनीति के केंद्र में लौटने के दो सुनहरे अवसर एक के बाद एक उनके हाथ लगे बिहार में बेलची की यात्रा और उसके बाद दिल्ली में उनकी गिरफ्तारी । इन दोनों घटनाओं के कारण इंदिरा का नाम फिर से सुर्खियों में छा गया । दोनों घटनाओं की बदौलत उनका राजनीतिक कौशल और विपरीत परिस्थितियों से लडने की क्षमता उजागर हुई । दोनों में जनता की राय को बदला । शायद पूरी तरह से नहीं तो काफी हद तक एहसास करवाया । जिस महिला को उन्होंने चुनाव में हराया था तथा जी नहीं बताया था, उन के स्वरूप में क्या बुनियादी फर्क था? इंदिरा राजनीतिक नाटकीयता के विशेषज्ञ के रूप में उभरे भीड को लुभाने वाले प्रतीकों के प्रति उनकी स्वाभाविक चेतना फिरसे चाहेगी । हार के झटके से दूरदर्शिता लौटाएगी । बहाव में अचानक परिवर्तन के कारण आरंभ में पानी के सपेरों से घबराए तैराक की तरह लहरों की विपरीत दिशा के अनुरूप खुद को ढाल लेंगी । बेलची बिहार में दूरदराज बच्चा छोटा सा गांव है । कितना दूर की जनसंहार के बाद बेलची से खबर आने के लिए जब पत्रकार जब सुरैया पटना रेलवे स्टेशन पहुंचे तो पाया कि वहाँ किसी भी टैक्सी ड्राइवर को उसका पता नहीं था । उन्होंने लिखा कि बेलची ऐसे खुले भूखंड पर बसा गांव है जो अधूरे पुलों के पास तथा पगडंडी भी खत्म होने के बाद आता है । साल के जुलाई महीने में ये खबर आई कि बेलची में भूपतियों ने बडी क्रूरता से अनेक दलितों तब जिन्हें हरिजन कहते थे, को मौत के घाट उतार दिया । सत्तारूढ सरदार अभी अपने अंगूठे को चूज ही रहे थे । इस महिला को राजनीतिक मौका हाथ लग गया । उन्हें हमेशा से ये भान रहा था की लोगों के बीच कब जाया जाए । युद्धों और भाषाई आंदोलनों के दौरान बी घटनास्थल पर झटपट पहुंच जाती थी जबकि शासक कार्रवाई में नाकाम रहते थे । लोगों ने उन्हें ठुकरा दिया था । बिहार में बमुश्किल छह महीने पहले ही कांग्रेस का सूपडा साफ हुआ था । उसके बावजूद इंदिरा गांधी एक बार फिर फटाफट लोगों के बीच पहुंच गई और उनकी उपस् थिति ने मानव मार हम का काम किया और मदद के लिए बडे उनके हाथों ने लोगों का दिल जीत लिया । सत्तारूढ दल अथवा अन्य विरोधी जमाते भौचक्की रह गई । लोग घटनास्थल पर जाने की योजना बनाते रहे गए और इंदिरा गांधी हर्मीज की तरह अपने जूतों में पंख लगाकर उड भी गयी । वो उस डाकुओं के खतरे वाले इलाके बेलची के लिए रवाना हुई । पहले रेलगाडी और फिर जीत से और उसके बाद झमाझम बस्ती बारिश में ट्रैक्टर पर सवार होकर और अंत तहत हाथ की पीठ बिहारशरीफ में जमा भीड से उन्होंने कहा मैं यहाँ भाषण कर रहे नहीं आई । मैं तो शोकग्रस्त परिवारों से सहानुभूति जताने आई हूँ । पत्रकार जनार्दन ठाकुर उनके दौरे का वर्णन करते हैं । श्रीमती गांधी ने दृढतापूर्वक कहा खाना नहीं खायेंगे, हमें रवाना होना चाहिए । उनके साथियों ने जब ये कहा कि रास्ता खराब है और कार से वहां नहीं पहुंचा जा सकता तो उन्होंने बिना हतोत्साहित हुए कहा हम पैदल जाएंगे भले ही हमें सारी रात चलना पडेगा, हम चलेंगे जरूर । बिहारशरीफ कस्बे के बाहर निकलते ही सडक अच्छे रास्ते में बदल गई । जीत के मिट्टी में फंसने पर वो ट्रैक्टर पर बैठ गई लेकिन वह भी मिट्टी में धंस गया । श्रीमती गांधी कि चडने ही पैदल चल पडी । कुछ कांग्रेस ये कहकर मना करने लगे कि आगे कमर की गहराई तक पानी भरा था । लेकिन श्रीमती गांधी तब भी पैदल चली जा रही थी । अपनी साडी टखनों के ऊपर उठाकर अपने डरपोक साथियों को उन्होंने झटका । मैं तो पानी के बीच में से भी चलकर चल सकती हूँ । कभी सूझबूझ वाले किसी स्थानीय आदमी ने हाथ पर चढकर जाने का सुझाव दिया । उनके साथियों ने पूछा लेकिन अब हाथ पर चढेंगी कैसे? उन्होंने अधीर होकर कहा अरे भाई में चढ जाउंगी । मैं कोई पहली बार हाथ पर नहीं चल रही । बहुत दिनों बाद हाथ पर्चा नहीं हूँ । इंदिरा और उनसे डर के मारे जब की उनकी साठ दिन प्रतिभासिंह हो अपनी पीठ पर लादे मोटी नामक हाथ जैसे ही आगे बडा उनके साथ आए फोटोग्राफर ने उमंग कर नारा लगाया इंदिरा गांधी अमर रहे । उसकी और देखकर मुस्कराएंगे आसमान में बिजली गलत रही थी और नदियां बाढ से लबालब थी । घुप्प अंधेरे के बीच घनघोर घटा छाई हुई थी । मगर वीर तुम बडे चलों की तर्ज पर मोदी लहराकर लंबे तक भरता जा रहा था । इंदिरा को कमर पर बैठाए उनके राजनीतिक पुनर्जन्म के लिए हर हराते बहाव मिट्टी के बांधों को पार करता हूँ । साथ ही आगे बढ रहा था हाथ की कमर पर चुकी होता नहीं था । इसके हिंदी और साठ दिन लगातार इधर उधर डरावनी तरीके से छूल रही थी जिसकी वजह से उनका संतुलन भी नहीं बन पा रहा था । लेकिन उनके जीवन की यही तो खूबी थी कि संतुलन बनाये न बनें मगर वो डेटिंग रहती थी । इन दिनों चाहे जो हो जाए वो उम्मीद का दामन नहीं छोडती थी । बहादुर हाथ की कमर पर बैठे जो उन्हें अपने लक्ष्य के रास्ते में आने वाली बाधाओं को बार करा रहा था । जानती थी कि वहाँ उनके लोग उनका इंतजार कर रहे होंगे । हाथ की गर्दन में बंदी घंटी पिंटू ना कर मानो ये संकेत दे रही हो की राजनीति के शिखर की और इंदिरा गांधी की वापसी शुरू हो चुकी है । जीत से जहाँ वो उत्तरी थी वहाँ से बेलची करीब साढे तीन घंटे दूर थी । लेकिन उन्होंने वो रास्ता हाथ की पीठ पर लगभग लटकते हुए अपनी हिम्मत और पक्के इरादे के सहारे तय किया और बदले में हरिजनों की मासी हाँ फैलाएं । किसी वाईबी चव्हाण अथवा ब्रह्मानंद रेड्डी से कभी इतनी हिम्मत जुटाने की उम्मीद की जा सकती थी जैसी उन्होंने दिखाई । इंदिरा को अपनी पीठ पर बैठाए हुए मोटी जैसे ही बेलची में नमूदार हुआ, शोकग्रस्त परिवार पहुँच सकते रह गए थे आपने लालटेनों की बत्ती ऊंची करके उनकी और थोडे आए । उन्होंने महावत से हाथ को नीचे बैठ पाया और सरकार उनकी व्यवहार सुनी और उन्हें शांतना दी । मानो इंदिरा अम्मा लौट आई थी । परिजनों के मसीहा अपने बच्चों को दान दस बढाने के लिए आंधी तूफान और बाढ झेलकर वहां पहुंची थी । बेलची ने देश के राजनीतिक शिखर पर इंदिरा को महान नेता के रूप में स्थापित कर दिया । जब सरकार और अन्य राजनेता दुखी जनों की सहायता में नाकाम सब हुए तब अकेली जॉन ऑफ उन्हें बचाने पहुंच गई । इस प्रतीकात्मक पहल का चमत्कार जैसा हुआ । उन्होंने बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक मौका लगभग लिया । गहरे जोखिमभरे दिन में नडाल हुए बिना आधी रात को बेलची से लौटते वक्त इंदिरा गांधी ने रास्ते में पडे कॉलेज में भाषण दिया । राजनीतिक वापसी की घंटियां जब हवा में ट्रंप बना रही थी तो मौसम अथवा थकान की परवाह किसको होती है? ये नई शुरुआत करने का समय था । इसका अर्थ था जनता के दिमाग में से अपने बारे में खराब यादव को मिटाना अपनी बेलछी यात्रा के अगले ही दिन इंदिरा गांधी पटना में अपना बुढापा काट रहे जयप्रकाश नारायण से मिलने गयी । जाहिर है कि अखबार में सुर्खियां बटोरने की नई राजनीतिक चाल थी । आपने कठोर दुश्मन सहित जिसने उन्हें सत्ता से बेदखल किया था । गरमजोशी वाली शिष्टाचार की एक मुलाकात थी । मगर इस मुलाकात नहीं । पुरानी रंजिश को धो डाला और लोगों को उन्हें छमा करने का मौका दिया । जेपी और उन्होंने साथ साथ फोटो खिंचवाए और जेपी ने उनके लिए उज्जवल भविष्य की कामना की । उनकी चमकता अतीत से भी अधिक उज्जवल भविष्य की अतीफ की अपनी छवि चाहिए । उनके मुक्त होने की नींव पड गई । दिल्ली लौटने के बाद में रायबरेली के दौरे पर गई । वहाँ के लोगों ने झूठी उन्हें चंद महीने पहले ही पचास हजार से अधिक वोटों से हराया था । इसके दौरे में जोखिम तो था, उसके बावजूद रायबरेली की जनता ने बढे फैलाकर उनका स्वागत किया तो शाहपूर स्वागत लोग भारी तादाद में उनके इर्दगिर्द जमा हो गए । लंदन के गर्जियन अखबार ने लिखा, इंदिरा के पूर्व मतदाताओं ने मात्र दस मिनट में उन्हें माफ कर दिया था । उन्हें हरा दिया गया था लेकिन उनके प्रति लोगों के मन में नाराजगी नहीं थी । उनके रायबरेली में वफादार पायलट ड्राइवर दीनदयाल शास्त्री ने बताया वहाँ खुली जीप में आई थी । किसी नायिका की तरह उन्हें हराने के लिए रो रहे थे । किसी विजेता का वैसा स्वागत नहीं होता था । उनके उसी दौरे में रायबरेली से कानपुर तक उनकी सडक यात्रा की याद करते हुए वो पी श्रीवास्तव बताते हैं, उनकी वापसी आश्चर्यजनक थी । रात भर उनका स्वागत करने के लिए रायबरेली से कानपुर के रास्ते में लोग जगह जगह आज तापते हुए उनका इंतजार कर रहे थे । जीप से वो रास्ता बमुश्किल ढाई घंटे में तय हो जाता था लेकिन उन्हें क्योंकि जगह जगह रुकना पडा इसलिए वह कानपुर अगली सुबह कहीं चार बजे पहुंच पाई । अपनी सभाओं में वे अब यही दोहराती रही कि सत्तारूढ लोग अकेली और कमजोर और आपको समझा रहे थे । जवाबी हमले में आरक्षित और अपना नाम दिल्ली के सत्ताधारी बुजुर्ग हुआ उनका मूल वाक के बन गया । उसके कुछ दिन बाद हरिद्वार में जमा भीड से उन्होंने पूछा, मुझ जैसी कामचोर औरत से जानता सरकार क्यों कर रही है? उन्हें किस बात का डर है? वहां जमा भीड ने सहानुभूति में जब उनकी हौसलाअफजाई की तो जनता पार्टी के शासकों का दिल्ली में खून जमने लगा । जनता के बीच में मिल रही जबरदस्त सहानुभूति से बौखलाई जनता सरकार ने उनके खिलाफ अपना अभियान तेज कर दिया । साल के ही अगस्त महीने में उनके निजी सहायक आरके धवन चुनाव प्रभारी जशपाल कपूर और संजय पर मेहरबान रहे । पूर्व रक्षामंत्री बंसीलाल को भी पूर्व कानून मंत्री एच आर गोखले की तरह गिरफ्तार कर लिया गया । धवन कहते हैं, मैंने शाह आयोग में उनके खिलाफ गवाही देने से इंकार कर दिया था । चरण सिंह चाहते थे कि मैं गवाही तो और मेरे ऐसा नहीं करने पर उन्होंने कहा था कि मुझे परेशान होना पडेगा । मैंने कहा था मैं कोई भी परेशानी झेलने को तैयार हूँ लेकिन मैं उनके खिलाफ गवाही नहीं होगा । नटवर सिंह कहते हैं, इंडिया के प्रति धवन की वफादारी एकदम मुकम्मिल थी । मुकम्मिल निजी वफादारी का कोर्ट इंदिरा को सबसे अधिक खाता था । उनके दरबार में शामिल होने की यही मुख्य शर्त थी जहाँ आयोग की सुनवाई साल उन्नीस सौ सत्य के सितंबर में दिल्ली के पटियाला हाउस में शुरू हुई । अदालत खचाखच भरी थी और लोग तानाकशी कर रहे थे । अदालत के बाहर जमा लोगों को कार्यवाही सुनने के लिए लाउडस्पीकर लगाया गया था । आयोग के सामने इंदिरा और संजय के विरुद्ध है । जब जब आरोप लगे तब तब बदले को उत्सुक भीड ने उनके खिलाफ नारेबाजी की और निंदा परक आवाजे निकालनी । आयोग के सामने सैकडों लोगों ने आकर अपना पक्ष रखा जिनमें उन के खास सिपहसालार और मित्र रहे । सुधार शंकर रही तथा जगमोहन भी शामिल थे । इंदिरा ने आरंभ में आयोग में पेश होने से इंकार कर दिया । उनका कहना था कि आयोग की कार्यवाही के प्रति उनको भरोसा नहीं था और वह कानून सम्मत नहीं थी । उन्होंने ये आश्वासन भी मांगा उनके विरुद्ध लगे आरोपों को नकार ने के लिए उन्हें सबूत पेश करने की अनुमति दी जाएगी । इस बहाने उन्हें कुछ मोहलत मिल गई । जल्द ही जनता सरकार ने उन्हें सुर्खियों में छाने का नया मौका दे दिया । आपातकाल के कडे कानून को रद्द कर दिए जाने के कारण भारत में फिर से सामान्य गैरकानूनी प्रवृतियां अभी होने लगी थी । अपराध बढ गए, तस्करों और मुनाफाखोरों की फिर बारह होने लगी और रूढिवादी मध्यवर्ग के बीच आपातकाल के सुव्यवस्थित और अनुशासित दिनों को याद किया जाने लगा । उन के पीछे फिर से जुडते जनसमर्थन की भनक लगने के कारण दिल्ली के शासकों ने इंदिरा गांधी को काबू करने और अपने निकम्मेपन पर खींचते हुए तथा बेलची और रायबरेली में इंदिरा को मिले भारी जनसमर्थन सॅान्ग जनता सरकार ने अपनी हरकतों से इंदिरा गांधी को फिर सही राजनीति के केंद्र में लाकर खडा कर दिया । इंदिरा को साल के अक्टूबर महीने में गिरफ्तार कर लिया गया । उनके खिलाफ जो मुकदमा दायर किया जाना था सरकारी जीतों के दुरुपयोग था । उनकी गिरफ्तारी बेहद नाटकीय रही । उन्हें गिरफ्तार करने पुलिस जब उनके घर पहुंची तो उन्होंने अपनी भूमिका सोच समझकर तय कर ली । उन्होंने पुलिस को पूरे पांच घंटे इंतजार करवाया और भी सलीके से इस तरह की हुई कलफ लगी । खादी की सफेद पुरा साडी पहन कर आई गिरफ्तारी और कैप तो उनका खानदानी पेशा रहा था और इंदिरा को ये बखूबी पता था ये सुनहरे मौके को कैसे भरपूर बनाया जा सकता है और पांच घंटों में उनके घर से उनके समर्थकों और ड्रेस को बुलाने के लिए फोन भी कर दिए गए । मौके की नजाकत के अनुसार शहीद आना पोशाक में लिपटी वो दरवाजा खोलकर बाहर आई और उन्होंने हथकडी लगवानी किस्मत की । प्रेस के कैमरों की बत्तियां उनके घटाकर तस्वीरें ले रहे हैं और वहाँ जमा भारी भीड उन्हें माला पहनाने में जुट गई । उसके बाद पुलिस की गाडी में साडी हुई गरमा के साथ बैठ गई और पुलिस का काफिला हरियाणा के बडखल लेकर सर गेस्ट हाउस में उन्हें कैद करने के लिए निकल गया । उनके परिवार, जन और वकील अपनी अपनी कारों में उनके पीछे लग गए । हरियाणा की सीमा की ओर बढते काफिले को सामने से गुजरती रेलगाडी के कारण रेलवे फाटक पर उतना बडा इंदिरा पुलिस की गाडी में गरिमापूर्वक बाहर आई और अपने समर्थकों से बडी सडक के किनारे बनी कोलियां पर बैठ नहीं उनके वकीलों ने आॅफ शुरू की और उन्हें बिना वारंट इंदिरा को दिल्ली से बाहर नहीं ले जाने पर अड गए । गम्भीरतापूर्वक पल्लू से सर कोटा के उदासीन और उबाऊ भाव से पुलिया पर डटी हुई थी मानो वहाँ से हिलाना ही नहीं चाहती थी । उन्होंने वहाँ जमा संवाददाताओं के सामने नाटकीय अंदाज में घोषणा की जो सरकार राजनीतिक विरोधियों से डरती है वो देश पर शासन नहीं कर सकती । उनके आवास में कोई गंगे नहीं था । वो कोशिश कर रहे हैं मेरा मनोबल तोडने की । मेरा मनोबल हमेशा की तरह एकदम मजबूत है । संवाददाताओं नहीं जब उनसे पूछा कि उनके खिलाफ आरोप क्या थे तो उन्होंने लगभग खारिज करने के और उत्तर हुए अंदाज में जवाब दिया भ्रष्टाचार के कुछ आरोप है । मुझे लगता है कि जीतों से संबंधित है हूँ । पुलिस द्वारा अपने जंगल में कैद इंदिरा को हरियाणा ले जाने की कोशिश भौंडेपन की हद तक अत्युक्ति थी । उनके वकीलों की तगडी दलीलों से निरुत्तर होकर पुलिस को अपनी योजना रद्द करनी पडेगी और उनके पास उन्हें लेकर दिल्ली में पुलिस लाइन में लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था । पुलिस लाइन पहुंचने पर पुलिस कर्मियों ने उन्हें कर्तव्य पूर्ण तरीके से सलामी दी और उन्हें हवालात मिले गए । उन्होंने कुछ भी खाने से इंकार कर दिया और जल्दी ही गहरी नींद हो रही थी । रात भर आराम के बाद नींद से एकदम तरोताजा जाएगी तरोताजा महसूस करने का उनके पास महत्वपूर्ण कारण था, पुलिस नहीं । हालांकि सोचा उनके पास अपनी कार्रवाई के लिए अदालत को समझाने की ठोस दलील थी मगर मजिस्ट्रेट नहीं । उनकी दलील खारिज करके सभी आरोपों को बेबुनियाद ठहरा दिया । इंदिरा को तत्काल रिहा कर दिया गया । पुलिस मुकदमा हार गई और इंदिरा को बैठे बिठाए साहनुभूति और भरपूर प्रचार मिला । राजीव ने किसी विदेशी संवाददाता से उत्सुकतापूर्वक कहा । इससे बेहतर परिदृश्य की कल्पना तो मम्मी भी नहीं कर सकती थी । विफल गिरफ्तारी और इस पूरी प्रक्रिया के दौरान इंदिरा के व्यवहार नहीं, ये बखूबी चला दिया अपने दुश्मनों के अनियंत्रित गुस्से का राजनीतिक फायदा उठाने में वो कितनी माहिर थी, विचारे लगी पीते रह गए और उन्होंने उनका भरपूर फायदा उठा लिया । प्रणब मुखर्जी उन दिनों नुमाया हुआ चुटकुला सुनाते हैं । सरकार की काबिलियत देखो जिस औरत ने सैकडों नेताओं को उन्नीस महीने कैद रखा, उसे वह उन्नीस घंटे भी सलाखों के पीछे बंद नहीं रख सके । जनता सरकार द्वारा खुलेआम दुश्मनी जुटाने के मुकाबले में लडाई के लिए सन्नद्ध हो गई । वे अखबारों की सुर्खियों में फिर से छा गई । उनकी गिरफ्तारी नहीं । ये जता दिया कि सरकार उन्हें फंसाने को कितनी आतुर थी । वो थे आरोपों के कारण ये राय बनी । छोटी सोच वाले लोगों ने उस औरत के खिलाफ छिछोरी लडाई छेड रही है । किसने कभी उन्हें पटक नहीं दी थी? लंदन के फाइनेंशियल टाइम्स अखबार ने लिखा, न्याय और बदले के बीच भारी फर्क होता है । इसी दौरान कांग्रेस के भीतर सत्ता का संघर्ष शुरू हो चुका था । वायवी चव्हाण और सिद्धार्थ शंकर रही जैसे वफादारों ने भी संजय और इंदिरा की निंदा शुरू कर दी थी । रेनातो सहायोग सामने इंदिरा के विरुद्ध गवाही भी दी थी । हालांकि रे और उनकी दोस्ती आपातकाल के दौरान ही डगमगाने लगी थी । मुख्यमंत्री के तत्कालीन सचिव भास्कर घोष का मानना है, मेरी द्वारा बंगाल में उसकी इच्छा के अनुसार कडाई से नसबंदी कार्यक्रम लागू नहीं किए जाने के कारण संजय उन से बहुत खफा था और उन्होंने अपनी माँ को उनके पुराने दूससे प्रमुख करने में कोई कसर नहीं छोडी थी । होश कहते हैं आपातकाल के आखिरी महीनों में संजय के सिपहसालारों ने ईबी गनी चौधरी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं में शुमार थे । रही इतने अकेले पड गए थे कि घोष के अनुसार उन्होंने मेरे को अपने कमरे में कभी कभी रोते हुए भी देखा था । बेलची के बाद इंदिरा के घर पर समर्थकों की भीड फिर से छुटने लगी । लेकिन कांग्रेस के अनेक नेता संजय और किसी हद तक इंदिरा को भी इतना ना पसंद करने लगे थे । उन्हें दोबारा उनका नेतृत्व स्वीकार ही नहीं था । कांग्रेस में बने एक नेता ही चेतावनी देने लगे थे । केंद्र फिर से कांग्रेस को अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं का औजार बनाकर कांग्रेस जनों को अपना गुलाम बनाना चाहती थी । मौसम साठे और प्रणब मुखर्जी जैसे इंदिरा के सहायक रहे नेता उन्हें समझाते रहे । पार्टी में उन्हीं का जलवा था । फिर भी अन्य नेता संजय के प्रति निष्ठा जताने की मजबूरी के आगे झुकने को तैयार नहीं थे । पार्टी अध्यक्ष ब्रह्मानंद रेड्डी ने पूछा, हमें सडकों पर प्रदर्शन करने अथवा जेल जाने से डर नहीं लगता । लेकिन क्या हमें संजय गांधी या फिर बंसीलाल या फिर यशपाल कपूर के समर्थन में आंदोलन करना चाहिए? कांग्रेस और फिर से टूटने की कगार पर थी । संजय ने हालांकि युवाकांग्रेस छोड देने की घोषणा कर दी थी लेकिन अपनी माँ के लिए वही उन की दुनिया था । उनका राजनीतिक सलाहकार बेटा और नाया ब्रह्मानंद रेड्डी, स्वर्ण सिंह, वाईबी चव्हाण, वसंतदादा पाटिल और अन्य नेताओं ने मिलकर इंदिरा विरोधी गुट बना डाला । इंदिरा के साथ के अनेक मंत्रियों द्वारा जहाँ आयोग के सामने ये गवाही देने के कारण उन्हें इंदिरा द्वारा गलत काम करने के लिए मजबूर किया गया, कांग्रेस के फिर से टूटने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था । प्रणव लिखते हैं, जहाँ आयोग के सामने गवाही देते समय कभी सिद्धार्थशंकर रही का आयोग के हॉल में इंदिरा गांधी से आमना सामना हुआ । इंदिरा गहरे लाल रंग की साडी पहनी हुई थी तो मैंने कहा समाज बडी प्यारी लग रही हो । इंदिरा ने हजार भरी नजरों से उन्हें देखा और उनसे कहा, तुम्हारी कोशिश के बावजूद साल के पहले ही दिन यानी एक जनवरी को पार्टी अध्यक्ष ब्रह्मानंद रेड्डी ने इंदिरा को कांग्रेस से निष्कासित किया और कांग्रेस फिर सहित कांग्रेस एस तथा आई मैं बढ गयी । कांग्रेस आई के नेता इंदिरा गांधी बनी जिसमें आई का मतलब हिंद्रा था । नई पार्टी ने हाथ के पंजे को अपना चुनाव निशान मनाया । पार्टी के पुरानी चुनाव निशान गाय बछडे से छुटकारा पाकर अनेक नेता बहुत खुश थे क्योंकि चुनाव के दौरान उसे माँ बेटे यानी इंदिरा और संजय का प्रतीक बताया गया था । इस मौके पर उनके कट्टर समर्थकों प्रणब मुखर्जी, पीवी नरसिंहा और मौसम साठे ने उनका भरपूर साथ दिया । पत्रकार रशीद के दवाई पंजी को पार्टी का नया चुनाव निशान बनाने के पीछे छुपे सहयोग के बारे में लिखते हैं । इंदिरा की नई पार्टी के महासचिव बूटा सिंह ने तब विजयवाडा में मौजूद इंदिरा गांधी को पंजी के रूप में पार्टी के नए चुनाव निशान का अनुमोदन लेने के लिए टेलीफोन क्या चुनाव आयोग द्वारा अन्य उपलब्ध विक्लप, हाथ तथा साइकिल भी बताए गए? उनके ट्रंक कॉल पर वो चलाए आप? हाँ । फोन पर स्पष्ट सुनाई दे रही बात और बूटा सिंह के पंजाबी लहजे की वजह से एक मजेदार घटना हुई । उधर से इंदिरा ने पूछा आती थी नहीं नहीं हाथ नहीं । गनीमत ये रही कि तभी अनेक भाषाओं में माहिर नरसिंह राव ने फोन पकडा और सलाह दी । बूटा सिंह जी पंजाब का ये पंजाब इंदिरा उधर से आश्वस्त हुई और बोली हाँ ठीक है पंजाबी ठीक रहेगा नहीं । कांग्रेस आये आप चौबीस अकबर रोड पहुंच गई जो आज भी पार्टी मुख्यालय है । इस तरह की कांग्रेस दरअसल गांधी और नेहरू के नेतृत्व में आजादी के आंदोलन में तभी निकली कांग्रेस नहीं है बल्कि नेताओं का ऐसा समूह है जो और में दोनों बार इंदिरा गांधी के चारों और जमा हुआ था । इसके बावजूद उन्नीस सौ उनहत्तर की तरह ही इस बार फोन करता हूँ, सही पडा है । सालों में कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के राज्य चुनावों में कांग्रेस आई ने दो तिहाई बहुमत के साथ जीत हासिल कर ली । इन राज्यों ने उन्नीस सौ में भी इंदिरा का समर्थन किया था और महाराष्ट्र में भी कांग्रेस आई सबसे अधिक सीटें हासिल करना है । सबसे बडे दल के रूप में उभरेंगे । कुछ कुछ पैदाइशी और कुछ कुछ गडा हुआ करिश्मा जिसमें महिला होने के नाते उठाई गई प्रताडना का बोध भी था । पारिवारिक विरासत और आतुरता इसे महान जनता कहती थी । उनके साथ गहन अपनापन इंदिरा गांधी के भीतर से छ लगता था । उनके भीतर ऐसा कौन सा गुप्त था? जनता की भीड को उनके पक्ष में ढल देता था चाहिए उनसे पारिवारिक आदमी होता से बात करती थी ये कि वह भीड को ऐसे संबोधित करती थी जैसे वो किसी व्यक्ति से बात कर रही हूँ कि वे वर्ग अथवा क्षेत्र में कोई भेद नहीं करती थी और आम लोगों को भी राजनीति और नीति जैसे पेचीदा मुद्दों के बारे में ऐसी विश्वास में ले लेती थी मानो वे अपने घनिष्ठ मित्र से बात कर रही हूँ । तमाम तानाशाही प्रवर्ति के बावजूद ब्यूर में भारत के प्रति सडक देखते थे । भले ही कितनी अभिमानी हो, उनमें देशभक्ति देखते थे और उससे पहले ही तो कितनी दूर हूँ । उनमें तमाम कमियों और और सुरक्षा के बावजूद मातृत्व बोध वादे थे राजनीति में वापसी की कहानी का । जहां तक प्रश्न है तो आज तक इंदिरा के मुकाबले कोई भी भारतीय नेता उसे इतने भव्य रूप में नहीं लिखवाया, जैसा इंदिरा नहीं किया । वो भी भीषण पराजय के महज तीन साल के भीतर डाली कहते हैं वो भले ही उत्कृष्ट वक्त आना हूँ मगर बहुत और सरदार थी और सहानुभूति बटोरने में तो लाजवाब वो हमेशा इस बात पर जोर देती थी । लोग कैसे उन्हें निशाना बना रहे थे, अपमानित कर रहे थे । बहुत किफायत की जिंदगी जीती थी वो उनके जीवन में कोई दिखावा नहीं था । लोगों को ये बात पसंद आती थी कांग्रेस में भले कितनी भी बेमानी चलती रही हो, संजय के साथ उनका व्यवहार कितना भी अलोकतांत्रिक हो उसके बावजूद आम जनता के लिए वे ईमानदारी और सादगी की प्रतीक उनके व्यक्तित्व में सादा जीवन शैली और चाल चलन में शालीन थी । यात्रा के लिए सामान बांधते समय भी उनके कर्मचारियों के लिए उनकी संयम छह लेंगे और न्यूनतम जरूरतें बहुत पैदा कर दी थी, मानो हल्के फुल्के सामान के साथ नहीं । अपनी निर्वात स्वतंत्रता शायद अनावश्यक सामान और दिखाने से भोजन होने से कहीं अधिक तैयार थी । इंदिरा आखिरकार उन्नीस सौ अठहत्तर के जनवरी महाने चेहरे पर शांति और ना पसंदगी का भाव लिए जहाँ आयोग के सामने पेश हो गयी । देशी के आरंभिक तो उन्होंने चुप्पी साधे रखी । तीसरे दिन चर्चा हज लाए, उन्हें बयान तो देना ही होगा । उन्होंने शांत लहजे में जवाब दिया, मैं गोपनीयता के पालन संबंधी अपनी शपथ से बने होने के कारण कोई बयान नहीं दे सकती हूँ । नहीं मैं उसके प्रति आयोग के प्रति संवैधानिक रूप में जवाब दे हूँ । इसके बाद उन्होंने शाह को ही ये कहकर कठघरे में खडा कर दिया जब न्यायपालिका के कुछ निश्चित सदस्यों ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था क्योंकि कथित रूप में उन बैंकों में उनके भी शेयर थे । संसद में उनके विरुद्ध महाभियोग की कार्रवाई आरंभ करने का प्रयास किया था । उन कार्रवाइयों को रोकने के लिए उन्होंने खुद सफल किया था कि सुनते ही शाह नमक कर सफाई देने लगे । उनके पास किसी भी बैंक का कोई शेयर नहीं था । मैं किसी भी बैंक का कभी भी कोई शेयर होल्डर नहीं रहा कि झूठा आरोप है । जहाँ लाए इंद्रणी सपाट भाव से उत्तर दिया । मैं तो आपका बिल्कुल भी उल्लेख नहीं कर रही हैं । बहरहाल उन्होंने अपनी बात कहेगी दी । उन्होंने शाह पर बढत हासिल कर ली थी जहाँ आयोगने पेशी को भूलकर इंदिरा को अब ऋषि का आशीर्वाद लेने जाना था ताकि नई कांग्रेस को उसके पैरों पर खडा करने का दौरान ठीक से शुरू किया जा सके । इंदिरा गांधी को महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और भूदान आंदोलन के नेता आचार्य विनोवा भावे का संदेश मिला जरूरी महाराष्ट्र के वर्धा नहीं पवनार स्थित अपने आश्रम में आकर मिलने का उनसे अनुरोध किया था । बुजुर्ग सावंत मौन व्रत का पालन कर रहे थे मगर नेहरू की बेटी से ये कहने के लिए उन्होंने अपना व्रत खोला । चेहरे रहती चेहरे रहती है जहाँ आयोगने के फरवरी माह में ही इंदिरा और संजय को दोषी ठहराते हुए अपनी कार्यवाही संपन्न कर दी । जहाँ आयोग की रिपोर्ट पांच सौ पन्नों का प्रवाह, कानूनी जुमलो और नंबर भरा दस्तावेज है उसमें इंदिरा, संजय, प्रणब मुखर्जी और बंसीलाल को खास तौर पर गलत बताया गया है । उसमें आईएएस अफसरों के जरा सा दबाव पढते ही घुटने टेक देने का भी जिक्र है । उसमें अधिकारियों को हाथ कर नसबंदी केंद्रों में भेजने और तुर्कमान गेट इलाके में झोंपडपट्टियों को हटा रहे मनमानी, गिरफ्तारियों और प्रेस को संसद किए जाने का विवरण है । उसके अनुसार आपातकाल के दौरान हजारों लोगों को बंदी बनाया गया और अनेक सरासर अवैध तथा अनावश्यक कार्रवाई की गई । इनसे अबूझ मानवीय कष्ट और दुख के हालात बने हैं । इसके बावजूद की उसकी भाषा पर भले ही कितनी भी मेहनत की गई थी । ये रिपोर्ट भारत द्वारा तानाशाही झेलने की अवधि का बहुमूल्य रिकॉर्ड है । इंदिरा ने रिपोर्ट को खारिज कर दिया, हम जहाँ आयोग की रिपोर्ट को नहीं मानते हैं और देश की जनता को भी वो स्वीकार्य नहीं है, उन्होंने दिखा दिया वो एकदम अप्रासंगिक । श्री शाह को ये कैसे पता कि राजनीति की दुनिया में क्या चल रहा है? विकासशील अर्थव्यवस्था को तबाह करने पर उधर ताकतों कैसे जुड गई हैं? क्या एक न्यायाधीश शिकायत करने के योग्य है? यदि ऐसा है तो फिर लोकतंत्र की क्या जरूरत है? चुनाव क्यों कराया जाए? राजनीतिक लोगों को सत्ता सौंपने की क्या जरूरत है? मेरे अथवा मेरे समर्थक समझे जाने वालों के खिलाफ मामलों के अलावा किसी भी केस की पडताल नहीं करना चाहते थे । उन्होंने उन लोगों का एक भी बयान दर्ज नहीं किया तो मेरे पक्ष में कुछ कहना चाहते थे । अदालत के भीतर भी उन्होंने उन चुनिंदा लोगों को बैठने दिया जिन्होंने हमारा उपहास किया । यदि किसी ने हमारा उत्साह वर्धन किया तो उसे उठाकर बाहर फेंक दिया गया । भला कोई अपना न्यायाधीश जनता की नायिका के खिलाफ फैसला कैसे हो सकता था? उन्होंने और भी दृढतापूर्वक अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों की संख्या पडालिया । उत्तर प्रदेश में शामिल पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में उन्नीस सौ अठहत्तर के अप्रैल महीने हिंसक प्रदर्शन होने लगे । वहाँ कर्मचारी अपना वेतन बढाने की मांग कर रहे थे । उन पर और उसने गोलाबारी की । इसमें सोलह लोग मारे गए । घटनास्थल पर सबसे पहले इंद्रा पहुंचे और अपने साथ गए ब्रिटिश पत्रकार रूस चैंपियंस है । उन्होंने कहा शारीरिक फुर्ती के मामले में वे देश के हर एक नेता को पीछे छोड सकती थी । उन्होंने अपने तरोताजा स्वास्थ्य पर बडा नाम था । साठ साल की उम्र में भी अपने पिता के अरमानों के अनुरूप एक दम । उस तरफ खुशवंतसिंह लिखते हैं, अपने स्वास्थ्य के प्रति इंदिरा बेहद संवेदनशील थी । आपने डॉक्टरों को गलत शब्द करने के लिए वो घोडे सवारी करते थे । रोजाना लम्बी लम्बी सैर, बेहद व्यस्त दिनचर्या निभाती थी को कहा करती थी । मकान तो मानसिक स्थिति है, शारीरिक नहीं । आपने दक्षिण भारत के दौरों में उनका पाला हिंसक प्रश्न से पडता था । उनकी कार पर पत्थर बरसाए जाते थे । उन्हें काले झंडे दिखाए जाते थे । चैटमैन लिखते हैं, इस सारे भारतीयों की नायिका मडोना बने रहने के लिए बडे पापड झेल रही हैं । रात का अंधेरा छा जाने पर अपने घुटनों के बीच गौर दबाकर उसकी रोशनी अपने चेहरे पर रोशन करते हुए चैट वन से कहती थी, देवी बनना कितना आउट है उसका तो मैं कोई अंदाजा भी नहीं है । लोकतंत्र में तो दैवीय चरित्रों को भी जनता से अनुमोदन हासिल करना पडता है । अपने दौरे जारी रखने के दाव ने उन्हें सहनुभूति दिला दी । वो अकेली औरत थी और सर वजा किए उन लोगों के सामने बहादुरी से जुडी हुई थी तो उन्हें तबाह करने पर बोले थे । उनके भाषण दरअसल उनके मतदाताओं के उधर रक्षात्मक भावों के प्रति अपनी जैसे थे । आपने जख्म दिखाकर उनसे माफी कर देने की गुजारे हैं क्योंकि उनके खिलाफ कितने गहरे अपराध किए जा रहे थे । इसलिए अपने गुनाहों को भुला देने का बुलावा प्रतिद्वंदी कांग्रेस के नेता वाईबी चव्हाण नहीं । अभी साढे से कहा इंदिरा की तरह जिस व्यक्ति को ठुकरा दिया गया हो, उसका फिर स्वीकार्य होना नामुमकिन है । जवाहरलाल की बेटी जरूर है, मगर आजकल उनकी परछाई में देखना भी आत्मघाती है । बुजुर्गवार लोग दरअसल वास्तविकता से नावा करते । उनकी परछाई से भी वह बच रहे थे । मगर जनता उसी छाया में पनाह लेने को आतुर । इससे बरगद की छांव में आते हैं । उनकी राजनीतिक कुशलता पुनर्जीवित हो गई थी । साल की गर्मियों में अति महत्वपूर्ण आजमगढ उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार पहुँचना दुबई जीत गई । चुनाव में इंदिरा ने जोर शोर से प्रचार किया, बेहिसाब सभाओं में भाषण दिया । उन्हें ये भरपूर अहसास था उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना और जनता उम्मीदवार को हराना कितना सही था । सुनील सेट्ठी लिखते हैं, श्रीमती गांधी का आजमगढ में घाघरा राजनीतिक हो भी चल गया चुनाव प्रचार की उनकी शैली की विषेशता वहाँ भी देखी एक फॅर लगता रहस्यमय शहादत के चढावे को खुद पर तारी कर लेने की उनकी क्षमता हिंदी पट्टी के दिल उत्तर प्रदेश में जहाँ के आम चुनाव में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी, आजमगढ में जीतने उनका मनोबल बढाया और उनकी वापसी का भी ठोस इशारा किया । छह याद करते हैं उसे मौसम जरा में रूप में करता था । वो अंदर सरकार में यात्रा कर रही थी । इसमें एयरकंडीशनर भी नहीं था । मैंने उनसे पूछा कि वे जिस कैसे बर्दाश्त कर रही थी । उन्होंने कहा कि वह कुछ भी नहीं खाती और तरल खुराक से गुजारा करती हैं । उन्होंने ये भी कहा कि वो अपने साथ भीतरी कपडों के कई जोडे रखती हैं जिन्हें बार बार बदलती रहती थी । इंदिरा की राजनीतिक ऊर्जा से परेशान जनता सरकार ने किस्सा कुर्सी का मामले में संजय की जमानत रद्द कर दी । उन्हें किस्सा कुर्सी का फिल्म के प्रिंट को नष्ट करने के आरोप एक महीने के लिए जेल भेज दिया गया । अपनी गर्दन के चारों और रस्ता कानूनी बंदा देखकर इंदिरा जनता सरकार के हाथों से बचने के लिए मानव भाग रही थी और उनकी तौर अंत कहा चिकमगलुर में जाकर खत्म हुई क्योंकि उन्होंने वहाँ से उपचुनाव लडने की ठान ली । कर्नाटक के मूल्यान गिरी की खूबसूरत पहाडियों के बीच बसा चिकमगलूर जब ही नेहरू के बेटे के लिए राजनीतिक संजीवनी सुद्ध होने वाला था । चिकमंगलूर कॉफी के अपने खरे भरे बागान और सर सराकर ऊंचाई से गिरते झरनों तथा कल कल करती नदियों के लिए बेहद प्रसिद्ध था और कन्नड भाषा में इसका अर्थ था छूट की । बेटी का गांव । किसी भी जनता सरकार चुकी अपनी अंदरूनी खींचतान के कारण शासन करने में ढीली पड रही थी । इसलिए भारत पर अस्थिरता का भूत फिर से हावी होने लगा । फिरौती, तस्करी और अव्यवस्था चौतरफ फैलने लगी । दिल्ली में अपराध तेजी से बढ रहा था । गरीबों और निचली जातियों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं आए दिन होने लगी थी । पुलिस में भी असंतोष उफान पर था क्योंकि आपातकाल के दौरान मिले आदेशों का पालन करने के लिए उन में से कई अफसरों को जनता सरकार कानूनी कार्यवाही की चपेट में ले रही थी । कुल मिलाकर इंडिया के प्रतिद्वंदी लगातार आपसी झगडों और राजनीतिक द्वेष के भंवर में पहुंचते जा रहे थे । चरण सिंह ने के जून महीने में विवादास्पद बयान दिया कि जनता सरकार को जनता कपल्स को की मंडली समझने लगी है क्योंकि वो इंदिरा गांधी पर कानूनी कार्रवाई भी विफल रही है । प्रधानमंत्री मोरारजी भाई ने कुपित होकर धर्म सिंह को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया । हालांकि कुछ ही समय बाद उन्हें अपनी सरकार बचाने के लिए श्री सिंह को वापस वित्तमंत्रालय सौंपना बडा जनता पार्टी के भीतर दिनों दिन बढ रहा । मनमुटाव अब आम लोगों की जुबान पर था और इंदिरा कदम दर कदम मजबूत हो रही थी । चुनावी मुकाबले में फिर से कूदने से पहले इंद्रा ने आपातकाल के लिए सार्वजनिक माफी मांगने जैसा बयान दिया । उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा, रेस का गला घोटना कुछ अधिक ही कडा उपाय था और ये भी माना कि हालात बेकाबू हो गए थे । वे अपनी भीषण हार के एक साल बाद ही चुनाव लडने की तैयारी कर रही थी । पिछली अपने दामन पर लगे दागों में से कुछ बेहद आपत्तिजनक ताकतो मिटाने जरूरी थे । उन्होंने उसी सक्षात्कार में ये भी कहा मुझे नहीं लगता कि कोई भी अन्य नेता मुझ से काम तानाशाही प्रवृत्ति वाला है । आपातकाल के बाद बिताना शाह होने के आरोप को लगातार मांझकर छुडाने में लगी हुई थी । बाद में वो उन्नीस सौ अस्सी में डोरोथी नार्मन को भी लिखेंगे तो मुझे कम से कम इतना तो जानती ही हो । इस बात की तस्दीक कर सको की मैं न तो तानाशाह हूँ और न ही भाव ही । लेकिन मैं अपनी भावुकता जगह नहीं पाती इसलिए शायद इस बात को गलत समझ लिया जाता है । जनता के दरबार में सर झुकाकर इंदिरा ने फिर से प्रचार की रफ्तार पकड ली । जयकर को उनकी इस खूबी ने बहुत प्रभावित किया । ताबडतोड चुनाव प्रचार के बीच भी वो आसानी से आराम की मुद्रा में आ जाती हैं । हवाई जहाज में घुसकर सीट पर बैठते ही वे अपनी आंखों पर कपडा ढकती और सो जाया करती । इतनी आसानी से सब कुछ भूलकर आराम कर लेने की उनकी क्षमता पर मुझे इसमें होता था और उन सही इस बारे में मैंने बात भी की । उन्होंने कहा कि उन्हें पढते ही सो जाने में कभी कवार ही दिक्कत होती थी । विकास रेलगाडी, हवाई जहाज आदि में आसानी हो जाती थी और हल्के से इशारे पर मीन से जांच भी जाती थी । अपनी मर्जी से कभी भी हो जाने के उनके गुण के बारे में अन्य लोगों ने भी टिप्पणी की है । वजाहत हबीबुल्लाह पुष्टि करते हैं । उनके भीतर एक झटके में सो जाने की गजब की क्षमता थी । बो हमसे कहेगी चलो अपने सो रही हूँ और फिर भले ही उनके चार और कितना भी शोर मचता रहे, गहरी नींद में डूब जाती थी और नींद सही, एकदम तरोताजा जाती थी । रणभूमि उनका प्राकृतिक परिवेश था और युद्ध का मोर्चा ही उनका घर पे । उन क्षेत्रों में मैं किसी सिपाही की तरह आसानी चाहिए और अपने दुश्मन से स्वप्रेरित कार्यवाही के अंदाज में लडकी हूँ । इस प्रकार भी अच्छा शक्तियों की निरंतर लडाई में व्यस्त रहती थी । चिकमगलूर में अपने चुनाव अभियान का दौरा रोजाना अठारह घंटे तक दौरा करती हूँ । फॅमिली और फल उनकी खराब थे । सभाओं में भाषण, आस्था के स्थलों में हाजिरी, पुरूषों में पदयात्रा आदि में व्यस्त रहने के बावजूद हो सकती थी और मैं छुट्टी थी । उसके बावजूद उनकी कोमलता पर लक्षित होती थी । उनके चुनावी पोस्टरों में भावना तक अपील थी अपना वो अपनी इस छोटी बेटी को दीजिए । जनता पार्टी ने चिकमंगलूर में उनके खिलाफ प्रचार में उनके पुराने प्रतिद्वंदी जॉर्ज फर्नांडीस कुछ होगा हुआ था । इन्दिरा पर निशाना साधते हुए जनता पार्टी ने जो पोस्टर लगाए थे उनमें नारा था सावधान रही कालानाडा फिर अपना पन कार्ड देने को तैयार है । जनता पार्टी ने हालांकि वहाँ पर गलत चीज चुना था, क्योंकि कर्नाटक के गांव में ना की देवता और संरक्षक रूप में पूजा होती है । इसके अलावा विध्यांचल के दक्षिण में आपातकाल ने इंदिरा की लोकप्रियता पर ग्रहण भी नहीं लगाया था । वे तब भी इंदिरा रम्मा थी । सत्तारूढ दल के खिलाफ इंदिरा गांधी की अपनी पूरी ताकत से लडनेवाले सिपाही की छवि उस समय बेहद दिलचस्प नारे में उकेरी गई थी । एक शेरनी सौ लंगूर चिकमंगलूर चिकमंगलूर हरियाली से चलते जंगलों से घिरे गांव के बीच झमाझम बस्ती बारिश के बीच जा रही अपनी गाडी को उन्होंने घने पेड के नीचे दबके कॉफी बागान के कामगारों से बातचीत के लिए रोका और ऐसे ही अनेक मौकों पर उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ जताई । आखिरकार इंदिरा गांधी में आठ नवंबर को चिकमगलूर उपचुनाव में सत्तर हजार से अधिक वोटों से विजयी घोषित की गई और साल उन्नीस सौ अठहत्तर खत्म होने से पहले ही फिर से संसद में जा पहुंची । उन्होंने कहा, मैंने कहा था कि मैं कभी भी दोबारा चुनाव नहीं लडूंगी लेकिन मैं फिर से यहां पहुंची । क्या उन्होंने कभी दोबारा प्रधानमंत्री बन पाने की कल्पना की थी? मैं निश्चित रूप से उन परिस्थितियों की कल्पना कर रही थी जिनमें मैं दोबारा प्रधानमंत्री बन सकती थी । प्रश्न यह है कि क्या मैं वैसा चाहती हूँ अथवा उसके लिए सहमत होंगी या नहीं । चिकमगलूर निर्णायक मोड साबित हुआ । आपातकाल ने सिर्फ उन्हें प्रधानमंत्री पद से वंचित नहीं किया था बल्कि वो जिस नैतिक और बौद्धिक साख का दावा करती थी और जिसके लिए वह पडती थी वो भी उनसे छीन ली थी । उन्हें प्रबुद्ध वर्ग ही नहीं बल्कि जनता से भी तरफ होना पडा था । चाहिती समाजवादी से फासीवादी ताना शहर में बदल गयी थी । युवा प्रगतिशील नेता की उनकी छवि बदलकर निरंकुश तानाशाह के प्रतीक के रूप में ठंड गई थी । उनके खिलाफ चिकमंगलूर में कर्नाटक के प्रबुद्ध वर्ग और कलाकारों ने भी सक्रिय प्रचार किया था । सत्तारूढ सरकार और उनकी नौकरशाही के बावजूद निर्णायक विजय ने उन्हें उनका लोकप्रिय भजन दार नेता का दर्जा किसी हद तक वापस दिला दिया था । इसके जरिए वे अपनी लोकप्रिय वैद्यता और जन नेत्री की प्रतिष्ठा आंशिक रूप से ही सही पाने में कामयाब रही । हालांकि भारतीय कुलीन प्रबुद्धवर्ग से उनका रिश्ता थोडा टेडा ही बना रहा हूँ । ये बात दीगर है कि विदेश में बौद्धिक वर्गों से उनका संबंध बेहद कर्म जोशी का था । बहरहाल, आम जनता सत्ताधारियों से आपने मोहभंग के कारण उनके पास झंडों में लौटने शुरू हो गई थी । भीतरी खींचतान से त्रस्त होकर जनता पार्टी फिर से इंदिरा पर हमलावर हुई । संसद में उनके फिर से बैठते ही जनता पार्टी के सांसदों ने उनके खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी । संसद की विशेषाधिकार समिति ने के दिसंबर माह में ये फरमान जारी कर दिया कि जब प्रधानमंत्री थी तो उन्होंने मारुती लिमिटेड की औपचारिक जांच में जानबूझकर बाधा डाली थी । समिति ने उन पर उस जांच में लगे अधिकारियों को प्रताडित करने का भी दोष लगा दिया । संसद में ये प्रस्ताव पारित किया गया । उन्होंने विशेषाधिकारों का गंभीर हनन किया था और सदन की अवमानना की थी । इसके साथ ही उन्हें संसद से निष्कासित कर दिया गया और गिरफ्तार करके तिहाड जेल भेज दिया गया । उन्हें इसकी आशंका पहले से ही थी । उन्होंने संसद ने कहा, दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश के पास में मुख्य राजनीतिक विपक्ष के नेता और अकेले व्यक्ति को इतने अधिक झूठे बयानों, चरित्रहनन और सत्तारूढ दल द्वारा राजनीतिक बदले का निशाना नहीं बनाया गया । मैं तो बहुत छोटी शख्सियत हूँ परन्तु मैं कुछ निश्चित मूल्यों पर अटल रही हूँ । यहाँ तक आते आते अपनी पहली गिरफ्तारी के मुकाबले उनकी लोकप्रियता कहीं अधिक बढ चुकी थी । अब की बार जब उन्हें पकडकर ले जाया जा रहा था तो कांग्रेस के हजारों कार्यकर्ता उन के साथ गिरफ्तार हुए । भारत भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन और हडताल हुई और इंडियन एयरलाइंस के हवाई जहाज के अपहरण का प्रयास भी किया गया । अपहर्ता देवेंद्र और बोलाना पांडे लखनऊ से दिल्ली की उडान पर सवार हुए और कथित रूप में हिलाना, पिस्तौलों और क्रिकेट की गेंद के बूते धमकाकर पायलट को विमान वाराणसी ले जाने को मजबूर किया । अब पडता हूँ की मांग थी कि इंदिरा गांधी को तत्काल रिहा किया जाए और संजय के खिलाफ सारे मामले खत्म किये जाए । इंडिया टुडे पत्रिका ने इस घटना को व्यंग्यपूर्ण तरीके से भारत का पहला गांधीवादी अपहरण करार दिया था । दो साल बाद दोनों अब पढता हूँ को कांग्रेस का टिकट दिया गया और वह चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश में विधायक बने । इसी ये भी शुद्ध हुआ कि कांग्रेस वो भी तो वफादारी प्रदर्शित करने वालों के हाथों अपहृत हो गई थी । इंदिरा गांधी ने जेल में बिताए समय को अपने लिए विश्राम उपचार बताया और बंदी रहते हुए उन्होंने थोडा थोडा खाया, खूब सारा पडा, योगासन किए और हफ्ते बर्बाद रिहा होकर बाहर आ गई । इंदिरा गांधी ने यदि लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव में मट्ठा डालने का काम किया तो जनता पार्टी ने अपना सारा ध्यान उन संस्थाओं के पुनर्निर्माण के बजाय इंदिरा गांधी को उनकी गलतियों के मलबे में दफन करने की कोशिश में लगा दिया । जनता पार्टी इंदिरा से विचारधारात्मक रूप में शायद ही भिन्न थी । ये बात उनकी विधायी पहलुओं से साफ सिद्ध होती है । इंदिरा नहीं, आपातकालीन अधिकारों को वैधानिक बनाया था और संविधान में बयालीसवें संशोधन के द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किया था । जनता सरकार ने चौवालीस संशोधन के द्वारा उन आपातकालीन अधिकारों को निरस्त कर के निजी स्वतत्रता को संरक्षित किया । लेकिन गौरतलब यह है कि ऍम संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाया नहीं गया । इसके बजाय संशोधन ने अतिरिक्त समाजवादी छलांग लगाते हुए बुनियादी अधिकारों की सूची में से संपत्ति के अधिकार को ही मिटा दिया ताकि ये संवैधानिक अधिकार मात्र रह जाए । इसका मकसद ये जताना प्रतीत हुआ कि जनता सरकार का समाजवादी इंदिरा के दिखाओ, टी समाजवादी के मुकाबले कहीं अधिक सुधारवादी था । उद्योग मंत्री के रूप में जॉर्ज फर्नांडिस नहीं, जनता सरकार की समाजवादी मुहिम को आगे बढा आईडीएम तथा कोका कोला जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों को देश निकाला दे दिया । इंदिरा और जनता पार्टी के प्रतिद्वंदी समाजवाद के बीच लक्ष्य सिर्फ इंदिरा की शख्सियत को मटियामेट करना था । इसलिए साझी दुश्मन इंदिरा के चुनाव हारते ही भागीदारों के बीच सत्ता की छीना झपटी और बूझ की लडाई से जनता पार्टी में टूटन शुरू हो गई । इंदिरा कैद खाने से अपने मन में स्पष्ट रणनीति बनाकर गहराई तिहाड जेल से उन्होंने चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर उन्हें गुलदस्ता भेजा था । देखा होते ही वे चिकमंगलूर के लिए रवाना हो गई । अपने प्रशंसकों के बीच जनता पार्टी की गुले और तीनों के बाद झेलती पीडित रानी के रूप में सत्तारूढ पक्ष द्वारा विद्वेष और बदले का प्रदर्शन मतदाताओं को कभी पसंद नहीं आता । आपातकाल के दौरान बेकसूरों पर हुए अत्याचार के कारण जैसे सर्व सत्ताधारी इंदिरा को उन का कोपभाजन बनना पडा था उसी तरह अब दिल्ली के प्रकोप के प्रति नाराजगी पैदा हो रही थी । आजमगढ और चिकमगलूर में हुई चुनावी जीत सही इंदिरा के उन्नीस सौ सत्तर की रहा कि गांव भरने लगे थे लेकिन अब रणनीति बनाने का वक्त आ गया था । संजय के खिलाफ मुकदमा कर मुकदमा दर्ज किया जा रहा था । जनता राजकीय बमुश्किल ढाई साल चले । राज के दौरान ही उसके बहुत पैंतीस आपराधिक मामले दर्ज हो चुके थे । कुछ उन पर अट्ठाईस मुकदमे दर्ज किए जा चुके थे । उन्होंने जिद्दू कृष्णमूर्ति से कबूल किया, मेरे सामने दो ही विकल्प हैं या तो मैं उनसे लडूँगा चुप रहकर आसानी से उनका शिकार बन जाऊँ । उनके मन में कहीं गहरे अपने परिवार की सुरक्षा के लिए भी घर बैठ गया था । उनके उपमहाद्वीपीय निरादर नेता चेक मुजीबुर्रहमान का तब क्या ही जा चुका था । जुल्फिकार अली भुट्टो को मौत की सजा सुनाई जा चुकी थी और सुन नवासी में उन्हें फांसी दे दी जाने वाली थी । मतभेदों के बावजूद उन्होंने भुट्टो को मौत की सजा सुनाए जाने का सार्वजनिक विरोध किया और पाकिस्तान के फौजी शासक जनरल जिया उल हक को भुट्टो के प्रति बहन दिखाने की अपील करते हुए खत्म भी लिखा । जबकि जनता सरकार ने इस मामले में दखल से इन्कार कर दिया । उन्हें लगातारी चिंता खाई जा रही थी । उनके दुश्मन उनके साथ कुछ साजिश कर रहे थे । नटवर सिंह कह देंगे अपनी जान का उन्हें लगातार डर लगा रहता था लेकिन खुद से भी ज्यादा वो इस बात से चिंतित रहती थी कि उनके परिवार और बच्चों का क्या होगा । वो कहाँ करती थी कि मुझे खुद को कुछ भी हो जाने की कतई परवाह नहीं है लेकिन यदि मेरे पोते पोतियों को कुछ हुआ तो मैं बर्दाश्त नहीं करते होंगे । सर सौ नवासी के आरंभ में ही ये साफ हो गया था । जनता सरकार अपने भीतर मौजूद सत्ता के अनेक लोगों के कारण मानव ढहने के कगार पर पहुंच गई थी । मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह आपस में ही सिंह उलझाए कर लड रहे थे । देसाई के बेटे कांतिलाल पर भ्रष्टाचार और सन्देहास्पद व्यापारिक सौदेबाजी के आरोप लग रहे थे । मैंने का गांधी ने सूर्या नामक पत्रिका निकालनी शुरू कर दी थी जिसने जनता पार्टी की लडती झगडती खिचडी सरकार को जोर शोर से कलंकित और खोखला करना शुरू कर दिया । मैंने कहा गांधी ने बाबू जगजीवन राम के रिवाॅर्ड बेटे की पिछले दूसरी युवा और अब से संभोगरत तस्वीरें भी छापी जिससे कथित रूप में नशीली दवा खिलाकर निर्वस्त्र हालत में वोटों भेजवाने को मजबूर किया गया था । जाहिर है कि इससे बाबू जी को खांसी जिल्लत झेलनी पडी । इंदिरा और संजय नहीं उस भूल भुलैया से बाहर आने की साजिश रचने शुरू कर दी । बत्तीस साल के हो चुके संजय युवा कांग्रेस को बखूबी संगठित कर लिया था और वो तथा उनके दरबारियों ने जब भी जरूरत पडे इंदिरा के लिए न्यौछावर होने वाले दस्ते बना रखे थे । अजीर संजय गायब हो चुके थे । उसके बजाय वो होटल राजनीतिक पूर्वानुमान लगाने में निपुड नेता बन गए थे । उन पर इंदिरा की निर्भरता पड गई थी । उसके जन्मदिन पर उन्होंने उसे लिखा तो में एकदम छोटी उम्र से ही बहुत कुछ झेलना पडा और तुमने उसे जिस गरिमापूर्ण अंदाज में अंजाम दिया उस से मैं बहुत खुश हूँ । मैं तुम्हारे लिए क्या काम ना करूँ । चर्च यही कि ये डरावने दिन चल रही है, अतीत में हो जाएगा । तुम अपनी बेकसूरी में तेजाब निकला हूँ । तुम्हारी ईमानदार मंशा सुद्ध हो जाए और जनता तुम्हारी कुव्वत और गुंडों को पहचान पाये सलाह देंगे । बर्दाश्त करना सीखो । गुस्से और नफरत का जवाब उसी अंदाज में देने के बजाय कोशिश कर के लोगों का दिल जीत हो । मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ क्योंकि मैं भी तुम्हारी ही तरह प्रतिक्रिया करती थी और मैंने पाया इससे व्यक्ति की परेशानियाँ ही बढती हैं । अपने दुश्मन के लिए भी मुस्कराने और उससे मित्रतापूर्वक बात करने से कुछ नहीं सकता । इससे व्यक्ति खुद बेहतर बनता है । कभी कभी भी कोई भी घटिया हरकत मत करना, उनके लिए वो उनका गलत समझा गया अपूर्वा बुद्धिमान बेटा था । बच्चा जो उनके विशिष्ट पालन पोषण की मिसाल था, सकती हुआ जो भर रहे भारत को उन्हें घेरे हुए पुरातनपंथियों से कहीं अधिक अच्छी तरह समझता था । ऐसा लडका जिसने इतनी सारी उपलब्धि हासिल की थी जबकि उसे उसका श्रेय बहुत कम मिला । संजय की शिक्षित के कारण कांग्रेस में नए सिरे से विद्रोह हो जाने वाला था । कर्नाटका की लोगों पुरुष और इंद्रा के पूर्व वफादार तीस राज अर्ज लगातार मनमानी करने लगे । उन्होंने उन्नीस सौ अठहत्तर के अप्रैल में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन नहीं इंदिरा को अपना निशाना बनाते हुए कहा भी था लोगों को चुप चाप संजय गांधी के पास जाने शुरू किए । मुझे आप लोग समझने की गलती न करें । साल उन्नीस सौ नवासी आने तक देवराज अर्स को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया । अर्ज का मत रहो ऊपरी तौर पर भले ही संजय गांधी के बढते कद के विरुद्ध रहा हो मगर उसे ये भी जाहिर हुआ इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस किस प्रकार राजनीति में नई जातीय समीकरणों को पचा पाने में विफल हो रही थी । अरे नहीं, दलितों और पिछडी जातियों के उत्थान के लिए सुधार शुरू किए थे और कर्नाटक के गरीब तथा दलित समुदायों का गठबंधन बना लिया था । उन्हें समाजसुधारक माना जा रहा था । इन्होंने कर्नाटक में मौन सामाजिक क्रांति कर दी थी । इंदिरा गांधी तो क्योंकि पुराने पड चुके हैं मालिक नौकर अंदाज वाली कांग्रेस की राजनीति भी परिपक्क हुई थी इसलिए वे कभी भी अपना हक मांगने को लामबंद हो रही पिछडी जातियों की आकांक्षाओं को समझ नहीं पाई । बाद के वर्षों में इसी वजह से उत्तर भारत में कांग्रेस अपना आधे पद से गवा बैठेंगे और उन्नीस सौ सत्तर के दशक के आखिर में कर्नाटक के शक्तिशाली छत तरफ से तो बैठे हैं । संजय के विरोधी को बर्दाश्त करने में नाकामी की वजह से देवराज अर्स की पार्टी से विदाई से साफ हो गया योग्यता के बजाय वफादारी को तवज्जो देने की । अपनी प्रवर्ति के कारण ही इंदिरा योग्य और पायदार नेताओं की टीम बनाने में कितनी पूरी तरह नाकाम रही । महा बेटा पेचीदा योजना को अंजाम देने में जुटने वाले थे । उन्होंने अपनी निभा भविष्य पर टिकाई अपनी साजिशों के अंधेरे कमरों में भविष्य की धुंधली छवि के बावजूद अपने इरादों को अंजाम देना शुरू कर दिया । इस लडाई में तो बहुत बडा था । संजय और विद्याचरण शुक्ला को उन्नीस सौ नवासी में सत्ताईस फरवरी को किस्सा कुर्सी का फिल्म के प्रिंट नष्ट करने के आरोप में दो दो साल की सजा हो गई । हालांकि दोनों को जमानत पर रिहा कर दिया गया । अब दुश्मन के ठिकाने पर सीधे हमले की नौबत आ गई थी । फॅस यानी भीतरघात जैसी असरदार किसी व्यक्ति से दुश्मन की सेना में घुसकर हमला करके उसकी कमर तोडने थी । आपने जनधन पर केंद्र से गुलदस्ते की । भेंट मिलने के बाद चौधरी चरण सिंह ने उन्हें अपने नवजात पोते को आशीर्वाद देने के लिए बुलाया । चरण सिंह के घर पहुंचकर उनके मेहमान खाने में मोरारजी भाई के बराबर में सोफे पर बैठे हैं । शिशु को अपनी गोद में लेकर कुछ कारण मिठाई खाई और चाय लतापूर्वक बातचीत में शामिल हुई । पिछली राय को गटककर संजय ने पडने के पीछे राजनारायण की तरफ दोस्ती का हाथ बढाया । जी हाँ, ये वही हैं जिन्होंने उनकी माँ के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दायर किया था और के आम चुनाव में हराया था । उन्होंने ही इंदिरा हटाओ का नारा दिया था । राजनारायण दरअसल चौधरी चरण सिंह के वफादार से पैसा थे । इंदिरा संजय नहीं रुकता । पकड लिया था कि जनता पार्टी को तोडने का सबसे उपयुक्त उपाय चौधरी चरण सिंह के मन में छुपी प्रधानमंत्री बनने की समापन महत्वाकांक्षा को भार कर मोरारजी भाई के खिलाफ उन्हें उकसाया जाना है । चरण सिंह के समर्थकों में जनता पार्टी के महत्वपूर्ण दक्षिणपंथी घटा भारतीय जनसंघ के खिलाफ कुछ सा उबल रहा था । राजनारायण और संजय ने मिलकर मोरारजी को अपदस्थ करके उनकी जगह चरण सिंह के रंज अभिषेक का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया । मौसम साठे नहीं याद किया जनता के सभी घटक आपस में एक दूसरे को ना पसंद करते थे और उन्हें सबसे ज्यादा नफरत इंदिरा से थी । बावजूद इसके छत्ता के इतिहास में हमने होगा वो सर्वोच्च कार्यकारी पद हासिल करने के लिए उनके साथ दोस्ती करने को तैयार थे । चौधरी चरण सिंह को तो प्रधानमंत्री का पद पाने के लिए अपने दुश्मन इंदिरा गांधी का समर्थन लेने से भी गुरेज नहीं था । पद पाने के लिए वो इस कदर आतुर थे जनता सरकार में गहरी अंदरूनी विचारधारात्मक दरारें आनी शुरु हो गई थी । मंजूले में जैसे गठबंधन में शामिल समाजवादियों को जनसंघ से नफरत थी और चाहते थे कि जनता पार्टी में शामिल रहते हुए जनसंघ के साथियों को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहिए । वो चाहते थे कि अटल बिहारी और लालकृष्ण आडवाणी को जनता सरकार से बर्खास्त करके उनसे तीजे बढाते हुए मोरारजी को अलग थलग किया जाए । हम तथा मोरारजी सरकार दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर खैर गई और जनसंघ के लोगों ने जनता पार्टी तोडकर उन्नीस सौ अस्सी के छह अप्रैल को नया दल भारतीय जनता पार्टी पडा । क्या साल उन्नीस सौ नवासी कर्मियों में भारत व्यापक अस्थिरता के कगार पर पहुंच गया? मॉनसून की नाकामी से बारिश कम हुई, कानून व्यवस्था लगातार नीचे कर रही थी और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की टुकडियों ने पहली बार बगावत कर दीजिए । कांग्रेस की ओर से वाईबी चव्हाण नहीं उन्नीस सौ नौ उसी में ग्यारह जुलाई को संसद नहीं मोरारजी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया । चौधरी चरण सिंह के समर्थकों ने मोरारजी को अपना समर्थन खत्म करने की घोषणा कर दी और जनता में शामिल जॉर्ज फर्नांडिस जैसे समाजवादियों ने और पुराने कांग्रेसी हेमवंती नंदन बहुगुणा आदि ने सरकार से इस्तीफा दे दिया । तेरे अस्सी साल के मुरारजी भाई अकेले पड गए और उनके पास उन्नीस सौ नवासी में पंद्रह जुलाई को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई चारा नहीं बचा । जनता सरकार में टूट फूट के दौरान ही ये अफवाह उडी कि बेकार हो चुके उपग्रह ऍफ के चलते हुए टुकडे धरती पर गिरने वाले थे लेकिन उसके बजाय दम तोडती जनता पार्टी के जलते टुकडे चारों और फैल रहे थे । जबरदस्त राजनीतिक उठापटक के बीच चौधरी चरण सिंह ने अट्ठाईस जुलाई को प्रधानमंत्री पद की शपथ नहीं उन्होंने कांग्रेस के इंदिरा समर्थक धडे के भारी समर्थन के बूते अपनी सरकार बनाई । इंदिरा ने पहले ही ये साफ कर दिया था चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का समर्थन उस तभी करेंगे जब की विशेष अदालत कानून को रद्द करेंगे । इससे संजय और इंदिरा पर मुकदमे के लिए विशेष अदालतों के गठन के वास्ते बनाया गया था । चरण सिंह जब अपने वायदे से मुकर गए तो इंदिरा ने समर्थन वापस ले लिया और चौधरी चरण सिंह को चौबीस दिन चली सरकार भी गिर गई । संसद को बाईस अगस्त को भंग कर दिया गया और उन्नीस सौ अस्सी की जनवरी में मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा हो गई । इंदिरा ने चुटकी लेते हुए कहा शेयर की तरह गरजते आई जनता सरकार । आखिरकार चूहे की तरह तवे पाव दफा हो गई । उन्होंने चुनाव प्रचार की रहा पड रही है दूध और सूखे मेवों की पूरा दो तक क्यों छतरी खादी की साडी से भरी अटैची लेकर बहुत दिन लंबे देश व्यापी प्रचार अभियान पर निकल पडेंगे । उस दौरान उन्होंने रोजाना बीस सभाओं में भाषण दिया जिसमें संजय और शूट कांग्रेस ने उन्हें संगठानात्मक सहारा दिया और उन्होंने लोगों से ऐसी सरकार बनाने का वायदा किया जो काम करेगी । जनता ने फिर से ऊपर भरोसा क्या जनता सरकार के तीन साल में ही सिमटे अराजत शासन खेलना तो बगावतों पडतालों और बंद से ऊबी जनता ऐसे दृढसंकल्प नेता के लिए अपने लगी जिसने देश में व्यवस्था कायम करने की प्रतिष्ठा अर्जित भी हुई थी । चुनाव से चार ही महीने पहले आवश्यक वस्तुओं के दाम आजादी के बाद से किसी भी तुलनात्मक अवधि के मुकाबले सबसे अधिक महंगे स्तर पर चाहते थे । आलू प्याज के दाम आसमान छूने लगे । ईरान में क्रांति हो जाने की वजह से बच्चे तेल के दाम भी बेतहाशा बढ गए । साल उन्नीस सौ नवासी में तेल के दामों में तेजी का दूसरा बडा झटका लगा । साल सत्तर में इंदिरा की कमजोरी साबित हुए गुण ही अब उनकी ताकत बन गए । उन्हें अब तानाशाह बताया गया । अब उन्हें सख्त और दक्ष प्रशासक के रूप में प्रचारित किया गया । देश की सामूहिक विस्मृति ने आपातकाल की ज्यादतियों को भी मिश्रा दिया । भारतीय हालांकि आपातकाल को कभी भला नहीं पाए, मगर उन्होंने इंदिरा को माफ कर दिया । था । उन्हें सिर्फ जनता सरकार के हाथों परेशान ही नहीं होना पडा बल्कि उन्नीस सौ सत्तर की चुनावी हार नहीं उनके सारे पाप हो दिए थे । शारदा प्रसाद ने जैसा लिखा है कि जनता सरकार के हाथों उन्हें मिले कष्टों का हिसाब उनके द्वारा अपने विरोधियों को दिए गए कष्ट से बराबर हो गया । दोनों ने एक दूसरे को खत्म कर दिया । पत्रकार प्रभाष जोशी के अनुसार उन्नीस सौ अस्सी के चुनाव के साथ ही विचारधारा का हो गया । उससे पहले के चुनाव जहाँ समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, गुटनिरपेक्षता आदि के मुद्दे पर लडे गए थे वहीं ये चुनाव सिर्फ इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व पर लडा गया । अनुशासन कर सकती थी । जनता पार्टी नहीं कर पाई बस यही उनके प्रचार का लब्बोलुआब था । साल उन्नीस सौ अस्सी जनवरी में अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया नहीं । पहले पन्ने पर बैनर हैडलाइन में घोषणा की ऍम यानी चारों तरफ इंद्रा का बोल बाला है । उन्नीस स्वास्थ्य के आम चुनाव में कांग्रेस आई ने लोकसभा की तीन सौ तिरेपन सीटें जीती और खुद इंदिरा गांधी की दो सीटों से निर्णायक जीत हुई । सीटें थी उत्तर प्रदेश में रायबरेली और आंध्र प्रदेश में मेडल । जनता पार्टी बमुश्किल सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई । उन्हें उसी में चौदह जनवरी को चौथी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई । उनके लिए यतिथि ज्योतिषियों नहीं तय की थी । बासठ साल की थी उन्होंने भगवान के नाम पर शपथ नहीं इस बार विशाल उन्नीस सौ सत्तर का मुकाबले कहीं । ज्यादा धीर गंभीर थी जब उनके भीतर आनंदायक उत्साह भरा हुआ था । उनके भीतर का ये वो जब डर खत्म हो चुका था । नेहरू के निरीश्वरवादी से और एक कदम पीछे हटते हुए । इस बार बे जब अपने सरकारी निवास एक सफदरजंग रोड में रहने के लिए गई तो उससे पहले उन्होंने वहाँ शुद्धि पूजा कराई । पंडितों ने वहाँ आठ दिन तक यह के पूजन मंत्र जादू किया । किसी पत्रकार ने उनसे पूछा कि भारत का फिर से नेतृत्व करते हुए तो कैसा महसूस कर रही हैं? इंदिरा गांधी ने प्रत्युत्तर में सपा से कहा मैं हमेशा ही भारत की नेता रही हूँ फ्री श्रीमती गांधी । आप अपनी सफाई से पहले के मुकाबले कहीं अधिक आरक्षित और लोगों के प्रति अत्यधिक चौकन्ने तथा शंकालु होकर बाहर आई थी । आप ये नहीं भूल पा रही थी कि आपके नजदीकी लोगों ने भी किसपे रहनी चाहिए । पूरे दिनों में आपका साथ छोड दिया । किस प्रकार दोस्तों ने वो फेर लिया । सामाजिक मिलन के मौकों से किस प्रकार आपको वंचित कर दिया गया? उन चौबीस महीनों के अकेले बन के दौरान लोगों के प्रति क्या आपके सबसे बुरे अनुमान सही शब्द हुए थे? आपको अपने बुरे दिनों में अपने पिता का संकट ही दिखाई दे रहा था जब उन्नीस सौ बासठ के युद्ध के बाद उन के अति निकट सहयोगी भी उनके विरोध में खडे हो गए थे और उनके समर्थन से इंकार कर बैठे थे । जिंदगी के इस कडवे सबका ने तब के बाद आपके व्यवहार को बहुत संकुचित कर दिया और सरकार एवं राजनीति के मामले में आपने सिर्फ संजय को ही अपना राजदार बना लिया था तथा अक्सर धर और उन जैसे अन्य दिमागों से किनारा करके अन्य किसी पर भी भरोसा करना बंद कर दिया । अपने परिवार के अलावा लगभग किसी भी अन्य व्यक्ति पर भरोसा नहीं कर पाने की आपकी इस प्रवृत्ति कि आपकी भविष्य की राजनीति में प्रमुख भूमिका रहेगी । नियंत्रन और केंद्रीयकरण व्यवस्था के प्रति आग्रह राज्यों, सरकार तथा पार्टी के स्तर पर भी टैक्स इंद्रा यानि सिर्फ इंदिरा कोई हावी रखना आपके शासन के मूलमंत्र के रूप में बरकरार रहेंगे । क्या ये प्रवर्ति धारणा से भी उत्पन्न हुई थी कि भारत की जनता भले ही कभी कबार आठ शक दूर हो जाए मगर वो बहुत दूर कभी नहीं जा पाएगी । आप उन्नीस सौ अस्सी में सत्ता में अपनी अपरिहार्यता की धारणा, उन्हें प्रभावी होने के विश्वास के साथ शॉपिंग आपको फिर या भरोसा हो गया कि जनता लौटकर आपके ही पास आएगी कि उनके विश्वास राष्ट्रो सिर्फ आप में है और अन्य हर एक व्यक्ति न सिर्फ गलत था बल्कि अवैध भी था । साल उन्नीस सौ अस्सी आते आते आप कहीं अधिक धार्मिक रस्मोरिवाज निभाने में भरोसा करने वाली हो चुकी थी । धार्मिक रुझान सिर्फ निजी आस्था ही नहीं है बल्कि विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के अभाव में वोट जुटाने का सहारा भी बन गए थे । सत्ता से बाहर रहने के दौरान आप अनेक पवित्र व्यक्त तो और आस्था स्थलों के दर्शन करने भी गई थी । आपने सिर्फ आचार्य विनोबाभावे की सलाह ही नहीं ली थी बल्कि आप कामकोटि पीठ के शंकराचार्य, कनखल में माँ आनंद मई और रमन महर्षि के आश्रम के दर्शन करने दी गई । क्या धार्मिक आस्था के शरणागत पिछली हुई थी जिसमें आपकी माँ की गहन आस्था थी? जब की आपके पिता, उसके उतने ही धुरविरोधी थे कि आपके और विरानी पन से आपकी मुलाकात के बीच सफर के रूप में सिर्फ यही धार्मिक आस्था ही थी । आप के राजनीतिक समीकरणों में भी धार्मिकता की नई प्रवर्ति घर कर गई थी । छत्ता में तो आपकी वापसी हो गई थी मगर अब तक आपने नेहरु की धर्मनिरपेक्षता को धीरे धीरे छोडना शुरू कर दिया था जो आपके पिता की विरासत का केंद्रबिंदु था । ऐसा राजनीतिक समझौता था जो आपके जीवन के आखिरी दिनों पर भारी पडने वाला था ।

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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