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7 minsबददिमाग तानाशाह आपातकालकी और पतन उन्नीस सौ बहत्तर से उन्नीस सौ सत्तर इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश युद्ध जीतने के चार साल के भीतर ही देश पर आंतरिक आपातकाल लगा लिया । अगले इस महीने के लिए भारत में लोकतंत्र समाप्त हो गया । नागरिक अधिकार निलंबित किए गए । हजारों लोगों को बंदी बनाया गया । झोंपडपट्टी हटाने और नसबंदी कार्यक्रम पर जोर दिया गया । मीडिया पर भारी पाबंदियां लगाई गई लेकिन सबकुछ चकत् करते हुए में उन्होंने हम चुनाव कराने की घोषणा कर दी है । इससे आपातकाल खत्म हो गया । इंदिरा और कांग्रेस का के आम चुनाव में सूपडा साफ हो गया और चुनाव जीतकर जनता पार्टी सत्तारूढ हुई जिससे इंदिरा गांधी के ग्यारह साल लंबे प्रधानमंत्रित्व पर भी विराम लग दिया । प्री श्रीमती गांधी हर एक नागरिक आपसे एक सवाल तो पूछना चाहेगा के आखिर आपातकाल आपने क्यों लगाया? आपने उन्हें नागरिकों से लोकतांत्रिक आजादियों क्यों छीन ली जिन्होंने आपके पक्ष में उम्मीद से सत्तर में इतना जबरदस्त मत दिया था । वो भी उन नागरिकों से जिनके अधिकारियों के लिए आप के दादा पिता महात्मा गांधी ने अपनी पूरी जिंदगी खपाने । उन्होंने अंग्रेजों से जो छीना था उसे आपने हडप लिया । भारतीय नागरिक इक्कीस महीने के लिए लगभग वैसे ही गुलाम बन गए, जैसे वह लम्बे साम्राज्यवादी बूटों के नीचे पिसते रहे थे । इलाहाबाद हाईकोर्ट के कदम फैसले ने उन्नीस सौ इकहत्तर के आम चुनाव में आपके द्वारा रायबरेली सीट से जीते गए चुनाव को रद्द कर दिया । अदालती आदेश के बाद आप प्रधानमंत्री पद पर नहीं रह सकती थी । नेहरू ऐसे में क्या करते हैं? वे तो फौरन इस्तीफा दे देते । सिंगर जान के प्रति आदर्शवादी जैसी अवहेलना जताते और फिर नैतिक रूप में सही सिद्ध हो कर दोबारा सत्ता पा जाते । मुख्यमंत्रियों को लिखे किसी पत्र में नेहरू ने लिखा था, हमें ये याद रखना होगा कि हमारी सरकारें आज जो भी कुछ कर रही हैं, वहीं भविष्य के प्रशासनों के लिए नजीर बनेंगे । वो अधिकार जो आज शायद सही कारणों के लिए प्रयुक्त किए जा रहे हैं, वही शायद बाद में सरासर गैर मुनासिब और शायद एकदम आपत्तिजनक कारणों के लिए इस्तेमाल किए जाएंगे । तो दांतों के मामले में कमजोरी हमेशा ही खतरनाक सब होती है । आप सैद्धांतिक स्तर पर कमजोर हो गई । आपने आपातकाल लगाया, आपने अपने शासन के प्रति तात्कालिक चुनौती को भोथरा किया । मगर क्या आपको ऐसे उपायों के दूरगामी परिणाम के बारे में सोचने की कभी फुर्सत मिली? आपातकाल का कोई भी हिस्सा आपके छोटे बेटे संजय के साथ आपके संबंधों के उल्लेख के बिना पूरा नहीं हो सकता है । आप आंख मूंदकर प्यार करती थी । संजय को आप सबसे अच्छी तरह जानती थी, संजय नहीं । बचपन में हमेशा आपको चिंता में डाला आपको लगता था कि आप के बडे बेटे राजीव के मुकाबले उसका अधिक ध्यान रखना पडेगा । इसके बावजूद आपने आपने लगभग समूची सरकार जाहिर है कि देश की ही बात दौर उसे क्यों होती थी? आपने जिन कारणों से आपातकाल लगाया, उनमें एकमात्र संजय की इच्छा की ही भूमिका नहीं थी । उसके बजाय आपने ऐसा इसलिए किया क्योंकि आप अपने राजनीतिक जीवन की उस खास धारणा से अभिभूत थी । आपने अपरिहार्य होने के प्रति आश्वस्ति का भाव आपने आपने ते यही सोचा है कि आप अच्छे और सही पन की मिसाल थी । आपने जो भी कुछ किया, वो आपके जन्म और वंश के कारण मालूम था । सिर्फ आप ही भारत प्रशासन कर सकती थी । देश को अन्य लोगों के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता था, क्योंकि आपके दुश्मन तो भारत के दुश्मन थे । नाम नेहरूवादी, चश्मे से बाहर भारत का मूल्यांकन अकल्पनीय स्थिति थी और आपकी मालिकाना प्रवृत्तियां हावी थी । आपने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद ये कहा भी था के आस पास ऐसा कोई भी नजर नहीं आता जो इसके हरे खतरे से निपट सके । बंद पर यानी प्रधानमंत्री के रूप में बने रहना मेरा कर्तव्य था । हालांकि मैं ऐसा चाहती नहीं हूँ । आपातकाल की घोषणा की पूर्व संध्या पर आपने अपने पुराने मित्र और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे से कहा था, मैं ऐसा महसूस करती हूँ कि भारत किसी बच्चे की तरह है और जैसे किसी बच्चे को कोई कभी कभी उठाकर झुलाता है, वैसे ही मुझे लगता है कि हमें भारत को छोडना पडेगा । जब कोई पूरा देश आपका बच्चा हो तो उसका शासकीय सिद्धांत यही रह जाता है कि माँ ही सबसे बेहतर जानती है । इंदिरा गांधी में सत्ता के शिखर पर थी । नेता शब्द को मूर्तिमान करते हैं । ऐसा इस हद तक था । उनके कट्टर विचारधारात्मक विरोधी आरएसएस और भाजपा आज उन्हें ही मजबूत नेतृत्व का आदर्श मानते हैं, भले ही तत्कालीन जनसंघ ने उनके पतन के लिए कितना ही जोर लगाया हो । भाजपा, आरएसएस तथा संघ परिवार भले ही गांधी खानदान और जवाहरलाल नेहरू को पानी पी पीकर को से मगर वे इंदिरा गांधी को शायद ही कभी निशाना बनाते हैं । राजनीति में गुरुघंटाल थी, एकदम स्वाभाविक रूप में कृष्णा हठीसिंह याद करती हैं जब वह तीन या चार साल की थी । अभी से इंदिरा ने बस राजनीति के बारे में ही बातचीत होने की उनकी फुफेरी बहन नयनतारा सहगल याद करती हैं, जिनके लिए राजनीति महज चुनाव हुआ । पेशा है उन्हें वो बात है ही नहीं । वो इंदिरा के भीतर थी । अपने अधिकार क्षेत्र की भावना । उनमें स्वाभाविक रूप में नींद में चलने वाले की तरह अपने आस पास की भलीभांति जानकारी थी । अपनी पार्टी ने सर्वोच्च उनकी निजी लोकप्रियता दरअसल समूची कांग्रेस पर भरी थी । तेरह साडी में रजिया सुल्तान के राज के बाद भारत ने उन्हें पहली सम्राज्ञी कहा जाता था । उनके आलोचक उन्हें भारत की मान जनरल भी कहते थे । उनके चुनाव क्षेत्र रायबरेली में जैसे ही सडक पडती है, उसके मुहाने पर झलकारीबाई की प्रतिमा लगी है । अनेक ऐतिहासिक सो के अनुसार गलत युद्ध था और वीरांगना झलकारी वाई ही । बहुत भेज बदलकर अठारह सौ सत्तावन के गदर की नायिका मशहू झांसी की रानी के रूप में लडाई करती थी । ये प्रतिमा घुड सवार महिला योद्दा की है जिसकी तलवार हाथ में सामने तली हुई है और चेहरे पर जीवटता का दृढसंकल्प दिखता है । अकेली सारी विपत्तियों से लडती महिला योद्धा जो आपने तथा अपने देश के अस्तित्व के लिए युद्धरत थी । यही इंदिरा के व्यक्तित्व का परिकल्प नायकत्व था । लोगों के मन में भी भारत कि योद्धा महारानियों दुर्गा से लेकर रजिया सुल्तान तक और जनमानस में बसी विरांगनाओं का मिला जुला प्रतिमान थी और आज भी है ऐसी शख्सियत जिसने कल्पना और वास्तविकता के अंतर को मिटा दिया । झलकारीबाई का किवदंती पूर्ण युद्धघोष था उन्हें देख देखो हमको राजनाथ दी हो । छह चाहे कुछ भी हो जाए मगर मैं अपने राज्य का अहित नहीं होने देंगे । उसके बावजूद प्रतिशोधपूर्ण नायिका अपने राजनेता के कपडों को छटक कर मानवीय दृष्टा नेता का चोला नहीं पहन पायेंगे । झूठ फट लडाइयों और निजी झडपों की जीत कि भूल भुलैया में फंस कर बडे युद्ध में पराजित हो गई थी । वो शायद ये समझ नहीं पाई कि इतने विशाल कब की नेता होने के नाते विपक्षी को तत्काल नेस्तनाबूत कर देना बेहद छोटा सा लक्ष्य था । उनके पिता यदि आदर्शवादी थे तो वे यथार्थ के धरातल पर छोड तोडने माहिर थी । सहानुभूतिपूर्ण तर्क ये होगा कि उनका विरोध इतना ज्यादा था कि उन्हें संस्थाओं को सिर्फ राज करने के लिए ही नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की खातिर भी कमजोर करना पडा । इंदिरा के निजी सचिव एनके शेषन नहीं याद किया । प्रधानमंत्री बेहद बददिमाग हो गई थी । खुद को दुर्गा पुकारा जाना उन्हें बहुत पसंद था । बांग्लादेश विजय निर्णायक मोड थी । संजय एकमात्र ऐसे शख्स है जिनकी शायद कोई भी बात को नहीं डाल सकती थी और किसी भी व्यक्ति को बर्दाश्त करना उन्हें गवारा नहीं था । बंगलादेश के बाद तो मानो वो मतवाली हो गई । संजय ने पूरा अधिकार जमा लिया । ऑडिशन जान के जीवन में ना होता तो ये महान प्रधानमंत्री सिद्ध हो सकती थी । आम चुनाव में में हुई भारी जी और बांग्लादेश युद्ध के बाद जो जबरदस्त सकता उनके हाथ लगी, उस से उन का माथा खराब हो गया । बांग्लादेश की उपलब्धि की अपार सफलता ने उन्हें डरा दिया और दुर्गा से तुलना के कारण उन्हें अपनी कमियों के प्रति असुरक्षा खेलने लगी । इसी असुरक्षा ने उन्हें इतनी विराट सफलता के बावजूद आश्चर्यजनक तेजी से शब्द और मानसिक उन मान के गर्त में धकेल दिया । साल उन्नीस सौ इकहत्तर में शिखर छूने के बाद वो तो में पतन की आखिरी सीढी की और लगातार लुढकती गई । मैं चार साल की छोटी सी अवधि में चापलूसों से खेल जाने के कारण उन्होंने योग्य स्वतंत्रचेता सलाहकारों के लिए अपना करवा जा बंद कर दिया और छुट्टियों की बात सुनने में मजबूर हो गए । उनके भीतर अजय होने की खतरनाक गलत फैमी घर करने लगी थी । लोकतंत्र में करिश्में की भूमिका पर चर्चा करते हुए स्टेटमैन अखबार ने उन्नीस सौ इकहत्तर के चुनाव के संदर्भ में लिखा, क्या निष्ठुर संकल्प शीलता के साथ करिश्में का दोहन लोकतंत्र प्रणाली नहीं चल सकता है? इस बारे में विचार होना अभी बाकी है । क्या कृष्णा की अभी लोकतंत्र के लिए घातक है? मौनी मल्होत्रा याद करते हैं, कुछ लोग ऐसे हैं जो विफलता को नहीं बचा पाते, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सफलता को बर्दाश्त नहीं कर पाते । वे दूसरी श्रेणी में आती थी । जनता का सीन क्या जबरदस्त जीत दर्ज की? सफलता समस्या बन गई और उसका नतीजा इस अक्खडपन के रूप में निकला । उनकी सफलता चारों और छा गई और किसी हद तक उनकी गाडी पटरी से उतर गई । उनके चरित्र के कलुषित पक्ष अभी होने लगे और फिर रही सही कसर उनके बेटे ने पूरी करके उन की गाडी पटरी से उतार दी । नेहरू के ठीक उलट प्रवृतियां साफ थी । हिंदी में सफलता को नहीं बचा पाई तो नेहरू भी विफलता बर्दाश्त नहीं कर पाए । तीन से युद्ध उनके काल में भ्रष्टाचार के कांड और कश्मीर पर गतिरोध नहीं, नेहरू की आत्मा को जख्मी कर दिया । ऐसा नेता जिनकी नैतिकता की एक सूची की प्रमाणिकता उनके कट्टर आलोचकों को भी माननी पडती थी । बारा शाह के रूप में इंदिरा गांधी के विकास के हिस्से में हर साल उनके छोटे बेटे संजय गांधी उडान नहीं है । किस्सा ऐसा है जो जताता है कि किसी नेता ने कैसे पार्टी और आंदोलन चाहिए । मूवी छोडकर अपने परिवार और वंश को तवज्जो दी । मेहरू जो कांग्रेस के अनुशासित सिपाही थे, अपनी पार्टी को हमेशा अपने से बडा मानते रहे और उससे भी महान स्वतंत्रता आन्दोलन के बहुत के रूप में पार्टी ऐसा प्रतिष्ठान थी जिसके प्रति वो अपने को गहराई से एक रिस्तेदार मानते थे । लेकिन इंदिरा गांधी ने राजनीति में अपनी पैठ और सर्वोच्चता जमाने के लिए नई कांग्रेस पैदा कर लेंगे । पूरी तरह उन पर निर्भर कांग्रेस ऐसा दल इसमें योग्यता का पैमाना राजनीतिक क्षमता नहीं बल्कि निजी वफादारी, अपने से कम योग्य लोगों की संगत उन्हें भागने लगे और अपनों से अधिक योग्य लोगों से घबराने लगी । खासकर जडों से खुद उगकर उभरने वाले स्वायत्त प्रवृत्ति के लोगों से राजनीतिक सूझबूझ की झलक मिलते हैं । खतरे के प्रति सतर्क होने लगे । नेहरू को अन्य नेताओं की उपलब्धियों और असहमती के द्वारा भी कभी खतरा नहीं लगा । उन के पहले मंत्रिमंडल में विचारधाराओं को जगह हासिल थी । इसमें श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्हें बाद में जनसंघ स्थापित किया और बी । आर । अंबेडकर शामिल थे । सच तो यह है कि उनके चारों और जो विराट व्यक्तित्व थे, उनसे उनका अपना कल बहुत ऊंचा हुआ । मुख्यमंत्रियों को लिखे उनके पत्रों से ही पता लगता है कि वे अपने सहकर्मियों के साथ संबंध गहरे करने को कितने अधिक उत्सुक है । नेहरू शायद ऐसा इसलिए कर पाएंगे, पार्टी पर उन का वर्चस्व साफ साफ होता था । उनके विपरीत इंद्रा अपने ही भारी भरकम नेताओं से घमासान के बाद शीर्ष पर पहुंच पाई थी । इसीलिए प्रतिद्वंदता को नापसंद कर दी थी भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की राय ने । सत्ता के प्रश्न पर उनका नजरिया साफ था । उन्हें कोई भी प्रतिद्वंदी बर्दाश्त नहीं कर रहा था । राजनीति के बढते वैट, ठीक रन की और पार्टी को दरकिनार करने के कारण पैदा हुए खालीपन में ये स्वाभाविक ही था कि वे अपने खून का मूड जो रहेंगी । इंदिरा ने लोकतांत्रिक बहुपक्षीय कांग्रेस को तोडकर नष्ट क्या बंगलादेश शुद्ध के बाद द्विपक्षीय राज शाली वाली शैली को अपनाने लगी । भारत के संविधान में काफी सोच समझकर सत्ता को संतुलित किया था । जनता की संप्रभुता को विभिन्न समान दर्जे की संस्थाओं में नहीं किया था । यहाँ न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका एवं स्वतंत्र प्रेस आपस में मिलकर और एक दूसरे पर अंकुश लगाकर लोकतंत्र को बरकरार रखती थी । इंदिरा ने उस संतुलन को बेदर्दी से छिन्न भिन्न कर दिया । ये कोई सरे आम सैन्य तख्तापलट नहीं था । इसके बजाय उन्होंने भीतर से ही संतुलन पलट दिया । पार्टी और सरकार के जब मन से बनाए गए ढांचे पर उन्होंने अंधाधुंध हमले किए, हालांकि नेहरू ने उन्हें बहुत ध्यान से सींचा था । कभी बेहद शक्तिशाली कांग्रेस ने जब इंदिरा केसर असर नौसीखिए बेटे के आधिपत्य को बिना किए शर्मा के धारण कर लिया, उस से साफ हो गया पार्टी किस कदर पर निश्चित हो चुकी थी । आइए अब संजय गांधी का रुख करेंगे ऐसा पुत्र । इसके बारे में ये प्रबल धारणा रही थी । वो अपनी माँ का अभिशाप था । इंदिरा गांधी का छोटा बेटा इंग्लैंड से उन्नीस सौ सडसठ में भारत लौटा खूबसूरत बल्कि नकचढा महज इक्कीस वर्ष उम्र का । उसका अपने नाना की तरह इतिहास अथवा दर्शन और माँ की तरह कला के प्रति कोई रुझान नहीं था । उसके बजाय अपने पिता की तरह उस एक्टर, हवाई जहाज और सभी यांत्रिक उपकरणों में गहरी दिलचस्पी थी । शायद फिरोजगांधी के साथ मैं हूँ यंत्र खेल खेलते हुए बडे होने का नतीजा था दूर स्कूल में पढाई अधूरी छोडकर दिल्ली के सेंट कोलंबस में उन्होंने अपनी स्कूली पढाई पूरी की । कॉलेज की पढाई में दिलचस्पी होने के कारण उसे इंग्लैंड में क्यू स्थित फॅस के कारखाने में पांच साल की अप्रेंटसशिप पर भेज दिया गया था । वहाँ से भी वो तीन साल बाद भाग खडा हुआ । उसकी छवि पॅाल आवारा की बनने लगी और उसे इंग्लैंड में बिना लाइसेंस हासिल किए कार चलाने और गतिसीमा के उल्लंघन के जुर्म में गिरफ्तार भी होना पडा । जयकर याद करती हैं, संजय बेहुदा आवारा था, बहुत उलझता हुआ और कार से खिलवाड करता हुआ और अवांछित दोस्तों की संगत का शिकार पहले नेहरू नरेंद्रा के यहाँ यानी प्रधानमंत्रियों के ही घर में पैदा हुए और पले संजय नहीं । सत्ता भी सराबोर और अधिकृत माहौल को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया था । उतावली में कुछ भी कर बैठने की जगह को हर कीमत पर बनवा लेने की मानसिकता के साथ । इसके बावजूद उधर उनका पकता और प्रगतिशील युवक था । वो अपना रास्ता तो घूमना चाहता था । महानता के बोझ तले पिसकर जीते हुए और उसकी कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती से वो ऊब चुका था और अपने माँ की तरह हमेशा इतिहास की बंदिश का शिकार था । संजय की जब थी कि खानदान की यशोगाथा में अपने कारनामे दर्ज कराने नहीं उसकी माँ उसकी मदद कार बनेंगे को इंग्लैंड से भारत लौट कराया । पूरी तरह देशी कार्यकरी और कल पुर्जों से बनी का मारुती बनाने के सपने के साथ मारुति दरअसल अवन देवता के पुत्र का नाम है । शायद संजय उनको उनके सामान ही आंकडा होगा । धाक वाले माँ बाप की संतान इन्हें पीछे छोड देने की उनमें संभावना थी । रामायण के प्रमुख चरित्र हनुमान हो कभी कभी मारुती कहा जाता है जिनमें हवा की गति से उडने की क्षमता थी और संजय भी हवाई जहाज के भीतर आकाश छोडने का शौकीन था । संजय भारती खांदी इसके बावजूद संजय जल्द ही ऐसी शख्सियत बन जाने वाले थे जिनकी परछाई भारत पर ही गहरा गई । इश्वरीय के बजाय पैशाचिक उनका नाम ही छल कपट का पर्याय और सरकारी सत्ता के निष्ठुर दुरुपयोग का तो तक बनने वाला था । चापलूस सरकार द्वारा सार्वजनिक संसाधनों का निजी अय्याशी और लाभ के लिए दुरुपयोग पर आंखें मूंद लेने के लिए मजबूर कर देने वाला संजय अपने माँ और अपनी युवा पत्नी का चाहता था । मेनका याद करती हैं संजय और राजीव के बीच जमीन आसमान का अंतर था । राजीव और सोनिया का मिजाज सर असर पश्चिमी था । उनके दोस्त भी पश्चिमी तौर तरीको वाले थे । खूब घूमते पडते थे और यूरोप तथा अमेरिका के फैशन से हम कदम रहते थे । वे अपनी छुट्टियाँ हमेशा विदेश में ही बिताते थे । उन की कमाई हमेशा उपलब्धियां होती थी । संजय एकदम हिंदुस्तानी मिजाज के थे और हिंदी बोलना अधिक खाता था । कुर्ता पायजामा पहनते थे । हम लोग बाकी लोगों से घुलते मिलते नहीं थे । हमारी रसूखदार मित्रमंडली भी नहीं थी और हमारे पास अपनी संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं था । एक बार जब मैं साडी खरीद लाई तो उन्होंने मुझे पूछा तुम्हें क्या वाकई इसकी जरूरत है? हम अपनी अन्य सभी साडियो को प्रयोग कर चुकी हो । मुझे वो साडी लौटा कर रहा । बडा वजाहत हबीबुल्लाह, राजीव और संजय के साथ दून स्कूल थे । अभी बुला याद करते हैं । माँ दरअसल राजीव के बजाय संजय से अधिक आत्मीय प्रतीत होती थी । संजय जिंदादिल और मजा किया था । हमेशा सब की छुट्टी लेता था । राजीव कहीं अधिक गंभीर था । संजय की भारत वापसी के साल भर के भीतर ही उन्नीस सौ के नवंबर माह में लोकसभा को ये बताया गया की अन्य कार उत्पादकों के साथ साथ संजय गांधी ने भी देश के लिए स्वदेश में बनी सस्ती कर बनाने के लिए सरकार से लाइसेंस मना है । इसकी कीमत छह हजार रुपये होगी । भारत की पहली स्वनिर्मित कार्यसिद्ध होने वाली थी लो जी था हम लोग तो इस साल बाद उत्पादन करने के लिए इस लाइसेंस पर छत ट्राॅला के दावों को दरकिनार करके क्यों थे । उन दिनों व्यापार उद्योग जमाने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना पडता था । बाईस वर्षीय नौसिखिया संजय हूँ विशुद्ध भारतीय सामग्री से सालाना पचास हजार कार उत्पादित करने के लिए लाइसेंस केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में दे दिया गया । किसकी सदारत संजय की मां कर रही थी? खबरों के मुताबिक तत्कालीन औद्योगिक विकास मंत्री फखरुद्दीन अली अहमद बाद में इंदिरा के वफादार राष्ट्रपति हुए जिन्होंने आपातकाल के अध्यादेश पर दस्तखत किए थे और उनके मातहत मंत्री दोनों नहीं अपनी आखा की मंशा को सिर माथे रखकर संजय को मंजूरी की चिट्ठी जारी कर दी । विपक्ष ने भाई भतीजावाद और मर्यादा भंग करने का शोर मचाया । समाजवादी संसद जॉर्ज फर्नांडीज ने गुस्से में कहा इंदिरा बेहाई से भाई भतीजावाद अपना रही है अटल बिहारी वाजपेयी कर्जे ये तो उन्मुक्त भ्रष्टाचार है । व्यापार संबंधी योग्यता अथवा अनुभव से रहीन होने के बावजूद उन्हें अपनी माँ की सरकार की कृपा से आगे बेहसारा फायदा होने वाला था । वे अचानक विशाल कार उत्पादन औद्योगिक परिसर के मुखिया हो गए जिसमें एक करोड रुपए का निवेश होना था । जबकि साल उन्नीस सौ सत्तर सत्तर के लिए उनकी घोषित आमदनी महज सात सौ अडतालीस रुपये थी । संजय की कार परियोजना को इंदिरा द्वारा आंख मूंदकर की जा रही मदद, उसके बारे में आलोचना एक भी अल्फाज नहीं सुनने की मानसिकता लेवॅल रचित ऍम क्वीन ऑफ के शब्दों की जांच चलाते हैं । वंडरलैंड का शासन में अकेले चलाती हूँ । हमारी दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी । वक्त बीतने के बाद हम देखते हैं कि भारत में मारुति क्रांति के सहयोग खून जनक तो संजय थे भले ही मरणोपरांत लेकिन तब तो उसका मारुती का सपना इंदिरा के गले की फांस बन गया था । उन्हें देख कर उनके विरोधी यू भी उन पर भडक गए थे । और अब मारूति परियोजना नहीं तो मानो उन्हें इंदिरा के खिलाफ सुनहरा अवसर और स्थाई मास्टर दे दिया जिसका वे आसानी से और सही मायने में प्रयोग करने लगे । मारुति सुजुकी का आज देश के इतिहास का हिस्सा है । सर उन्नीस सौ अस्सी के दशक के साइकिल और स्कूटर चलाने वाले लोगों की पीढी के लिए मारुति आठ सौ सडक पर सुरक्षित गाडी चलाने से लेकर सामाजिक उन्नति का द्योतक है । उसका साथ ही मारुति ने तब के मध्यवर्ग को कार मालिक होने और समाजवादी भारत में सामाजिक उन्नति का प्रतीक होने का गौरव भी प्रदान किया । ऍम उन्नीस सौ पचास के दशक के भारत का आई थी मारुति उन्नीस सौ अस्सी के दशक के आखिरी कार और उन्नीस सौ नब्बे के दशक के आरंभिक कालका रत की चार पहिए की ऐसी सुरक्षित सवारी । इससे लाखों परिवारों को पहली बार कार मालिक बनने का सुखद ऍम संजय ने देशी फॅस बनाने का सपना देखा था और उसकी माता उनके सपने को साकार करने में जी जान से जुटी थी । मारुति परियोजना संजय के लिए ऊंची राजनीति और बडे उद्योगों की दुनिया में सीधे दखल का सुनहरा मौका लाई है और उसकी गतिविधियां जैसे जैसे अधिक विवादास्पद होती गई वो राजनीतिक सत्ता अपने की और अग्रसर होता गया । मारुति मोटर्स लिमिटेड कंपनी का गठन उन्नीस सौ इकहत्तर में किया गया और संजय उसके प्रबंध निदेशक बने । उन्होंने पुरानी दिल्ली के गुलाबी बाग इलाके में स्तर अपनी वक्त चौक में सबसे पहले कार के ढांचे यानी चेस इसका निर्माण किया था जिसमें जामा मस्जिद के आसपास की दुकानों से कल पुर्जे लाकर फिट किए गए और ऍम मोटर साइकिल के इंजन से उसमें लगाया गया । इस प्रक्रिया से ग्रामीण भारत में आज तक अनपढ मिस्त्री पुराने वाहनों के कलपुर्जे लगाकर कच्ची सडकों पर सामान और सवारी ढोने के लिए जुगन नामक वाहन बनाकर चलाते हैं । यू तो जुगाड शब्द का मतलब ही नहीं थी कहीं का रोडा भानुमती ने उनका जोडा के तर्ज पर अपना काम निकालना है । लेकिन हमारी पारंपरिक मेधा से तैयार वाहन को भी अब चुका दम मिल गया है । एक में पानी देने वाले पंप के इंजन से तैयार वाहन उत्तर ही नहीं पश्चिमी मध्य और पूर्वी भारत तक में गांव कस्बों की सडकों पर गन्ने की पूछ लिया और स्थान या गेहूं के बोरे लादे लाइन में लगे दिख जाएंगे । पर सर कितना है कि संजय ने जो भानुमति का कुनबा जोडा था, थोडे आना दर्जी का चुका था । वो बडे पैमाने पर प्रयोग के लिए वाहन तैयार करने की सुविधा के बजाय शायद हस्तशिल्प की कोई कलाकृति बना रहे थे । इंदिरा की सरकार संजय की मदद नहीं मानो बच गई । ताजा ताजा राष्ट्रीयकृत बैंकों ने लगभग पचहत्तर लाख रुपए राशि का कर्ज बिना किसी गारंटी के उन्हें सौंप दिया । सेंट्रल बैंक के अध्यक्ष धर्मवीर तनेजा को मजबूरन संजय को ये बताना पडा कि वह उनके लिए और राशि जारी नहीं कर सकते तो तनेजा को एक सफदरगंज रोड बुलाया गया । यहाँ बताया जाता है कि संजय ने उन्हें पद से बर्खास्त कर देने की धमकी नहीं पहने । जाने इसके बावजूद जब उठते नहीं देखे तो सेंट्रल बैंक के अध्यक्ष पद पर उन्हें बरकरार रखने से इंकार कर दिया गया । हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल है । कायदे कानून को धता बताते हुए संजय को कौडियों के मोल हथियारों के गोदाम हिनस्ति चार सौ एकड कृषि भूमि पेश नहीं है । हालांकि रक्षा नियमों के अनुसार हथियारों के गोदाम के पास उद्योगधंधे लगाने की अनुमति पर रोक है संजय कोई जमीन कथित रूप में दस हजार रुपए प्रति एकड के भाव पीची गई थी जबकि उसके आस पास की जमीन प्रभाव उस समय पैंतीस हजार रुपए प्रति एकड हूँ । साल में जब हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बीजी वर्गीज ने संजय की गांधी की कंपनी के बारे में आलोचनात्मक लेख छापे हैं उन्हें खडे खडे पद से हटा दिया गया । हिंदुस्तान टाइम्स के मालिक एक बडा भी दरअसल मारूति के निवेशकों में शुमार थे । सरकार और व्यापार के पहिए मानव संजय की एक आवास पर रुकने अथवा चलने लगे थे । भवन जब प्रधानमंत्री निवास सही उद्योगपतियों को फोन करते थे तो ये स्वाभाविक था की वह एहसान करने के लिए आतुर हो जाएगा । शायद ये सोचते हुए इंदिरा स्वयं परियोजना में निजी दिलचस्पी ले रही हैं । लेकिन ऐसा भारी समर्थन मिलने के बावजूद मारूति बनाने में संजय नाकाम रहे । मई उन्नीस सौ तिहत्तर में पत्रकार उमा वासुदेव को संजय जब मारुती का मुआयना कराने के लिए उसमें बैठाकर घुमाने ले गए तो उन्हें समझ में आया कि कहाँ तो सर असर नाकाम है क्योंकि उसमें से तेल छू रहा था और वह बेहद गर्म हो गई थी । बस देव याद किया वो मारुती आठ सौ में मुझे बैठाकर अस्सी किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से फैक्ट्री परिसर का चक्कर लगाने लगा तो मैं तो उधर गई । जनता के लिए बडे पैमाने पर बादत होने वाले उत्पाद की जगह खासकर बनाया गया डिजाइनर वाहन था ठीक से काम ही नहीं कर रहा था । इससे साफ है संजय की मारूति ग्रामीण भारत में चलने वाले जुगाड वाहनों के बराबर भी नहीं थी जो गांव वालों को बैठाकर उनकी मंजिल तक हफ्ते है । घर आते हुए मजे में पहुंचा देता है । मारुति दरअसल लाइसेंस परमिट राज की बीमारियों का प्रतीक पर गई थी । इस बात का जलन तो महारण्ये किस इंदिरा भारतीय राजनीति की त्रित राष्ट्र बिहारी यानी अपने बच्चे की महत्वाकांक्षी गलतियों को माँ बाप द्वारा जानबूझकर नजरअंदाज किए जाने से ग्रस्त थी । उन्होंने तो मारुती को देशी भारतीय उद्यम की उपमा देकर उसे भारतीय युवाओं द्वारा अपनाने का ब्रेना दायक उदाहरण तक ठहरा दिया । उन्होंने शायद इस बात का फिल्म ही नहीं था कि उनकी सरकार की साख पर मारुति कैसे बट्टा लगा रही थी । उस जमाने नहीं इंडिया टुडे पत्रिका में कार्यरत पत्रका सुनील सेठी ने इसे संक्षेप ने बताया मारुति लिमिटेड अंत तक बडे पैमाने पर जमीन पर कब से और वित्तीय घोटाले का रूप ले लिया । राष्ट्रीय कर बैंकों द्वारा चापलूसी भरा कर्ज, मेला, व्यापारिक समूहों तथा व्यापारियों से पैसा बैठने के लिए फिरौती और प्लेट में संजय के शक्ति प्रदर्शन का विरोध कर नहीं अथवा उनकी बात ना मानने वाले बैंकरों कैबिनेटमंत्री हो और बडे उद्योगपतियों की छुट्टी कर दी गई । आप कल के दौरान मारुति की तरफ से ध्यान हटाकर हूँ संजय ने और बडे पैमाने पर धांधली शुरू कर दी । जनता सरकार ने मारुती परियोजना को उन्नीस सौ बहत्तर में खत्म कर दिया और उसके मामलों की जांच के लिए एक कमेटी गठित समिति ने अत्यंत आलोचनात्मक निष्कर्ष पेश किया । इंदिरा गांधी जब उन्नीस सौ अस्सी में दोबारा सत्तारूढ हुई तो संजय की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने बेटे के सपने को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया । मारुति उद्योग को उन्नीस सौ इक्यासी में सरकारी कंपनी के रूप में गठित किया गया और उसके तथा जापान की सुजुकी कंपनी के अभी संयुक्त उद्यम करार हुआ हूँ । संजय तो कार बनाने में नाकाम रहे लेकिन कचरे के उस फेर में जान फूंकने के लिए पेशेवर कार उत्पादक की जरूरत थी । सुजुकी ने कदम आगे बढाया और संजय द्वारा बनाए गए छूटे हुए तथा बेहद गर्म हो जाने वाले डिब्बे की जगह मारुति सुजुकी का निर्माण कर दिया जो भारत की टूटी फूटी सडकों पर छोटी मगर मजबूत कार के रूप में सडक पर दौडने लगे । तरक्की ये हफ्ता आम आदमी का वाहन भारत में भी पैदा हो गया था । संजय ने तो हालांकि भारत की वॅार नहीं बना पाए फिर भी उसने ऐसा असंभव सपना देखा जो आखिरकार पूरा हुआ । भले ही वो विदेशी प्रौद्योगिकी और सरकारी कृपा की ताकत से ही पूरा हुआ हो । आपने मारुती के प्रयोग के पूरे साल में तथा इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व की साफ की जो उन्होंने बाली ली उसके कारण संजय लगातार विपक्ष तथा प्रेस के सीधे निशाने पर रहे । इंदिरा ऐसी नजर आती है कि वे इन हमलों की वजह नहीं समझ पा रही हैं और इन दिनों वो नाराज दिखती और बम्बई के गैरेज में हवाई जहाज बनाने वाले पूर्वी यूरोप के पादरी का हवाला देकर आश्चर्य जताती रही यदि उसने विमान बना लिया था । संजय कार्य का निर्माण जो नहीं कर सकता हूँ वो बार बार यही कहने लगी कि मेरे बेटे को नाहक निशाना बनाया जा रहा है और बदनाम किया जा रहा है । साक्षात्कारों में उन्होंने ये भी कहा, मेरा बेटा तो राजनीति में कतई शामिल है ही नहीं । दिल से लगभग धैर्य चुकने की हद तक चाहती थी कि वह सफल मानो उस पर ये उनका उद्धार हो अथवा उनकी मदद करना उनका कर्तव्य हो । उससे उन्हें सचमुच मारूति बना देने की वास्तविक उम्मीद अथवा उसे किसी सरकारी काम नहीं व्यस्त देखना चाहती थी । मगर इस जरूर लगता है कि वे उसकी कोई भी फरमाइश ठुकराने में पक्षिम । उन्हें इस बात करना था भारत की पहली विशुद्ध भारत में बनी कार के उत्पादन की संभावना नहीं मान उनके राष्ट्रवाद को पर लगा दिए थे और इस मेड इन इंडिया का परियोजना को उनका बेटा पूरा करने की कोशिश कर रहा था । इस बात नहीं उनकी नजरों में उसे देशभक्त नेहरू खानदान के समुचित उत्तराधिकारी का दर्जा दे दिया था । बंगलादेश शुद्ध के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कामकाज से संजय दूर ही रहा । शायद संकट की विकरालता के कारण इंदिरा को समय सिद्ध योग्यता वाले लोगों की जरूरत थी और भी इसके लिए हक्सर तथा मानिकशा जैसे बुद्धिमान तथा अनुभवी लोगों पर निर्भर करना पडा । युद्ध के बाद जैसे जैसे अपनी हैसियत से ज्यादा ऊंचाकर पानी लगा उसका टकराव सीधे अपनी माँ की सरकार के प्रभारी व्यक्ति से हो गया । शारदा प्रसाद इसकी पुष्टि करते हैं । युवराज की हरकतों पर संप्रभु और अधिकारी के बीच बदमजगी पडने लगी । अक्सर और संजय दरअसल एक दूसरे को आरंभ से ही ना पसंद करते थे । अक्सर नहीं तो इंदिरा को किसी समय चेताया था, संजय को मारुती का लाइसेंस देने पर राजनीति के कटघरे में खडी हो जाएंगे । उन्होंने बंसीलाल के साथ हरियाणा में भूमि के सौदे को भी गलत ठहराया और इंदिरा गांधी को सलाह दी कि वह संजय को दिल्ली से कहीं दूर भेज दें ताकि मारुती से जुडे घोटाले थोडे दिनों में लोगों की याद से उतर जायेंगे । नटवर सिंह कहते हैं, अक्सर ने उन्हें बडी साफगोई से कहा था कि आपको भारत के प्रधानमंत्री अथवा संजय की मां में से किसी एक स्थिति को चुनना पडेगा । वसंत साठे नहीं याद किया और युवक और उसकी गतिविधियों के बारे में अक्सर ने उन्हें चेताया था मगर उनकी चेतावनियों का उल्टा ही असर हुआ । संजय ने अपनी तरफ से अपनी माँ को अक्सर के विरुद्ध भडकाने में भी कोई कसर नहीं छोडी थी । जाने कहाँ से या वहाँ उडी ये अक्सर खुद बंगलादेश विजय का सहारा अपने सिर मान रहे थे । वो अपने चहेतों को फायदा पहुंचा रहे थे । इंदिरा का एकबार छुडाकर खुद ही सत्ता शिरोमणि के रूप में काम कर रहे हैं । संरक्षक, माँ और उन्मादी प्रधानमंत्री ने अपने बेटे के आलोचक को अपने यहाँ से हटाने में तेरी नहीं की । अक्सर के अधिकार छिनने लगे । शारदा प्रसाद लिखते हैं, गलत फहमी की खाई बढने के बहुत सारे कारण थे जिनमें उन्हें चाहने वालों द्वारा उनकी बात बात पर प्रशंसा किया जाना भी शामिल था । प्रमुख सचिव के रूप में उन्नीस सौ तिहत्तर में जब अक्सर का कार्यकाल बढाने का मौका आया तो इंदिरा गांधी ने उन्हें हटा दिया । बाद उन्होंने योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे राइट वही पद पर बिठा दिया । आपातकाल लगने के बाद उन्नीस सौ पचहत्तर में दिल्ली में कपडे की मशहूर दुकान पंडित प्रदर्शन इसके मालिक हक्सर के रिश्तेदार हैं । उस पर छापा पडने वाला था और संजय के आदेशानुसार अक्सर के अस्सी साल का बुजुर्ग नजदीकी रिश्तेदार की गिरफ्तारी होने वाली थी । इससे साफ है तब तक संबंध किस कदर बिगड गए थे । गिरफ्तारी जब हुई तब इंदिरा को कथित रूप से इस की जानकारी नहीं थी और उन्हें जब पता लगा तो उन्होंने वरिष्ठ नागरिक को छुडाने के लिए तत्काल दखअंदाजी की । अच्छा है उसकी भरपाई के लिए हक्सर की । माता का जब उन्नीस सौ उन्यासी में देहांत हुआ तो आपने शिष्टाचार का परिचय देते हुए सब कुछ होने के बावजूद वो उनके घर दुःख व्यक्त करने के लिए मिलने अक्सर की छुट्टी होते ही इंदिरा अपने सबसे निर्णय सलाहकार से हाथ हो गई थी । उनकी जगह दूसरे कश्मीरी पंडित तथा बुद्धिमान एवं समझदार अर्थशास्त्री पि ऍफ अगले चार साल तक उस पद पर रहे मगर अक्सर की तरह हर उनसे कभी नजरे मिलाकर तक नहीं कर पाए और अक्सर के अनुसार प्रधानमंत्री से घर की राय जब होती थी तो वे रीढविहीन सुद्ध होते थे परमेश्वर नारायण हत्सा शीर्ष नौकरशाह जिन्होंने इंदिरा को बैंकों के राष्ट्रीयकरण, कांग्रेस तोडने, प्रिवीपर्स खत्म करने तथा बंगलादेश युद्ध में हाथ पकडकर उनको राह दिखाई उन्हें अब वो पद छोडने को संजय गांधी के कारण मजबूर किया गया जिसके वह पर्याय बन गए थे । उनकी विदाई इंदिरा गांधी पर बेहद भारी पडने वाली थी । संजय के उदय के साथ अन्य लोगों के दिन भी फिर रहे जिससे सिगरेट के आदि कमेरी राजेंद्र कुमार धवन धवन पहले आकाशवाणी ने कर्मचारी थे और उन्हें इंदिरा गांधी के कर्मचारी वर्ग में उनके रिश्ते के भाई यशपाल कपूर ने में शामिल किया था जिस पाल तब जवाहरलाल नेहरू के कर्मचारी वर्ग में शामिल थे । आर के धवन की तरक्की के साथ ही भारत के सरकारी ढांचे में सबसे महत्वपूर्ण दिए यानी निजी सहायक सहयोग शुरू हुआ । सत्ता के केंद्र की आंख नाथ कार पीए अनेक वीआईपी लोगों के यहाँ अपने ही वफादार लोगों को जमा देता है जिससे उसकी सत्ता और सूचनाओं का दायरा व्यापक होता जाता है । इन्हीं कारणों से वो अपने बॉस के लिए अपरिहार्य तथा स्वयंभू सत्ता का दलाल बन जाता है । नेहरू का निजी सचिव एमओ मथाई यदि भारत में सप्ताह का पहला दलाल पीए था । उसके बाद दूसरा नंबर आरके धवन को ही मिलता है । इसमें कोई शक नहीं यूपीए की सत्ता उसके उस आता की सत्ता पर निर्भर है । इस की सेवा में वो तैनात होता है और यदि उसके बॉस के हाथ से सत्ता के सारे सूत्र हो तो फिर उसकी खुद की सत्ता के भी पर निकल आते हैं । तो धवन से पहले वहाँ पर मथाई था और उसके बाद विन्सेट जॉर्ज आया जो कथित रूप में केरल में सबसे तेज गति से टाइप करने का पुरस्कार जीत चुका था । जॉर्ज भी पहले इंदिरा गांधी के कर्मचारी वर्ग में शामिल हुआ और फिर वो राजीव और बाद में सोनिया गांधी का । पीएम ना धवन और जॉर्ज कि धमक से ये पता चलता है कि कांग्रेस में लगातार ये प्रवर्ति बढ रही थी । सत्ता जमीनी लोकप्रियता के बजाय सर्व सत्ता संपन्न सर्वोच्च परिवार को नियंत्रित करने वाले हाथों से प्रवाहित हो रही है । यदि नेहरू के देहांत के बाद भारत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण लोग सिंडिकेट के बुजुर्ग नेता से तो इंदिरा की मृत्यु के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति आर के । धवन था । इस परिवर्तन से यह स्पष्ट होता है कि नेहरू की मृत्यु के बाद जब सत्ता का केंद्रीकरण हुआ तो फिर सत्ता केसरो तक पहुंच को नियंत्रित करने वाले दलालों का प्रभुत्व बेशुमार तादाद नहीं हम ही हो गया । आपातकाल के दौरान पर्दे के पीछे जो कुछ चल रहा था उसके लिए धवन को ही जिम्मेदार ठहराया गया क्योंकि वो हर समय इन्दिरा के साथ उनकी अमित परछाई के रूप में रहते थे । धीरे धीरे धवन और संजय गांधी प्रधानमंत्री के घर तक पहुंच को मिलकर नियंत्रित करने लगे । धवन कहते हैं, हम चाहे जो भी काम करें, हमेशा इंदिरा को ध्यान में रखकर करते थे । उनके प्रति मेरी मुकम्मल वफादारी । मैंने उनके साथ जितने भी समय काम किया, उस दौरान उनका अहित करने संबंधी कोई भी काम नहीं किया । उन के लिए मैं दिन में चौबीसों घंटे हफ्ते में सातों दिन काम करता था । उन्नीस सौ से लेकर लगातार बाईस साल तक न कभी काम की छुट्टी और ना कभी छुट्टी के दिन छुट्टी । मैंने उनके खिलाफ जहाँ आयोग यानी जनता सरकार द्वारा आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए उन्नीस सौ में नियुक्त जांच आयोग उसके सामने गवाही देने से इंकार कर दिया था और अपनी वफादारी के लिए जेल की हवा भी खाई थी । उनके अथवा संजय के हितों पर चोट करने के लिए क्या मैं कभी कुछ कर सकता था? मेरा एकमात्र लक्ष्य यही देखना था कि कुछ भी खत्म हो जाये । दुर्भाग्य से सभी कुछ गलत होना शुरू हो गया था । इंदिरा और संजय के बीच परस्पर सुरक्षात्मक गुप्त शक्तिशाली बंधन था । इसे माँ द्वारा अनुशासन करने की कोई कोशिश अथवा कोई भी संतान उचित मर्यादा तोड नहीं पाई । बेटे के आधिपत्य के सामने माँ मानवशक्ति ही हो जाती थी । उसके चरणों में चुप चाप अपना साम्राज्य समर्पित कर देती थी । उन्होंने मातृत्व को किसी इस तरीके की सर्वोच्च परिपूर्णता बताया था । इसके बावजूद उन्होंने मातृत्व को सत्ता के फायदे बांटने के रूप में परिभाषित कर डाला । मेरा बचपन क्योंकि इतना आरक्षित और अकेलेपन का शिकार था इसलिए अपने बच्चों के लिए अपना सारा समय समर्पित करने के लिए मैं प्रतिबद्ध थी । बच्चे के लिए अपनी माता के प्यार और देखभाल की उतनी ही गहराई आवश्यकता है जितनी किसी पौधे के लिए । धूप और पानी की । माँ के लिए उसके बच्चों का फर्ज सबसे पहले आना चाहिए । कभी किसी अन्य स्त्री ने जब कहा मैं अपने बेटों के साथ अधिक समय नहीं बताता होंगे । संजय हुए बात बेहद बुरी लगी और मेरी और लगाते हुए उसने कहा, मेरी माँ बहुत सारे महत्वपूर्ण काम करती है । उसके बावजूद वो मेरे साथ इतना ही खेल लेती है जितना आप हैं अपने छोटे से बेटे के साथ नहीं कर पाते । संजय अपनी माँ का रक्षक और भी ऐसी माँ जो हाथ में सत्ता आते ही इस बात के लिए समूचा प्रयास करती थी उसे उनका भरपूर प्यार और देखभाल नसीब हो सके । हम देखी चुके हैं कि नेहरू ज्यादातर इंदिरा पर बौद्धिक और भावनात्मक ध्यान दिया करते थे और उन्होंने भी संजय की देखभाल में कोई कसर नहीं उठा रखी थी । मगर ये बहुत एक सुखी दे पाएंगे, बौद्धिक रूप से उसे समृद्ध नहीं कर पाएंगे । इंदिरा गांधी ने जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय को अपने बेटे के हाथ का खिलौना बनने दिया, माँ और प्रधानमंत्री दोनों ही रूको, मैं विफल हो गई । बच्चों की परवरिश के मामले में माता पिता तो हमको हमेशा अपराधबोध से ग्रस्त महसूस करते हैं और इंदिरा के तत्कालीन पर्यवेक्षक कहते हैं कि अपनी शादी की कठिनाइयों और अपनी ऍफ रोज की विपरीत जीवन शैली के द्वैत के कारण है । इंदिरा के मन में अपराधबोध निशा रहता था । उनके बेटे जैसे जैसे बडे हुए तुम्हें शायद ऐसा लगा कि उनके पिता के साथ अन्याय हुआ क्योंकि नेहरू की बेटी के रूप में इंदिरा के हाथ में यहाँ सत्ता और रसूख दोनों थे जब कि रोज सादगी और सामान्य सी परिस्थितियों में जीवन यापन करते रहे । अपने ऐसी माँ होने के कारण मन में अनजाने ही अपराधबोध बैठा लेने जिसने फिर उसके मुकाबले नेहरू हो चुका हूँ और उसके पिता को अपने जीवन में दूसरे नंबर पर धकेल दिया था । इसलिए उन्हें ये गहरा अहसास था । अपने पिता की मृत्यु के लिए संजय शायद मन ही मन उन्हें दोषी मानता था । माँ पिता के अपराधबोध को ताड लेने पर वो बहुत बच्चे के लिए मनमानी की छूट का लाइसेंस बन जाता है । और इस साफ है कि संजय भी इंदिरा की कमजोरियों का फायदा उठाता था । बच्चों की अपने लिए अपने पिता द्वारा महान सपने देखने से इनकार करने के विरुद्ध बगावत कर चुकी थी । इसलिए अपने बेटे को शिखर तक पहुंचाने के लिए उन्होंने उनके विपरी हरसंभव प्रयास किए । इन जरा अपने पिता नेहरू के घर में आरामदायक जीवन के बीच सत्तावन रोज गांधी सामान्य पृष्ठभूमि से होने के बावजूद प्रतिभाशाली पिता थे । मैंने संजय अपना आदर्श मानता था । संजय के बचपन में खास किस्म की भावनात्मक मानसिक असुरक्षा तो घेरती थी, इसके कारण वो अपनी माँ का समर्थन पाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था । शायद रूस द्वारा झेले गए अपमान का पंचनामा बदला लेने के लिए कभी सुरक्षा, कभी जिद्दी मिजाज का । संजय अपनी माँ से अपनी जब मनवाकर ही दम लेता था । घर में वो नवाब यादों की तरह व्यवहार करता था । आपने नाश्ते में खाई जाने वाली चीज हूँ और उनके पकाने की शैली, स्वास्थ्य गंद आदि के बारे में गुजरती भर समझौता नहीं करता था । वो उबले अंडों और क्रीम गले डालिये का नाश्ता करता था । ये बानकी तब की है जब इंदिरा के में सत्ताच्युत हो जाने पर उनका परिवार प्रधानमंत्री निवास से किसी अन्य मकान में रहने गया और सोनिया गांधी का घर चलाने की जिम्मेदारी थी । फिर अंडे संजय की पसंद के अनुसार नहीं पता पाएं तो उसने गुस्सा होकर वो तस्तरी हवा में उछाल दी । बी के । नेहरू और उनकी पत्नी गौरी नहरो अवाक रह गए और उसकी माँ भी चुप्पी साधे रही । उसे डांटने की शायद उनमें हिम्मत नहीं थी, मगर अपमान का भाव उनके चेहरे पर तारीख था । आपातकाल के दौरान आकाशवाणी के लिए जब नई परिषद हम चुनी जा रही थी, तब रविशंकर द्वारा तैयार धन को सुनकर अनुमोदित करने के लिए इंदिरा के साथ संजय भी आया हुआ था और संगीत के बारे में इंदिरा के बजाय संजय नहीं अपनी राय जताई और इंदिरा चुप चाप सुनती रही और सारी बातचीत उसे ही करने दी । बेटे पर माँ की इस नहीं मई मगर कुछ भजन इतनी निर्भरता ने पहले फैसलों की निष्पक्षता को प्रभावित किया जिससे आरंभ में शांति का मतलब हम हुआ और फिर तीन उन्माद और एकाकीपन खाली हुआ । इससे तानाशाहीपूर्ण सप्ताह की और मोड दिया गया । उन्हें यह समझाने में वो कामयाब रहा कि वह दोनों मिलकर ही दुनिया का मुकाबला कर सकते थे । मार्क कहते हैं, इसमें कोई शक नहीं है । उनकी आपस में बहुत गहरे संबंध थे । वो याद करते हैं कि कभी चुनाव प्रचार के दौरान जब वो इंदिरा का सक्षम प्यार करने के लिए इंतजार कर रहे थे उन की आ रही थी । अभी बताया गया की संजय का फोन आया था । वो लगभग खूब हुई फोन की और लडकी मानव उस की ओर से आए । फोन के कारण उनका मन बेहद प्रसन्न हो गया था । इसमें कोई शक नहीं उनके लिए उसका जबरदस्त है तो था उनके संबंधों के बारे में । उस समय तरह तरह की अजीब सी अफवाहें फैली हुई थी । उनमें से कुछ के अनुसार उनके बीच मजबूरी का संबंध था । पत्रकार फॅसने आपने निबंध पसंद है मुफ्फसिल जंक्शन में ये माना आपातकाल के दौरान ये लिखने के लिए वह शर्मिंदा थे । संजय का वहाँ पर वर्चस्व, ब्लैक मिल अथवा आपस में यौन संपर्क के कारण भी संभावना था । चैट ने कहा कि ये दावे सरासर बेबुनियाद थे । उन्हें ये तो स्पष्ट है उसे अत्यधिक सहारा होता था । चुकी तो मर्दानी शक्ति का प्रतीक था जिसके इंदिरा कभी बहुत इच्छुक थी और एक हिंदू बुआई नया जीवन आ गया । आई अब उन घटनाओं का रुख करते हैं जिनके कारण पच्चीस जून उन्नीस सौ पचहत्तर को आपातकाल लागू किया गया । ये घटनाएं एक दूसरे पर ऐसी तेजी से गिरी मानो कोई ताश का महल रह गया हो । बंगलादेशी युद्ध के बाद खुशी मनाने का जनज्वार उठा था । वो लगभग और उन्ही कडवी, आर्थिक कठिनाइयों और राजनीतिक संघर्ष के सिर उठाते पहाडों में सफल हो गया । ऐसा प्रतीत हुआ मानो भारत की शासक देवी से देवताओं को खुद ही एशिया हो गई । बांग्लादेश विजय के तो गाल बार मानव त्रासदियों की झडी लग गई । बांग्लादेश चाहे एक करोड शर्णार्थियों का भारत पर भारी बोझ पडा हूँ, कोड देखा चाहिए लगातार तीन साल उन्नीस सौ बहत्तर, तिहत्तर और चौहत्तर में सूखा पड गया । अनाज का उत्पादन आठ प्रतिशत घट गया । खाद्यान के दाम आसमान छूने लगे । इसके साथ ही पहला तेल का झटका में लगा जब पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन आॅल रातोंरात कच्चे तेल के दामों में चार गुना की जबरदस्त वृद्धि कर दी । इसकी वजह से हर चीज के दाम बेतहाशा बढ गए । महंगाई की दर उन्नीस सौ चौहत्तर आते आते हैं । तीस फीसदी को छूने लगे । महंगे दाम और पिल्लर देशभर में छा गई । भारत जबरदस्त आर्थिक संकट की चपेट में आ गया । इससे अराजकता फैल गई । प्रदर्शन ऍर हडताल देश के अनेक हिस्सों में आए दिन होने लगे । मुंबई, मैसूर, नागपुर और केरल के कुछ हिस्सों में खाद्यान की लूटपाट शुरू हो गए । साल उन्नीस सौ बहत्तर और बेहतर के दौरान सिर्फ मुंबई में ही बारह हजार से अधिक हडतालें हुए । कारखाने बंद हुए और बेरोजगारी मानव महामारी बन गई । निराश नौजवान भरी धूप में गलियों के नुक्कड पर बहस मुबाहिसे और लडाई तक पहुँचने लगे । पश्चिमी दुनिया में भी आर्थिक स्थिति बिगडने लगी । इसकी वजह से उन्नीस सौ अस्सी के दशक थे । मार्गेट थेचर और रोनाल्ड रीगन जैसे नेताओं और परिवर्तनकारी नई आर्थिक नीतियां लागू हुई । लेकिन इंदिरा गांधी के लिए कालका ये सबसे महत्वपूर्ण चक्र और कुछ नहीं । विपक्ष की साजिश भर्ती कांग्रेस विरोधीदल विकास में बाधा डाल रहे थे । बार बार कम लोगों का आह्वान किया जा रहा था । किसानों से अपना मान नहीं बेचने को कहा गया, कर नहीं चुकाने की सलाह भी दी गई । उनका लक्ष्य सरकार को निष्क्रिय करना और देश की छाती पर चढकर सत्ता हथियाना था । बांग्लादेश विजय के बाद इंदिरा गांधी ने वास्तविक कायापलट के लिए सत्ता हासिल की, लेकिन इस सप्ताह का बेहतर उपयोग करने से वो छूट गई भी हमेशा बनते हुए इतिहास में भागीदार होने के प्रति जगह नहीं है । लेकिन इतिहास की नई इबारत लिखने का उन्हें न जाने क्यों अपने पर भरोसा नहीं था । बांग्लादेश विजय ने देश को नई सोच और आशावाद से वो क्या ऐसी उम्मीद भरी सोच इसे नई प्रकार की राजनीति करने के लिए ढाला जा सकता था और नेता द्वारा आपसी समझौते का ऐसा युग शुरू किया जा सकता था । इसे अपने विरोधियों से सहमती स्थापित करने के प्रयास का आत्मविश्वास होना चाहिए था । अब तो गरीबी हटाओ के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में व्यापक राजनीतिक समझ बनाने की आवश्यकता पर ध्यान देने की बजाय व्यापक श्रमिक और ग्रामीण असंतोष तथा युवाओं में बढती कुंठा को अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट के मानक के रूप में नहीं पहचान कर इंदिरा गांधी ने छुद्र राजनीति करनी शुरू कर दी, संधि और चौकन्नेपन के दलदल में घुसने लगे और उनके हर एक प्रदर्शन अथवा आलोचना भारत की प्रतिकात्मक सेनापति के रूप में अपनी विकास यात्रा में रोडा अटकाने की कोशिश महसूस होने लगे । भविष्य की और आपने की बजाय तो पीछे देखने लगी और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण नई संस्थाओं और विचारों की रचना के कौशल की भारी कमी क्षेत्र ध्वस्त हो गई । प्रतिद्वन्दियों पर जीत दर्ज करने और राजनीतिक रूप में अव्वल बने रहने की जिद में उन्होंने भारत को नई बौद्धिक दिशा देने से स्वयं को खुद ही मेहरूम कर दिया । इतना विशाल बहुमत मिलने के बावजूद भविष्य की नई राह बनाने की क्षमता उनके द्वारा वंशगत नहीं । पास अपना और न ही उसे हासिल कर सकता ना किसी त्रासदी से कम नहीं था । सत्ता पाने को बहुत लगाए बैठे लोगों के राजनीतिक समीकरणों और दैनिक जीवन की बिगडती स्थितियों के बीच विस्फोटक खाल मेर हो गया । विपक्ष का उन्नीस सौ इकहत्तर में सफाया हो गया था । उसका इंदिरा हटाओ अभियान टॅापलेस हो गया था तो अब ये राजनीति में फिर से छाने के लिए मौका ताड रहा था । उनके दुश्मनों को धीरे धीरे ये समझ में आया । वोटों के बडी संख्या में बट जाने को देखकर इंदिरा को हराने का सबसे बढिया मौका उनके खिलाफ संयुक्त मोर्चा बना लेना होगा । इसे आज महागठबन्धन कहते हैं । इंदिरा विरोधी गठबंधन तैयार होने लगा जबकि इंदिरा गांधी देशभर में फैले असंतोष को दबाने के लिए राजनीतिक नियंत्रन के हजार को अपनाने लगी । बढती सामाजिक बचानी होते कर उन्होंने अपने जाने पहचाने हत्या, ॅ अथवा बिजली कौंधने जैसी तेजी से ऊपर से साम्राज्य नियंत्रन थोपने की कोशिश की । कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की दिल्ली से नियुक्ति की प्रक्रिया धडपकड चुकी थी । इंदिरा गांधी के नामांकित नेताओं ने राज्यों की बागडोर संभालने जबकि कुछ उतने ही बेवफा नेताओं को बर्खास्त कर दिया गया । राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाकर अथवा विधानसभाओं को निलंबित अवधि में रखकर दिल्ली से उन का शासन चलाने की परंपरा चलने के लिए ताकि सत्तारूढ दल को चुनौती देने से विपक्ष को रोका जा सके । मंत्रिमंडल और पार्टी दोनों ही अब लगभग पूरी तरह इंदिरा के अंगूठे के नीचे आ गए । संकट मुंहबाए होने के बावजूद आर्थिक नीति भ्रमित थी । ये इस वक्त की तात्कालिक आवश्यकताओं और बिना सोचे समझे लोकलुभावन समाजवाद के बीच होते खाने लगे । उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा को आया । मैं फिर से कर्ज लिया और उसकी कठोर शर्तों को भी कुबूल कर लिया । उसके बावजूद प्रेस में छपी उस खबर के खानदान के लिए लपकी । वो भारतीय बाजार में निवेश के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों को बुलावा दे रही थी । अवमूल्यन के सबका उनका दिमाग में ताजा थे । अपने ही दल में वामपंथियों के दबाव के कारण संकट को अर्थव्यवस्था के और अधिक बुनियादी सुधार केस अवसर में नहीं बदला जा सका । बहुदा कहती थी कि उन्हें मिश्रित अर्थव्यवस्था ही अधिक व्यावहारिक लगती है और आर्थिक मुद्दों पर उनकी कोई पहले से तय विचारधारा नहीं थी । किसी भी तरफ से कटता रूप में प्रतिबद्ध नहीं थी । साल उन्नीस सौ सत्तर में अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, हम निश्चित अर्थव्यवस्था के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं । हम मध्यमार्गी हैं लेकिन मध्य से वाम किया और मिश्रित अर्थव्यवस्था टिकाऊ अवधारणा है और समाजवादी सामाजिक रचना था । साधन है बांध के आपने सक्षात्कार में कहने वाली थी, हमारे यहाँ गरीबी बडी समस्या है । हम इससे बाजार के थपेडों के भरोसे नहीं छोड सकते और बडे कारोबारों को मनमानी की छूट नहीं दे सकते । हम खुद को समाजवादी कहते हैं लेकिन ये सोवियत संघ अथवा सामने वाली देशों का समाजवाद नहीं है । हम अपनी राह खुद पाने का प्रयास कर रहे हैं । अरे उस रहा को ढूंढ ही नहीं पाए क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक जगत के करता हूँ से उन्हें वास्तविक जानकारियां मिल ही नहीं रही थी । लाइसेंस परमिट राज नहीं, अर्थव्यवस्था में काम की आजादी का उत्तरा खोल दिया और राजनीतिक नियंत्रण नहीं । राजनीति में आलोचनात्मक आवाजों को खामोश कर दिया । चापलूसों द्वारा प्राप्त जानकारी पर निर्भरता के सहारे वो नहीं रहा का निर्माण कर भी कैसे सकती थी । ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं । वो इस मिश्रित अर्थव्यवस्था को ठीक से प्रभाषित और लागू करने अथवा ये स्पष्ट करने में विफल रही कि हमारी अपनी रहा क्या थी । इसके बजाय फौजी उपायों के घेरे में उसका रह गई । हालत में विध्वंसक थे, समाजवादी अथवा नहीं । निजी पडे कारोबारों को उत्पादन के विस्तार की अनुमति देनी पडी और मांग का गला घोटना पडा । नौबत यहां तक आ गई की सरकार को मजदूरी की दर पर अंकुश लगाकर मांग घटाने की कोशिश करनी पडेगी । इस उपाय को कामगार वर्ग विरोधी बताकर निंदा की गई । सार्वजनिक उद्यमों के अनुसार निजी क्षेत्र को कडाई से नियमितकरने और विदेशी सहायता पर निर्भरता घटाने संबंधी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं ताकपर रखनी पडेगी क्योंकि आवश्यक वस्तुओं की किल्लत बढ रही थी और उन के विरोध में प्रदर्शन भी घने होते जा रहे थे । सरकार ने बेहतर में जब खाद्यान का फोक व्यापार अपने हाथ में लिया और फिर उसमें समस्या पैदा होने लगी तो इस फैसले से हडबडी में पिंड छुडाए जाने से साफ होता है नीतिगत और विचारधारात्मक स्तर पर गहरा भ्रम । अनाज के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण करने के फैसले की भनक लगते ही बाजार से खाद्यान्न भंडार गायब हो गए । बाजार में गेहूं अथवा चावल उपलब्ध ही ना भो पाने की आशंका से उपभोक्ताओं में आक्रोश फैल गया । केरल में खाद्यान के ट्रकों में लूटपाट हो गयी । किल्लत के कारण खाद्यान के भारी तादाद में आयात की जरूरत आन पडी जिसके कारण भारत फिर से खाद्यान्न आयात के शिकंजे में पहुँच गया । अनाज के थोक व्यापार के राष्ट्रीयकरण की कोशिश पता लगता है कि कठिन आर्थिक वास्तविकताओं से तो चार होने के बावजूद इंदिरा विचारधारात्मक बोझ के नीचे तभी रही वर्ष लगातार तीसरे साल जब में भी धोखा दे गयी । राजनीति के मुकाबले आर्थिक नीतियों को तवज्जो देने की मजबूरी पैदा हो गयी । में महंगाई निरोधक उपाय आरंभ किए और डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में उधर आर्थिक सलाहकारों की अपनी टीम का समर्थन किया । अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से कर्ज लेने के अलावा भी कोई चारा नहीं था । पहले हुए जिक्र के अनुसार इसके साथ लोकलुभावन योजनाओं और खर्चों पर रोक लगाने की रश्मि शर्तें भी माननी पडी । व्यवहारिकता की झोंक में आकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की शर्तें मान तो ली, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी । मनमोहन सिंह बाद में कहने वाले थे कि वे उनके उत्साह से प्रभावित थे । इसे अपनाकर उन्होंने इस समय राजनीतिक अलोकप्रियता के खतरे वाले महंगाई रोधी नीतियों के उपाय को स्वीकार किया । लेकिन उस अर्थव्यवस्था के व्यवस्थित रूप में बंधन काटने का विकल्प पौरी आपात उपाय नहीं हो सकते थे, जो भारत के नागरिकों को ही टेस्ट नहीं लगी थी । जैसा मनमोहन सिंह लगभग दो दशक बात करने वाले थे । अर्थव्यवस्था को में ऐसी नीतियों की जरूरत थी, जिनसे आमूलचूल कायाकल्प हो सके । लेकिन इंदिरा ने घबराहट में आधे अधूरे उपाय किए और गरीबी हटाओ नारा निर्दयी चुटकुलों के समान लगने लगा । देवी ने सोचा कि उन्हें राज करने का देवीय अधिकार था, मगर उनकी जनता हिंसक विरोध पर उतारू हो गई । उनमें रसूखदार वकील और न्यायिक बिरादरी भी शामिल थी । इंदिरा और न्यायपालिका के बीच सीधा टकराव हुआ । प्रगतिशील कानून बनाने की बुनियाद पर आधारित इंदिरा क्रांति के लिए न्यायपालिका का सहयोग आवश्यक था । उनके अनेक नीतियों को अदालतें पहले ही खारिज कर चुकी थी । पहले हुए जिक्र की तरह सुप्रीम कोर्ट नहीं प्रीवीपर्स खत्म करने संबंधी राष्ट्रपति के अध्यादेश को खारिज कर दिया था और बैंकों के राष्ट्रीयकरण में निहित मुआवजे के प्रावधानों को भी कानूनी चुनौती मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था । कांग्रेस के परिवर्तनकारी ये बढ बनाने लगे थे न्यायपालिका यानी नौकरशाही की तरह जबरदस्त सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाने के विराट लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध होनी चाहिए जिनका इंद्रा क्रांति ने जोर शोर से वायदा किया था । प्रतिबद्ध न्यायपालिका के सबसे मुखर पैरोकारों में मोहन कुमारमंगलम भी शामिल थे । वे एटॉन और कैम्ब्रिज में पढे लिखे समाजवादी इंदिरा के नजदीकी सहयोगी रोज गांधी के मित्र होने के साथ ही साथ इंदिरा के मंत्रिमंडल में मंत्री भी थे । भारत के कुलीन वामपंथ की मिसाल उनका समूह कांग्रेस फॉर्म और सोशलिस्ट एक्शन उन्नीस सौ में सामने आया था । विकास बदल के लिए अधीर थे और न्यायपालिका द्वारा अटकाये गए रोडों पर बेचैनी जाहिर कर रहे थे । साल में गोलकनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ये साफ मना था की बुनियादी अधिकारों के मामले में विधायिका अथवा सरकार कोई दखलंदाजी नहीं कर सकती । बुनियादी अधिकारों को सामान्य संशोधन प्रक्रियाओं के द्वारा संशोधित भी नहीं किया जा सकता है । लेकिन अब गरीबों के नाम पर हासिल की गई उन्नीस सौ की जबरदस्त जीत के जोश में राजनीति ने न्यायपालिका ने तक नंदाजी के मनसूबे भी बांध रही है और परिवर्तनकामी पक्ष संविधान को बदलने और बुनियादी अधिकारों में फेरबदल करने में संसद के अधिकारों का दावा करने लगे । भला इंदिरा के नेतृत्व में साहसी नए युग के आगमन को न्यायाधीश कैसे रोक सकते थे? और इस प्रकार संविधान में तो इसमें पच्चीस छब्बीस संशोधनों को और के बीच एक ही वर्ष के भीतर एक के बाद एक पारित कर दिया गया । ये संशोधन बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीविपर्स के खात्मे को कानूनी जामा पहना नहीं तथा बुनियादी अधिकारों में कतर ब्योंत के संसद के अधिकार यानी संप्रभु जनता के प्रतिनिधि के रूप में का दावा करने से संबंधित थे । संविधान से बार बार खिलवाड का खतरनाक उदाहरण कायम हुआ । उसका अर्थ यह था कि भविष्य में कुछ काम समझदार लोग भी समुदाय के और अधिक भले के नाम पर कुछ व्यक्तिगत अधिकारों को समाप्त करने के लिए अधिकृत महसूस कर सकते थे और करेंगे भी । इन संशोधनों को चुनौती दी गई प्रसिद्ध केशवानंद भारतीय मुकदमे को अप्रैल उन्नीस सौ तिहत्तर में आया भारतीय लोकतंत्र को बचाने वाला मामला बताया गया । इस मामले में तेरह न्यायाधीशों की पीठ में से सात न्यायाधीशों ने एक मामूली बहुमत था । संविधान के बुनियादी ढांचे में से संपत्ति के अधिकार को बाहर करते हुए इस बात पर सहमती जताई, संसद को संविधान संशोधित करने के असीमित अधिकार नहीं है और संविधान के बुनियादी ढांचे अथवा आवश्यक विशेषताओं में संसद द्वारा किए गए संशोधनों को अदालतें खारिज कर सकती थी । केशवनंद भारतीय फैसले में गोलकनाथ निर्णय के सिद्धांतों को ही मोटे तौर पर इंगित किया गया था, मगर इंदिरा सरकार ने इसे अपने लिए गंभीर झटका मारा । फैसले के अगले ही दिन भारत के मुख्य न्यायाधीश एस एम । सीकरी सेवानिवृत्त हुए । अगले मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते हुए इंदिरा गांधी ने नाटकीय रूप में तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी कर दी । उन्होंने न्यायमूर्ति ए एंड्रे को अप्रैल तिहत्तर में भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया । न्यायमूर्ति रेने केशवानंद भारती मामले में सरकार के पक्ष में राय जब आई थी एन रे की नियुक्ति ने खड बहुत मचा दिया । परमाणु देश के गाल पर तमाचा मारकर उसे जगह दिया । वरिष्ठता की अनदेखी किए जाने पर तीनों न्यायाधीशों ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया । न्यायपालिका को पालतू बनाने का शोर उठा । न्यायविदों ने अपने दस्तखत से बयान जारी करके अदालतों की स्वतंत्रता पर ग्रहण लगाने की सरकारी कोशिशों की निंदा की । लेकिन अपनी राह में कोई भी बाधा आने पर इंदिरा उसका जवाब ज्यादा से ज्यादा इसी रूप में देने लगी । फॅस इंदिरा यहाँ भी ठोक दिया गया और वैक अमोल खेलते हुए एक आंख वाले साइक्लोप्स की तरह । इंदिरा सरकार ने जब भी और जहां भी कोई विरोधी आवास अथवा राय उभरती दिखाई दी, उसे दबा दिया । ऐसे कुछ ही सप्ताह बाद न्यायपालिका के विरुद्ध इंदिरा के कट्टर समर्थकों में शामिल कुमारमंगलम की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई । पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम हिदायतुल्ला की टिप्पणी थी तो सरकार की कार्यवाही ऐसी कोशिश भविष्योन्मुख न्यायाधीशों की खेप तैयार करने की नहीं बल्कि ऐसे न्यायाधीशों को प्रोत्साहित करने का प्रयास था तो मुख्य न्यायाधीश के पद से जुडे फायदों पर नजर गडा रहे हैं । लोगों को सर्वोच्च नेता बेहद नाराज करने लगी थी । उत्तर प्रदेश के प्रादेशिक सशस्त्रबल यानी पीएसी प्रोवेंशियल आम्र्ड कांस्टेबुलरी ने के मई माह में बुनियादी वस्तुओं की किल्लत के विरोध में मित्र को कर दिया और बेहतर वेतन एवं कार्य परिस्थितियों में सुधार की मांग की । उन्होंने हथियार खानों पर कब्जा कर लिया, सरकारी संपत्ति बार हमला किया और अधिकारियों की सर हम हुप्पू । दिल्ली की पीएसी के विद्रोह से निपटने के लिए सेना लगाई गई । इस झूमाझटकी में तीस विद्रोही पुलिस वाले गोली खाकर मर गए और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को इस्तीफा देना पडा । अगले ही साल के जनवरी महीने गुजरात में विद्यार्थी महंगाई के खिलाफ सडकों पर उतर आए । ये प्रदर्शन आपकी तेजी से बढते हुए नवनिर्माण आंदोलन में और व्यापक रूप ले गई । इसका मकसद नई राजनीतिक संस्कृति विकसित करना और इंदिरा की सरकार को चुनौती देना था, आंदोलन नहीं । गुजरात के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के इस्तीफे की मांग की । छात्र आंदोलन नहीं, समूचे राज्य को अपनी चपेट में ले लिया । बस चलाई और दुकानें लूटी गई तथा पूरा राज्य अराजकता की भेंट चढता हुआ लगने लगा । महीने भर में सौ से ज्यादा लोग दंगे में मारे जा चुके थे । अन्य तीन सौ लोग घायल और आठ हजार लोग गिरफ्तार कर लिए गए । वहाँ कांग्रेस की ही सरकार होने के बावजूद महीने भर बाद के फरवरी माह में गुजरात में राष्ट्रपति शासन लग गया । बावजूद इसके इंदिरा गांधी यही मानती रहे हैं । ये सब उनके खिलाफ अमेरिका की खुफिया एजेंसी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी यानी सीआईए का राजनीतिक षड्यंत्र था । उनकी सरकार ने निष्ठुरता से जवाबी हमला किया । गुजरात में प्रदर्शनकारियों की तरफ से और फिर सरकार की जवाबी कार्रवाई में अपूर्वा हिंसा भारत में विरोध से सरकार द्वारा निपटने की संस्कृति में निर्णायक मोड साबित हुई । उग्र प्रदर्शन और राज्य की निर्दयतापूर्ण जवाबी कार्रवाई पश्चिम बंगाल में भी दिखाई थी । नक्सलवाद उन्नीस सौ साठ के दशक में अंतिम वर्षों में बंगाल के गांव में और कलकत्ता के शहर युवाओं के बीच चढे जमाने लगा था । नक्सल नेता चारू मजूमदार रहे । उन्नीस सौ इकहत्तर में सफाई की लाइन एन आई रिलेशन लाइन का नारा दे डाला । इसका मकसद वर्ग शत्रुओं का खात्मा करना था । बंगाल में हिंसक नक्सलवादी आंदोलन को पश्चिम बंगाल के पुलिस ने व्यवस्था तरीके से कुचल दिया । नक्सलवादियों के बडे पैमाने पर खातमे में शामिल होने का आरोप केंद्रीय शिक्षा मंत्री सिद्धार्थशंकर रही और कांग्रेस के युवा नेता प्रियरंजन दासमुंशी पर लगा । इंदिरा के बचपन के घनिष्ठ मित्र और नजदीकी सहयोगी रे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनाए जाने वाले थे । पश्चिम बंगाल में से कर के बीच बहुत बार राष्ट्रपति शासन लगा । प्रदर्शन और हडताल जारी रहने के बीच हिन्दूवादी ताकतों को संगठित होने का सुनहरा मौका मिल गया । कांग्रेस के दमघोटू आधिपत्य नहीं । इस मौके पर इंदिरा गांधी के विरुद्ध संघर्ष में विपक्ष को डेविड बनाम गोलियाँ जैसा परिदृश्य बनाने में कामयाबी मिली । विराट सरकारी मशीनरी के विरुद्ध है । उन्हें जनता की निगाहों में नायक का दर्जा मिल गया । जनसंघ ने छात्र आंदोलन के लिए अपना अलग संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद खडा कर लिया । इसका मकसद कांग्रेस से संघर्ष के साथ ही साथ वामपंथी छात्र संगठनों के विरुद्ध हिन्दू युवा संगठन को स्थापित करना भी था । विद्यार्थी परिषद ने नवनिर्माण आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अन्य छात्रों के साथ मिलकर बाद में बिहार आंदोलन छेड दिया । जनसंघ को हमेशा नेहरू खानदान से मानव भारी नफरत थी क्योंकि वे उनके हिंदू बहुसंख्यक विश्वदृष्टि के लिए मजबूत धर्मनिरपेक्ष चुनौती पेश पढते थे । जबकि वे इस मौके को अपना राजनीतिक आधार बढाने के लिए उपयुक्त मान रहे थे । वैचारिक हूँ अथवा नहीं, इंदिरा विरोधी तमाम ताकतें उन्हें हराने के लिए हर एक रास्ता अपनाने पर उतारू हो गई थी । अपने विरोधियों के प्रति इंदिरा के तरफ स्टार और मानसिक उन्माद के कारण देश में राजनीतिक टकराव का माहौल बन गया और बातचीत की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रही । अपने विपक्षियों के साथ समझौते अथवा गलत सैनी को पाटने के प्रयास के बजाय इंदिरा ने सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही अंगूठा दिखाना शुरू कर दिया । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हिरेन मुखर्जी ने में लिखा, संसद की कार्यवाही में भाग लेकर खुश होने वाले अपने पिता के डुप्री श्रीमती गांधी का जी इससे उचटता है । संसद तो लोगों के बिगडे मिजाज का प्रतिनिधित्व कर रही है और प्रधानमंत्री को उसे आत्मसात करते हुए उस के प्रति सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए । लेकिन वे तो संसद के सत्रों में अपनी आवश्यक उपस् थिति से भी मून चुरा रही हैं । कभी कभी ऐसा लगने लगता है कि कहीं भी राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार तो नहीं चाहती, लेकिन इस देश के निजाम को नुकसान हो रहा है । राजनीति बुरी तरह विभाजित हो गई और भारत धीरे धीरे अराजकता का शिकार होने लगा । साल उन्नीस सौ की आरंभिक अराजकता के बीच इंदिरा विरोधी आंदोलन का नेतृत्व संभालते हुए और ये कहते हुए वे अब सरकारी दमन के मूंग का वहाँ नहीं बने रह सकते हैं । बहत्तर वर्षीय जयप्रकाश नारायण विपक्ष के साथ खडे हो गए । स्वतंत्रता सेनानी और मार्क्सवाद एवं गांधीवाद के विचित्र मिश्रण बताए जाने वाले जयप्रकाश भारत के देहात में पैदा हुए थे, मगर उनकी शिक्षा दीक्षा संयुक्त राज्य अमेरिकी विश्वविद्यालय में हुई थी । वो किसी जमाने में नेहरू के प्रशंसक और मित्र होते थे तथा उनकी पत्नी प्रभावती देवी और कमला नेहरू भी अंतरंग सखियाँ थे । बिहार के सिताबदियारा नामक नदी द्वीप में पैदा हुए जयप्रकाश निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से थे । ये विशेषाधिकार प्राप्त पश्चिमी तौर तरीकों में पली इंदिरा के धुरविरोधी सामाजिक धोपर खडे थे । युवा प्रदर्शनकारियों के लिए वे मेरी अन तोडने रूपी कुलीन और ताकतवर इंदिरा के मुकाबले डटे । पके हुए बालों वाले सब ऑटम थे । जयप्रकाश का पाँच रतनाम जेपी था और वे आजादी के बाद मुख्यधारा की राजनीति से रिटायर्ड हो गए थे और समाजसुधार को समर्पित सादा जीवन जी रहे थे । सच तो यह है कि प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के उत्तराधिकारी बनने में उनकी जी जब को देखकर कांग्रेस के भीतर कि वामपंथी ताकतों को गहरी निराशा हुई थी, अब भारत भर में उठे असंतोष के ज्वार पर चढकर उन्होंने ऐसा आह्वान किया जिससे संसदीय लोकतंत्र के तत्कालीन स्वरूप पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया । आजादी के नायक और सत्ता तथा संपत्ति से अनेक वर्षों से प्रमुख जेपी नैतिक केंद्र बिंदु बन गए । इनके चारों और वामपंथियों से लेकर दक्षिणपंथियों तक तमाम इंदिरा विरोधी ताकतें लामबंद हो गई । जनसंघ और आरएसएस से लेकर समाजवादियों और सीपीआई ऍम सभी जे । पी । के झंडे तले इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड फेंकने के लिए एकजुट हो गए थे । ये गठबंधन दो हजार ग्यारह में अन्ना हजारे के चारों तरफ होगे । भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से उपजे नैतिक गठबंधन का एक तरह से विराट पूर्वज था । इसके बावजूद कुछ लोगों ने जे । पी । के प्रति गहरा अविश्वास भी खुलकर क्या? बीके नेहरू लिखते हैं, जवाहरलाल नहीं । जब संसद में विपक्ष न होने से दुखी होकर जेपी से संसद में आने और अपनी जगह संभालने के लिए याचना की मनाया पूछा और उन्हें समझाने की कोशिश की तब भी जेपी ने नेहरू को दृढता से अपनी नकार सुना दी । नेहरू लिखते हैं, वो व्यक्ति सरासर नकारात्मक था न कि सकारात्मक । पूरी तरह विध्वंसक थे । अच्छा पता नहीं की आलोचना करेंगे, आंदोलन करेंगे, हिंसा तक को बढावा देंगे । लेकिन कोई भी सकारात्मक रचनात्मक उपाय उस लक्ष्य को पाने के लिए नहीं बताएंगे । उनकी राय में क्या जाना चाहिए? उनकी तरफ से पता ही नहीं था कि सकारात्मक तरीके से क्या क्या जाना चाहिए । उनकी आलोचना भले ही कैसी भी रही हो, जे पी उस दौरान मसीहा थे । जेपी के नेतृत्व में के आरंभ में ही बिहार आंदोलन शुरू हो गया । आंदोलन के तहत छात्रों के जरूर प्रदर्शन और बिहार विधानसभा का घेराव आदि गतिविधियां चलती रही । गुजरात के समान ही आंदोलन का लक्ष्य मुख्यमंत्री को सत्ता से हटाना था । जेपी के विशाल कद और अपील के कारण अलग अलग समूह एकजुट हो गए । पटना विश्वविद्यालय में तब पढ रहे लालू प्रसाद यादव बिहार छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष बन गए । उसके सदस्यों में सुशील मोदी तथा रामविलास पासवान भी शामिल थे । इस उथल पुथल भरे समय में भ्रष्टाचार का अनेक सिर वाला दाना फिर खडा हो गया । एक अधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार कानून उम्मीद तो उठता था । विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम उन्नीस सौ तिहत्तर जैसे कानूनों के बलबूते उद्योग व्यापार पर सरकार का नियंत्रण दमघोटू हो गया था । अत्यधिक नियंत्रन से भ्रष्टाचार उपजना स्वाभाविक है । अनुमतियों लाइसेंस परमिट हो और अनुमोदनों के प्रभारी नियंताओं के हाथ में और सीमित विशेषाधिकार आ गए थे । स्मार्टली कहते हैं, सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में मंत्री रहे ललित नारायण मिश्र कांग्रेस के लिए चंदा जमा करने वाले लोगों में सबसे मशहूर थे । मंत्री के तौर पर कथित रूप में ऐसा प्रतिष्ठान चला रहे थे जिसमें अपने कारोबार के लिए लाइसेंस के इच्छुक लोगों द्वारा कथित रूप में कांग्रेस के कोष में मोटी राशि चुकाई जा रही थी । धवन और यशपाल कपूर द्वारा दलाली और वसूली के इससे भी आम थे मगर कभी कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया । यदि हम कुछ पीछे जाकर उन्नीस सौ पर नजर डालें तो हम पाएंगे समाजवाद की चमक के पहले कुछ अदृश्य ताकतें जड जमा चुकी थी । साल उन्नीस सौ सत्तर के नागर वाला प्राण से ये खुलासा हुआ की वसूली के गिरोह कितने बडे पैमाने पर उन लोगों के इर्द गिर्द चल रहे थे जिनकी सत्तावन लोगों तक बैठ के बांग्लादेश युद्ध के पहले के मई महीने में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में मुख्य खजांची वेद प्रकाश मल्होत्रा ने फोन पर ऐसी आवाज सुनी जिसमें खुद को प्रधानमंत्री बताया और उनकी आवाज की नकल कि व्यक्ति ने मल्होत्रा को सौ सौ रुपए के नोटों की गड्डी बनाकर सात लाख रुपए बैंक से निकालकर बांग्लादेश के बाबू को थमा देने को कहा । व्यक्ति सेना का पूर्व अफसर रुस्तम सोहराब नागरवाला निकला तो कुछ लोगों के अनुसार रोक के लिए काम करता था । मल्होत्रा ने जब प्रधानमंत्री कार्यालय को इसकी सूचना दी तो वहां हडकंप मच गया और हक्सर ने जिनके हाथ में उस समय तक कमान बनी हुई थी बलोतरा को तब डाल पुलिस के पास जाने को कहा । नगर वाला गिरफ्तार हुआ और उसने इंदिरा गांधी का बहुरूपिया बनने की बात कबूल कर लेंगे । अप्रत्याशित रूप से तीन दिन में तेजी से चले मुकदमे के बाद नगरवाला को जेल भेज दिया गया । यहाँ वो बाद में अपने कबूलनामे से मुकर गया और उसके मुकरने की जांच हो पाती उससे पहले ही वो उन्नीस सौ बहत्तर में दिल के दौरे से मर गया । संयोग से उस मामले की जांच कर रहा पुलिस अफसर भी कार दुर्घटना में मारा गया । मल्होत्रा को स्टेट बैंक से बर्खास्त कर दिया गया और रहस्यमय मामला बंद कर दिया गया । उनकी प्रेस में नागरवाला कांड सुर्खियों में छाया रहा था । कभी किसी को पता नहीं लग पाया बिना अगर वाला नहीं किस के लिए ऐसा किया था वो कोई सिर्फ राम या सीआईए का पेट तो जैसे की बात में आरोप लगा इसका मकसद इंदिरा को बदनाम करना था अथवा सचमुच प्रधानमंत्री का एजेंट था । नगरवाला को यदि घरेलू अथवा विदेशी स्तर पर ताकतवर संरक्षण नहीं मिला होता तो क्या वो प्रधानमंत्री के आवास की नक्ल की हिमाकत कर सकता था? क्या इंदिरा गांधी खुद नागरवाला की संरक्षक थी और जिन्होंने बाद में उसकी हत्या करवा दी? महज फोन पर मिले निर्देश के बूते बलोतरा नोटों की इतनी बडी राशि किसी बैंक से क्यों निकालेगा? केंद्र सरकार के अस्पष्ट अंधियारे दोनों में सवाल और प्रयास डूबती उतराते रहे । केंद्र मल्होत्रा ने लिखा, पैसा जमा करने के धंधे में नेहरू ने अपने हाथ कभी गंदे नहीं किए । उन्होंने ये काम मुंबई में कांग्रेस के छपरा एसके पाटिल जैसे अन्य नेताओं को सौंप रखा था । लेकिन इंदिरा क्योंकि अन्य किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकती थी इसलिए उन्होंने पार्टी के लिए चंदा जमा करने और पैसा जारी करने पर खुद कडा नियंत्रण बना रखा था क्योंकि पार्टी के लिए आने वाले पैसे पर खुद नियंत्रण रखती थी । अफवाहे उडनी लगी कि प्रधानमंत्री निवास में नोटों के सूटकेस ले जाए जाते थे । राजनीतिक भ्रष्टाचार बढाने के लिए अब जिम्मेदार माने जा रहे उपाय यानी कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा दिए जाने पर इंदिरा ने उन्नीस सौ बहत्तर में रोक लगा दी थी क्योंकि उन्हें डर था की कंपनियाँ सिर्फ दक्षिणपंथी स्वतंत्र पार्टी को ही चंदा देंगे । कानूनी रूप में भी अब क्योंकि चंदा देने पर रोक लगा दी गई थी इसलिए नेताओं और उद्योगपतियों के बीच गुपचुप लेन देन होने लगा । व्यापार और नेताओं के बीच सौदेबाजी खुली और पारदर्शी होने के बजाय चोरी छुपे होने लगी । राजनीतिक दलों को ईमानदारी से चंदा जमा करने से रोकने के दमघोटू ढंग की परछाई में सन्यास पद गठजोड होने लगे । साल से लेकर उन्नीस सौ पचहत्तर में आपातकाल की घोषणा तक भारत में अशांति का राज रहा । भारत में प्रशासनिक दृष्टि से ये सबसे अधिक डरावना अकाल था । इसमें आए दिन खेरा बंद विद्रोह और शांति के आभार, धरने तथा हडतालें होते रहे । इनमें सबसे अधिक शक्तिशाली विरोध देश व्यापी रेलवे हडताल के रूप में उभरा । हडताल आठ मई उन्नीस सौ चौहत्तर को शुरू हुई जब चौदह लाख रेलवे कर्मचारियों ने आठ घंटे के कार्य दिवस और वेतन में प्रतिशत बढोतरी की मांग रखें । इंदिरा गांधी ने हडताल को अगर घोषित करके मजदूर यूनियन के नेता और तीस तरह समाजवादी जॉर्ज फर्नांडिस को गिरफ्तार करवा दिया । आक्रमक फर्नांडिस नहीं अपने से अधिक समझौतावादी नेताओं से रेलवे कर्मचारियों की हडताल का नेतृत्व हासिल कर लिया था और ये ऐलान कर दिया था कि उनका लक्ष्य इंदिरा गांधी की सरकार को गिरा देना और रेल परिवहन का चक्का जाम करना था । धरने बाद में लिखा वो राजनीति में आपने राहत तलाश रहा था और उसे अपने समर्थक वर्ग की तलाश थी । ऐसे में बीस लाख असंतुष्ट कर्मचारियों का समूह हाथ लग जाना उसके लिए नियामक ही था । ऍम गिरफ्तार होते ही दस लाख रेलकर्मचारियों ने काम रोको पर अमल शुरू कर दिया । इसके बदले सरकार उन्हें निष्ठुरता से खदेडने लगी । हजारों कुछ वर्णनों के अनुसार चालीस हजार रेलकर्मचारियों को गिरफ्तार करके जेल की हवा खिला दी गई । उनके परिवारों को बेघर कर दिया गया और उनमें से अनेक अनाथ हो गए । हिंसा में भी भारी संख्या में लोग जख्मी हुए । सरकार ने इतनी निर्दयता से अत्याचार किए, जैसे भारत में उससे पहले कभी नहीं हुए । इंदिरा द्वारा पढाई से रेलवे हडताल के दमन की मध्यवर्ग ने तारीफ भी की, क्योंकि वे रेलगाडियों के समय से चलने के कारण खुश हुए । लेकिन किसी के साथ देश में इंदिरा विरोधी लहर पैदा करने का चस्पा विपक्ष के भीतर घुस गया । पडताल तो कुछ जल्दी गई, लेकिन उस भारत माता के प्रति उससे और असुविधा की लहरें दूर तक फैली । जो क्रूर सौतेली माँ के समान व्यवहार कर रही थी, उन्होंने हडताल को इतनी कडाई से क्यों दबाया? जबकि वे तो गरीबों की स्वघोषित संरक्षक थी । ये पक्का मानकर रेलकर्मचारी उनके खिलाफ थे । वे आरंभिक दौर में भी उनके प्रति वास्तविक सहानुभूति का भाव अपने भीतर जगह नहीं पाएंगे । कहती थी ऐसे समय पर रेलवे की हडताल जब खाद्यान्न की ढुलाई सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी जब आती है कि विपक्ष जनता का कितना सच्चा हितैषी था । उन्होंने कर्मचारियों को काम के बजाय धरना देने के लिए उकसाया । ऐसा वातावरण नहीं था । इसमें कोई भी देश समृद्ध अथवा जिंदा रह सकता था की निष्ठुरता से की गई कार्यवाही का एक कमजोर बचाव था । इससे और अधिक परेशानियां पैदा हुई । वो इस बात का कभी कोई जवाब नहीं दे पाईं । चुनाव में बुरी तरह हारने के बावजूद विपक्ष इतने बडे पैमाने पर कर्मचारियों को लामबंद करने में कैसे कामयाब रहा । जनता से अपने मशहूर जुडाव के बावजूद रेलकर्मचारियों का दिल जीतने में नाकाम हो रही हैं । हरी उथल पुथल के बीच देश ने ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल कर डाली । रेलवे की हडताल आठ मई उन्नीस सौ चौहत्तर को शुरू हुई और उसके महज दस दिन बाद ही दिलचस्प संयोग के तहत अठारह मई उन्नीस सौ चौहत्तर को बुद्ध मुस्कराए । राजस्थान के पोकरण स्तर बालू की टीमों के नीचे परमाणु परीक्षण के साथ ही भारत परमाणु शक्ति बन गया । शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट भारत के परमाणु कार्यक्रम की सुखद परिनीति था । इसे परमाणु भौतिकशास्त्री भूमि जहाँगीर बाबा ने उन्नीस सौ पचास के दशक में आरंभ किया था । चीन के हाथों उन्नीस सौ बासठ में और पाकिस्तान द्वारा में हमला झेलने के बाद भारतीय नेतृत्व पर इस बात का गहरा घरेलू दबाव था कि उग्रह परमाणु नीति अपनाई जाएगी । हालांकि गांधीवादी अहिंसा के अनुयायी शास्त्री परमाणु हथियारों के नैतिक विरोधी थे और उन्होंने ये घोषणा की थी कि भारत सिर्फ शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोटकों को विकसित करने का प्रयास करेगा । इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री बनते ही परमाणु हथियारों के प्रति अपने नैतिक विरोध को सार्वजनिक रूप में जगाया । लेकिन बांग्लादेश शुद्ध के बाद उप महादीप में भारत के प्रभुत्वशाली शक्ति के रूप में भरने के साथ ही तथा भारत पर बहुत जमाने की अमेरिकी कोशिश के अनुभव के बाद उन्होंने परमाणु उपकरण के परीक्षण को अपना समर्थन दे दिया था । हार मरुस्थल के नीचे की समय अठारह मई की सुबह जबरदस्त तेजी से थरथराई अजीब विडंबना रही । ये परीक्षण बुद्ध जयंती के दिन हुआ जिसकी वजह से बुद्ध का नाम परमाणु बम से जुड गया और इसका नामकरण स्माइलिंग बुद्ध पड गया । साल चौहत्तर की उस चिलचिलाती गर्मी में क्या बुद्ध का मुस्कराना पहले से तय था अथवा उन्हें ऊपरी आदेश के तहत मुस्कराने को कहा गया था ताकि उससे प्रधानमंत्री की ताकत का प्रदर्शन हो सके और देश व्यापी गहरे खतरों की ओर से जनता का ध्यान हटाया जा सके । इस प्रश्न का जवाब दो शायद बुद्ध के पास ही होगा । उस दिन इंदिरा गांधी को देख नहीं डॉक्टर माथुर पहुंचे तो वहीं अत्यंत बेचैन और अधीर थी उस दिन इतनी सुबह सुबह उन्हें औपचारिक रूप में तैयार देखकर और बार बार फोन उठाकर उसे वापस रखता हुआ देखकर आश्चर्यचकित थे । उनके बिस्तर से लगी मेज पर उन्होंने खुली डायरी रखी देगी । इसमें अपने हाथ से गायत्री मंत्र लिखा हुआ था । मैंने उन्हें मेरी दिशा में ये बडबडाते थोडा जाओ भगवान के लिए चले जाओ । मैं बेहद परेशान हुआ और वहाँ से तत्काल चला गया हूँ । डॉक्टर वहाँ से पीएम घर को देखने गए और वे भी उतने ही तनावग्रस्त तथा बेचे लग रहे थे । उन्हें इस बेचैनी का राज दोपहर बाद शारदा प्रसाद का फोन आने पर पता चला । जब उन्होंने कहा भारत ने परमाणु बम विस्फोट कर लिया । प्रधानमंत्री ने संसद में आज दोपहर इसकी घोषणा कि विस्फोट सवेरे आठ बजे हुआ । प्रधानमंत्री को कटु संदेश मिला हूँ । बुद्ध ऍम यानी बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं । माथुर कहते हैं, मुझे तब ये एहसास हुआ कि उस सुबह वेक्यूम इतनी तनावग्रस्त और बेचैन थे । बुद्ध की मुस्कुराने के बाद भी देश में शांति स्थापित नहीं हुई । हिंसक प्रदर्शनों के द्वार पर ज्वार उठकर भारत को हिला रहे थे । जेपी के आंदोलन का वर्णन करते हुए श्यामलाल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा, जेपी ऐसा राजनीतिक वातावरण बना रहे हैं । प्रोग्राम जी के लिए नहीं बल्कि अराजकता के अनुकूल है । हिंदू ने पूछा, बीजेपी को अपने सार्वजनिक प्रभाव का दुरुपयोग करके कानून व्यवस्था तथा समूचे लोकतांत्रिक ढांचे के लिए अपमान का सूत्रपात करना चाहिए । नेता की तलाश कर रहे युवाओं के लिए जेपी मालूम वरदान साबित हुए और उनके लक्ष्य के लिए वो इतिहास का कुहासा चीर कर प्रकट हुए हैं । युवाओं तथा आजादी के संघर्ष के बीच का पूर्व है । इसे उन्होंने अपने आंदोलन के अग्रदूत के रूप में स्थापित कर लिया था । मानो गांधी पुनर्जीवित हो गए हो । ये समझकर की इंदिरा को सिर्फ सारा विपक्ष मिलकर ही हरा सकता था । जेपी ने कांग्रेस यानी संगठन के अध्यक्ष मोरारजी जनसंघ तथा समाजवादियों को मिलाकर इंदिरा के खिलाफ जनता मोर्चा अथवा जनता फ्रंट बना लिया । ये मोर्चा ही बाद में जनता पार्टी बनने वाला था । चुनाव में इंदिरा गांधी का डटकर मुकाबला कर दी है । शुरुआती चुनावी हवा से साफ हो गया था । लोग जनता मोर्चा को समर्थन देने को तैयार हैं । जबलपुर में हुए उपचुनाव में जनता मोर्चा के उम्मीदवार ने अधिक कांग्रेस के पास उखाडकर एक झटके में उसके उम्मीदवार को खडा दिया । जबलपुर । दरअसल आधी सदी से कांग्रेस का गढ था । ऍफ इंडिया ने लिखा ये तो कांग्रेस के खिलाफ तूफान था । उन्नीस सौ चौहत्तर में जबलपुर उपचुनाव के विजेता थे । वहाँ इंजीनियरिंग कर रहे एक अनजान से छात्र नेता जीतकर सबसे युवा सांसद बने । उनका नाम था शरद यादव । जनता मोर्चा के लिए धीरे धीरे और उपचुनावों में भी जीत दर्ज होने वाली थी । इस बीच बिहार में प्रदर्शन पूरे उफान पडते हैं । केन्द्र सरकार ने वहाँ भी सकती से काम किया । प्रदर्शनकारी भीड पर लाठियां बरसाई और आंसूगैस से तितर बितर करने की कोशिश की गई । इस सबसे बिना घबराए जेपी ने पांच जून उम्मीद सौ चौहत्तर को पटना के गांधी मैदान में हुई सभा में संपूर्ण क्रांति का नारा दिया । इंदिरा ने बिहार आंदोलन के नेताओं से बातचीत से साफ इंकार कर दिया था ना कि मोहन धारिया जैसे कांग्रेस के सदस्यों ने ऐसा करने का सुझाव दिया । मोहन धारिया ने बाद में कांग्रेस के भीतर आपातकाल की आलोचना की । इस पूरे साल के दौरान इंदिरा गांधी विदेशी हाथ के षड्यंत्र का राग अलापती रही । उनकी सरकार को गिराना चाहता था । सत्तर के दशक के आरंभ के आंदोलन को भारी समर्थन हासिल था । सिर्फ आंतरिक ही नहीं हमें अंतरराष्ट्रीय एजेंसी की कारगुजारियों को भी देखना पडता था के कौन भारत ने कब आया और किस समय है । उन्होंने दोहराया, हमारा लक्ष्य तो गरीबी का उन्मूलन था । मगर हम इस काम को करने के लिए जैसे ही आगे बढे पैसे, आर्थिक, सत्ता, प्रेस, स्थानीय और विदेशी उद्योग हमारी रहा । रोकने को एकजुट हो गए । उन्होंने ये मानने से इंकार कर दिया कि असंतोष और शिकायतों के वैद्य कारण थे । बृहद आर्थिक परेशानी की हालत होने के बावजूद निर्वाचित सरकार को विपक्ष सरासर असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक हथकंडों के जरिए गिराना चाहता था । चुनाव के इंतजार के लिए तैयार नहीं थे, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भी तैयार नहीं थे । छात्र सडकों पर उतरे हुए थे, पुस्तकालयों में आग लगा रहे थे और वैज्ञानिक उपकरणों को तोड रहे थे । सरकारी मशीनरी गैर जिम्मेदार हो रही थी । आप सरकारी पदाधिकारियों को कभी भी दिल्ली के गोलचक्करों पर बैठे ताश खेलते देख सकते थे । सारी व्यवस्था दरकने का खतरा पैदा हो गया था । धारिया प्रश्न कम रामधन और पूर्व छात्र नेता चंद्रशेखर जैसे सुधारवादियों ने इंदिरा से जनता मोर्चा की चुनावी जीत से सबक सीखने का अनुरोध किया और राजनीतिक समझौते के अपने आह्वान को दोहराया । आर्थिक और सामाजिक संकट से निपटने के लिए सर्वदलीय संयुक्त पहल होनी चाहिए । ये उनका तर्क था । इंदिरा ऐसा कुछ भी नहीं करने वाली थी । उसके बाद उन्होंने धारिया को ये कहते हुए लिखा, आपका मंत्रिमंडल में रहना अब उचित नहीं होगा क्योंकि आपके विचार अब कांग्रेस पार्टी की सोच से मेल नहीं खाते हैं । धरिया ने उन्नीस सौ पचहत्तर में इंदिरा सरकार से इस्तीफा दे दिया और आवास का लागू होते ही कांग्रेस छोड देने वाले थे । धारिया बाद में इंटरव्यू आपने कहने वाले थे । श्रीमती गांधी किसी भी कीमत पर जेपी से बातचीत के लिए तैयार नहीं थी । उन्हें लगता था कि वे अपदस्थ करके खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे । मगर जेपी वैश्वक कतई नहीं करना चाहते थे । यही बातचीत की मांग करना अपराध माना गया तो मैं वैसा अपराध हजार बार दोहराने को तैयार था । देवी भले ही घरेलू मोर्चे पर युद्धरत थी, लेकिन उन्होंने दुर्गा जैसा और एक काम विदेश में कर डाला । उन्होंने दिखाया कि वह घिरी हैं अथवा नहीं । मगर जब पेक्स इंदिरा लागू हो पडोस में हुक्म उधौली बर्दाश्त नहीं की जाएगी । जब सिक्किम जिस की रक्षा का भार भारत पर था, ये वंशवादी शासक चोग्याल और उनकी अमेरिकी पत्नी हो फूकने अधिक स्वायत्त सिक्किम बनाने की कोशिश शुरू की । इंदिरा गांधी ने चोट की । सिक्किम में लंबे समय से अधिक लोकतांत्रिक सरकार बनाने की मांग की जा रही थी और इंदिरा को लगता था सिक्किम कि जनता को आजाद कराना उनका कर्तव्य था और चोग्याल द्वारा अपनी अलग रहा अपना नहीं । और संभव है चीन से करीबी बढाने की किसी भी कोशिश को शक्ति से दवा ना भी उसमें शामिल था । सिक्किम ने लोकतांत्रिक व्यवस्था समर्थक आंदोलन था । इसमें अनेक भारत समर्थक दल मैदान में थे और सिक्किम नेशनल कांग्रेस जैसे अन्य दल भी थे । सिक्किम में उन्नीस सौ चौहत्तर में चुनाव हुए । चुनाव के बाद जब वहाँ लोकतंत्र समर्थक चोग्याल विरोधी परिणाम आया तो मुख्यमंत्री ने सत्ता संभाली और चौकियाल संवैधानिक राजा हो गए । संसद में सिक्किम को भारत का एसोशिएट स्टेट बनाते हुए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया । हम राइट चोग्याल लें, अपनी हैसियत बचाने के लिए दिल्ली की उडान भरी । अगर वहाँ उन्हें निष्ठुर और निरपेक्ष इंदिरा मिलेगी भारत के हित ताओं पर थे । पर इंदिरा गांधी स्वायत्ता के बारे में सिक्किमी चिंता को मानने को कतई तैयार रही थी । संभावना ये भी थी कि राजनीतिक उठा पटक के बीच इंदिरा ताकत जताने के किसी भी मौके को आसानी से लपक लेंगे । गंगटोक में भारतीय सेना ने आठ अप्रैल को घेराबंदी कर दी । चोग्याल के महल पर पहरा बैठाकर उन्हें नजरबंद कर दिया गया । रायशुमारी की व्यवस्था की गई । चोग्याल और उसके वंश के तीन सौ साल पुराने शासन का अंत हो गया, लेकिन भी भारत में शामिल होकर इसका बाइसवां राज्य बन गया । सिक्किम के भारत में विलय के समय इन्दिरा गांधी पूरी तरह घिरी हुई थी । जेपी आंदोलन तूफान पर था और आर्थिक संकट भारत को हैरान कर रखा था । उसके बावजूद इंदिरा नीत भारत ने जबरदस्त आत्मविश्वास के साथ सिक्किम को अपने भीतर शामिल कर लिया । हालांकि मोरारजी ने जबरदस्ती किए गए इस कब्जे का विरोध किया । पेक्स इंदिरा का करिश्मा पडोस में तो चल गया, मगर देश के भीतर उसे लगाना जा रहा था । उसके शत्रुओं ने उन्हें चक्रव्यूह में घेर लिया था और अनेक नायक कान के समान इसको निर्णायक युद्ध में उसके रखने धोखा दे दिया था । इंदिरा के भी बहुप्रचारित राजनीतिक कौशल ने उन्हें तब था बता दिया था जब उन्हें उस की सबसे अधिक जरूरत थी । दोनों पक्षों के शुभचिंतकों ने इंदिरा गांधी और जेपी के बीच में सुलह सफाई पर जोर दिया और नवंबर उन्नीस सौ चौहत्तर में जाकर उन के बीच बैठक हो पाएगी । लेकिन इंदिरा के मन में जे । पी । के लिए शायद ही कोई जब बच्चे हैं, साल उन्नीस सौ नवासी में उनकी मृत्यु पर वह लिखने वाली थी । बेचारे बूढे जेब में उनका दिमाग कितना बहमत था? जीवन ऐसा कुछ हो गया उस ग्रंथि से ग्रस्त थे जिसे मैं सीधे सीधे गांधीवादी ढकोसला ही कह सकती हूँ । मेरे पिता से ईशानी उनके जीवन को जड कर दिया । सत्तर वर्षीय क्रांतिकारी तथा सर्व सत्तात्मक प्रधानमंत्री के बीच पुराने पारिवारिक रिश्ते थे, जब मेरे अविश्वास के कुहासे के बाद परिवारों के बीच पुराने संबंधों को याद करते हुए बुजुर्ग ने उस महिला की और मैत्री का हाथ बडा इसे में बच्ची के रूप में जानते थे । जेपी ने इंदिरा को गमला द्वारा प्रभावती देवी को लिखे गए पत्रों का संग्रह सौंपा । इसे पाकर इंदिरा ने आभार जताया । बावजूद इसके बैठक बेकार रही और एक क्रुद्ध मुठभेड साबित हुई । इंदिरा ने जेपी पर सीआईए का एजेंट होने का आरोप लगाया । उन्हें वे नाचीज समझते रहे और मानते थे । जहाँ वो हैं, उनका उन्हें कोई हक नहीं था और उन पर आरोप लगाया कि वो सोवियत शैली की तानाशाही भारत पर थोपना चाहती हैं । उनके पास जे । पी के लिए कोई समय नहीं था और उन्होंने उनके जो निर्णय था और गैर जिम्मेदार विचार ठहराये तथा उन्हें अराजकता का सिद्धांतकार बताया । बीजेपी के लिए इंदिरा का व्यक्तिवादी मत और उनकी सर्वोच्च सत्तर असहनीय थे । बैठक बेहद उत्तेजित रुख के साथ खत्म हुई । यूनाइटेड किंगडम में भारत के उच्चायोग और तब भारत आए हुए दी के नेहरू ने । केंद्र सरकार को इंदिरा के डर से निश्चल पाया आ गया । उन्नीस सौ चौहत्तर के अंतिम दिनों का है । वो अपने साथ की संदेश लाए । लॉर्ड माउंटबेटन को इस बात से शिकायत थी उनकी तस्वीर अब राष्ट्रपति भवन में नहीं लग रही । नेहरू ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलकर ये बात बताई । अहमद इस बात से सहमत थे कि माऊंटबेटन की शिकायत जांच थी, मगर उन्होंने मना वो इस बारे में कुछ नहीं कर सकते हैं । उन्होंने बस इतना कहा, शराब उनसे कह दीजिए । उनसे का साफ मतलब इंडिया से था । बाद में मुझे सहयोग से पता लगा । राष्ट्रपति पर प्रधानमंत्री का आधिपत्य इतना अधिक था । राष्ट्रपति भवन का प्रशासनिक भाग भी उन्ही के आधार इंदिरा के नियंत्रण में था । महीनो बाद फखरुद्दीन अली अहमद उसको इंदिरा गांधी का सचमुच वफादार साबित करने वाले थे । जब उनके निर्देशानुसार आपातकाल लागू करने के आदेश पर दस्तखत किए । इसकी प्रतिक्रिया में वो मशहूर कार्टून नमूदार हुआ जिसमें उन्हें आपातकाल की अधिसूचना पर नहाने के टब में बैठे बैठे तश्कर करते हुए दिखाकर राष्ट्रपति पद की गरिमा इस लगते दिखाया गया था । इंदिरा के रेल मंत्री और कांग्रेस पार्टी का चंदा उगाने वाले नेता ललित नारायण मिश्र की जनवरी उन्नीस सौ पचहत्तर में समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर हुए बम विस्फोट में हत्या हो गई । इंदिरा गांधी ने इस कार्यवाही को अपनी हत्या का पूर्वनियोजित अभ्यास बताया । वसंत साठे याद किया मिश्रा की हत्या से वो दहशत ज्यादा हो गई थी । कोई संदेह में लगातार गिरती गई कि उनके शत्रुओं से उनकी जान को खतरा था । मिश्रा की हत्या के लिए कुछ आनंदमार्गियों को अदालत से सजा हुई और इस गुप्त हिंदू संप्रदाय पर अब इंदिरा गांधी को अपदस्थ करने की कोशिश का आरोप लगा था । उनकी अपनी राजनीतिक हत्या के भारत मानव लिखी जा चुकी हो । फरवरी में जेपी ने सेना और पुलिस से अवैध और अन्यायपूर्ण आदेशों का पालन करने से इनकार करने का आह्वान किया । इसी आह्वान को वे ऐतिहासिक दिल्ली में आपातकाल की घोषणा की पूर्व संध्या को रामलीला मैदान की सभा में दोहराने वाले थे । मार्च में जेपी ने संसद तक जुलूस का नेतृत्व किया । लम्बा और भीड बडा जुलूस जो पुरानी और नई दिल्ली की गलियों तक फैला हुआ था और उसके बाद भरी सभा में उन्होंने भावनात्मक सफर में इंदिरा गांधी से इस्तीफा दे देने की मांग के । गुजरात में नवासी वर्षीय मोरारजी देसाई बारह मार्च उन्नीस सौ को नवनिर्माण आंदोलन के समर्थन में अनिश्चितकालीन उपवास पर बैठ गए । उनकी मांग थी राज्य में चुनावों की तिथि घोषित की जाएगी । देसाई ने पत्रकार ओरियाना फलासी से ये बात कबूल की वो तो इंदिरा गांधी से लडाई की शुरुआत थी इसकी मैं उन्नीस सौ से प्रतीक्षा कर रहा था । बहुत पहले से अपने को ना पसंद व्यक्ति की मृत्यु की आशंका खडी होने पर इंदिरा ने जून में गुजरात में ताजा चुनाव कराने की हामी भर दी जिसमें जनता मोर्चा ने कांग्रेस को भारी शिकस्त दी । गुजरात में जनता मोर्चा की जीत के दिन है । इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन की सबसे कठिन घडी आन खडी हुई है । इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा नहीं बारह जून को यह फैसला सुनाया । इंद्रा अपने चुनाव में धांधली के लिए दोषी थी कि मुकदमा रात नारायण ने दायर किया था जिन्हें भारत का क्राउन प्रिंस कहा जाता था । सिर पर हरा पटका बांधे समाजवादी नेता राजनारायण को इंदिरा ने में रायबरेली में हराया था । उन्होंने ही इंदिरा हटाओ नाराज खडा था । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी की जीत को निरस्त कर दिया और उनके चुनाव लडने अथवा निर्वाचित पद संभालने पर छह साल के लिए रोक लग गई थी । जांच के आधार पर अदालत में पाया उनके निजी सचिव यशपाल कपूर नहीं चुनाव के दौरान उनके एजेंट के रूप में काम किया था । तब तब उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा भी नहीं दिया था । अदालत में ये भी पाया कि इंदिरा ने उन्नीस सौ इकहत्तर की चुनावी सभाओं के लिए मंच बनाने और लाउडस्पीकरों के लिए बिजली उपलब्ध कराने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के कर्मचारियों की सहायता का प्रयोग किया था । फैसले के परिणाम तत्काल जगजाहिर थे । उन्हें इस्तीफा देना पडेगा । बावजूद इसके आरोप इसकदर सबहि थे । इधर टाइम्स लंदन अखबार ने लिखा, ये तो प्रधानमंत्री को यातायात नियम के उल्लंघन के आरोप में बर्खास्त कर रहे जैसा था । हमारे नेता आजकल जिन आरोपों से घिरे रहते हैं उनकी तुलना में तथा उनके द्वारा चुनाव में सरकारी मशीनरी के खुलेआम दुरुपयोग के मुकाबले प्रधानमंत्री को इस आरोप में इस आधार पर बर्खास्त कर दिए जाने से उन्होंने स्थानीय लाउडस्पीकरों और मंचों का प्रयोग किया । ना दरअसल ये लगेगा कि अपराध की तुलना में मिली सजा में कोई तालमेल नहीं था । आरोप बेशक छुटपुट थे मगर इंदिरा गांधी पर भारी नैतिक दायित्व पडा था । इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला जिस दिन आया उसी दिन उनके लिए मनहूस खबर भी आई । गुजरात विधानसभा चुनाव में जनता फ्रंट नहीं कांग्रेस को धूल चटा दी थी । बारह जून उन्नीस सौ पचहत्तर इंदिरा गांधी के लिए कतई अच्छा दिन नहीं था । डॉक्टर बात और कहते हैं और वो भी जब फैसला सुना तो बेहद परेशान हुई क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं था कि मुकदमा उनके खिलाफ जा रहा था । उन्हें एक बार अदालत ने बुलवा भेजा था और राज नारायण के वकील शांतिभूषण ने उनसे जिरह की थी । तो इस प्रकार के मुकदमे में बयान देने के लिए अदालत में बुलाई गई पहली प्रधानमंत्री थी शांतिभूषण के पुत्र और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण । याद करते हैं कि वे जब अदालत में मई तो आरंभ में बहुत धीर गंभीर थी लेकिन सिर्फ के दौरान कुछ बेचैन और उद्विग्न हो गई । प्रशांत ने इस मुकदमे के बारे में पुस्तक भी लिखी । भूषण कहते हैं, जिन्हें सफलतापूर्वक मगर कडाई से की गई और उसके खत्म होते होते इंदिरा गांधी संतुष्ट । देखिए, इस तरह निष्पक्ष थी आरोप हल्के फुल्के रहे हो अथवा नहीं मगर उनके पिता ऐसी स्थिति में क्या करते हैं, संस्थाओं को पोषित करने पर डटे रहे । नेहरू ऐसा फैसला आने पर शायद तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे देते हैं । हमने ये देखा दी है । नेहरू ने इस से कहीं कम गंभीर निजी आरोप लगने पर अपने प्रधानमंत्रित्व के दौरान तीन बार त्यागपत्र देने की मंशा जाहिर की थी । लेकिन इंद्रा अपने शत्रुओं से अपने को बचाने में लगी हुई थी जिन्हें उन्होंने भारत का दुश्मन करार दिया हुआ था । ऐसी राजनीतिक संस्कृति खडी करने की राह पर अग्रसर थी जिसमें संस्थाएं रोडा समझी जाती थी की संस्कृति चारों तरफ फैली हुई है । इसमें व्यक्तिवादी शासन का अर्थ है ना सिर्फ कानूनों के प्रति निरादर बल्कि नैतिक मूल्यों के प्रति भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय ने इंदिरा विरोधी आंदोलन को मजबूती दे दी । उन्हें अब लगने लगा कि उनके पास तत्काल इस्तीफा देने के अलावा कोई रहा नहीं । उनके विरोधी तो बिना देर किए उनसे बहुत छुडवाने पर डटे थे । मगर वे अपनी लोकप्रियता के लिए आश्वस्त रही । संकट और परेशानियों ने मानो उन्हें हमेशा मजबूत बनाया था और अब उन्होंने जितना अधिक उन पर इस्तीफे का दबाव डाला उतना ही अधिक रक्षात्मक और ऍम उनके भाषणों में सुनाई पडने लग गई । पखवाडे भर के भीतर ही भारत की देवी इतनी जबरदस्त तैयारी के साथ भारी जवाबी वार करेंगी । उनके प्रतिद्वंदी आत्म समर्पण को मजबूर हो जाएंगे और ये समझ ही नहीं पाएंगे वे किस चीज की चपेट में आ गए । दुर्गा अपना गुस्सा सनसनीखेज और पूरी तरह अप्रत्याशित तरीके से जब आएंगे । हालांकि फैसला सुनाए जाने के तत्काल बाद लोग उस गर्म दोपहरी नहीं, सब नहीं और विकल्पहीनता के भर में डूब गए । ऐसी खबरें आने लगी कि एल एन मिश्रा की हत्या के कथित आरोपी आनंद मार्गियों का ही इस मामले में हाथ है । सुधार शंकर रहने उसी साल जनवरी में लिखा था कि आनंद मार्गियों और आरएसएस के सदस्यों की सूचियां हर राज्य को बनानी चाहिए क्योंकि उन्हें डर था कि वे इंदिरा को अस्थिर करने का षड्यंत्र कर रहे थे । प्रधानमंत्री निवास में गतिविधियां तेज हो गई । पश्चिम बंगाल के चुस्त दुरुस्त मुख्यमंत्री और इंदिरा गांधी के पुराने मित्र थे । उनके अनुरोध पर फटाफट दिल्ली आ गए । वकील होने के साथ साथ रही क्रिकेट और टेनिस खेलने की शौकीन थे । उनके सलाहकार अपनी अपनी सलाह लेकर उनके चारों और जमा हो गए । अपने पद से इस्तीफा नहीं देने की प्रेरणा इंदिरा को कैसे हुई, उसके कारण और व्याख्याएं बताई गई हैं । इस्तीफा देना चाहती थी अथवा उन्होंने वैसा जहाँ ही नहीं प्रधानमंत्री सचिवालय पूर्व संयुक्त सचिव बीएन टंडन ने अपनी डायरी में लिखा है कि जल्द ही साफ हो गया पीएम को इस्तीफा देने की कभी इच्छा नहीं थी और नहीं वो ऐसा करने जा रही थी । मुझे लगा कि वे सत्ता में बरकरार रहने का कोई भी साधन अपनाने से नहीं चूकेंगे । ऐसा लगता है कि उन्होंने खुद को समझा लिया । फैसला उनके विरुद्ध नहीं बल्कि देश की जनता के खिलाफ है । पीएम की सोच में हरसंभव साधन अपनाना उचित है । मेरी उससे सप्ताह में बने रहने में मदद मिलती हो तो रहने बाद में याद किया । उनकी पहली इच्छा तो पद छोड देने की ही हुई थी । रे के तत्कालीन सचिव भास्कर होश याद करते हैं । मैंने कहा इंदिरा पद छोडने पर अटल थी । उन्होंने मनी मनी तय कर लिया था । उन्होंने इसे तब बदला जब कांग्रेस के बुजुर्ग नेता जगजीवन राम ने कहा कि मैडम आप इस्तीफा बिलकुल भी मत दीजिए क्योंकि यदि आप देती हैं तो रुपया आपने उत्तराधिकारी का चुनाव हम पर छोड दें । उनकी इतना कहते ही उनकी भाव भंगिमा बदल गई और उनकी मंशा का उन्हें अहसास हो गया । उनकी आंख में दृढ निश्चय की चमक आ गई । उन्हें लग गया कि इस्तीफा देते ही वे सत्ता से पूरी तरह हाथ धो बैठेंगे । अच्छा तो ये है कि कांग्रेस के दिग्गज जो बाद में इंदिरा का साथ छोड देने वाले जगजीवन राम ने साफ कह दिया था, उनकी वफादारी सिर्फ इंदिरा के लिए आरक्षित थी । यदि किसी अन्य उत्तराधिकारी का प्रश्न उठाया तो उन्होंने बताया कि उनका दावा कहीं अधिक प्रबल था । जय कर का मानना है कि इस मोड पर संजय की इच्छा सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी । फैसले के दिन करके अपने कारखाने से संजय जब घर लौटा, उसने गुस्से में दावा किया उसकी माँ द्वारा इस्तीफा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता । उसका दावा किया था कि अभी जो लोग वफादारी की कसम खा रहे हैं, बाद में उनकी पीठ में छुरा भाव देंगे । मेनका गांधी की व्याख्या अलग है । आम धारणा के विपरीत आपातकाल का रचियता संजय कतई नहीं थे । ये तो सुधर शंकर रही । यानी कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ । कांग्रेस के नेता केसी पंत मुट्ठीभर वामपंथियों का जोशीला समूह ही थे, जिन्होंने उन्हें उकसाया और उकसाते रहे । उन्हें सबसे पहले ये सूची बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाया जाए और अपना मामला सुलझने तक इंतजार किया जाए । लेकिन उनके मन में उन्होंने ये कहकर डर बैठा दिया यदि एक बार आपने प्रधानमंत्री का पद छोड दिया, आपको ये फिर कभी वापस नहीं मिलेगा । वो आपको निपटाकर ही दम लेंगे । पेशी लिए पद पर डटी रही । मेरी सांस का सबसे बडा गुण ये था कि उनके भीतर अदम्य जिजीविषा थी । वो इस बात को भी शायद डरी होंगी । उन के बाद जो कोई भी पद संभालेगा उन्हें सत्ता से दूर रखने के लिए । संजय के खडे मुर्दे उखाडेगा । धवन कहते हैं, वे सौ फीसद अलोकतांत्रिक थी और वो बार बार इस्तीफा देने को कहती रही, लेकिन अन्य सब पर हुआ । जगजीवन राम उन सब ने कहा कि उन्हें वैसा नहीं करना चाहिए । उन पर भी दबाव डालते रहे । उन्होंने इस बाबत बयान भी दिया था । वफादारी की प्रतिज्ञा इसे पीएन हक्सर ने लिखा था । जॉब किनारे करके योजना आयोग ने डाल दिए गए थे और उनके मंत्रियों ने उस पर दस्तखत किए थे । अपनी वफादारी जताने के लिए टीके भरवाने नाटकीय ढंग से नारा लगाया इंदिरा इस इंडिया इंडिया इज इंदिरा टू आॅल इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है । दोनों अविभाज्य हैं । वो दावा करेंगे कि पद पर बने रहने का कारण और कुछ नहीं । बस आत्मा की आवाज जनता के प्रति अपने कर्तव्य के पालन और विदेशी षड्यंत्रकारियों को नाकाम करने की भावना थी । बहुत कहती थी कि वे महज पद के लिए सत्ता से नहीं चिपकी रही थी, बल्कि इसलिए रही कि आरोपी मामूली थी और उन्हें हाथ पर हाथ धरकर बैठने से पहले बहुत सारे काम करना चाहिए । मुझे यदि प्रधानमंत्री बने ही रहना होता हूँ । मेरा गुजारा तो पार्टी के आपका लोगों के इशारों पर नाच कर भी चल जाता है । वो कभी भी मेरे द्वारा सत्ता छोडने के पक्ष में नहीं होते हैं । मैं तो आजीवन प्रधानमंत्री बने रहेंगे । जेपी आंदोलन और उसकी वजह से उनके खिलाफ उठ रही आवाजों के संदर्भ में देखें तो इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला तूफानी रात में उनके चरणों पर बिजली गिरा देने के समान घातक था । उस मौके पर अपनी माँ के रक्षक की भूमिका बेटे ने निभाई । मेरी कहानी याद किया संजय अभी तक तो पूरी तरह राजनीतिक हैं लेकिन जब जेपी आंदोलन फैलने लगा और फैसला आया तभी उन्होंने अपना कदम इस और बढाया । बेटा अपनी माँ का संरक्षक बन गया । किसी पर भरोसा ना करते हुए भावी धोखेबाजों से घिरे हुए उन्होंने अपने वफादार उद्दंड बच्चे को कसकर पकड लिया और किसी अन्य सलाह से अधिक उसके शब्दों को महत्व दिया । इस समय उनका व्यवहार नेहरू की फितरत के विपरीत उन्होंने अपने सबसे कमजोर छडों में भी शायद ही कभी सलाह लेने के लिए अपनी बेटी का मूड जो हुआ होगा । उन्होंने हालांकि अपने पिता के एकदम विपरीत गहन राजनीतिक संकट के क्षणों में अपने ही छोटे बेटे के अलावा अन्य किसी को भी अपना विश्वासपात्र नहीं समझा । वो अपने मन में अपनी माता के सभी सहकर्मियों से जबरदस्त नफरत करता था क्योंकि उसे लगता था कि भी उसके साथ नहीं थे और मारुति का उन्होंने पूरी शिद्दत से समर्थन नहीं किया था । ये समझकर की राजनीतिक सत्ता परिवर्तित होते ही वो और उसकी मारूति परियोजना गंभीर राजनीतिक संकट में फंस जायेंगे । उसे अपनी सुरक्षा के लिए भी सरकार में अपनी माँ के बने रहने की जरूरत थी । उसके बदले उन्होंने उसे अपनी ढाल बना लिया । मानव वही उनका संकटमोचक हो । एक दूसरे को बचाते हुए माँ और बेटे ने गहराते अंधेरे का मिलकर मुकाबला क्या? बीएन टंडन लिखते हैं, कानूनी पक्ष जो भी हो, फैसले के नैतिक आधार की जांच करने का साहस किसी के भीतर दिखाई नहीं दिया । पीएम की कृपा से इन पिछले पांच सालों में नैतिक मूल्यों और मापदंडों का समूचा अवमूल्यन हो गया । इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सलाह ने बारह जून के अपने मूल निर्देश में फैसले पर बीस दिन की स्वयं ही रोक लगा दी थी । के सरकार उस बीच इंदिरा का उत्तराधिकारी नियुक्त कर ले । इंदिरा ने जून को सुप्रीम कोर्ट में अपील की और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर मिशन और संपूर्ण रोक लगाने की यात्रा की । सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति वी । आर । कृष्ण अय्यर नहीं जून को सशर्त रोक लगाई । पद पर बनी रह सकती थी । मगर अपनी अपील के निपटारे तक संसद में मतदान नहीं कर सकती । इसके कारण थे निष्क्रिय आधी अधूरी नाम भर की प्रधानमंत्री विपक्ष किसी भी कीमत पर अदालत में उन के मामले को आगे नहीं बढने देना चाहता था । उनके आगे कोई बंदा नहीं थी । जेपी कि सेना इंद्रा को हटाना चाहती थी और तत्काल हटाना चाहती थी । मोरारजी ने ओरियाना फल बच्ची को बताया की दिल्ली की रामलीला मैदान में उनकी पच्चीस जून की प्रस्तावित सभा के मौके पर हम वहाँ दिन और रात धरना देंगे । हमारी मंशा उन्हें उखाड फेकने की है । इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने की है । ये ते है लेडी हमारे इस आंदोलन के सामने टिक नहीं पाएगी । सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले संजय और धवन उनके घर के आस पास इंद्रा समर्थक प्रदर्शन करवा रहे थे और कांग्रेस ने उनके समर्थन में लगातार सभाएं आयोजित की । संजय ही सब कुछ देख रहे थे । इनमें सबसे बडी और सबसे असरदार सभा दिल्ली के बोट क्लब पर हुई जहां भारी संख्या में आए लोगों ने उनके समर्थन में नारे लगाए । बीएन टंडन अपनी डायरी में लिखते हैं, आई के गुजराल से मुझे आज पता चला संजय ने उन्हें बुलाकर कडी फटकार लगाई थी क्योंकि कल की सभा का ढंग से प्रचार नहीं किया गया तो इस बात से नाराज हैं । पीएम के समर्थन में जारी अभियान को समुचित प्रचार नहीं मिल रहा । अगर अपमानजनक दृश्य की गवाह है जहाँ गुजराल पढ संजय जोर से चलना है । संजय गुस्से में थे और सभाओं के आधे अधूरे प्रचार के लिए गुजराल पर चलाए । गुजराल ने अपमानित तो महसूस किया मगर बोल ही भी नहीं । संजय के वहाँ से जाने के बाद हमने एक दूसरे की और देखा और हाथ जोडकर मैंने आसमान को । ताजा आपातकाल की घोषणा के बाद इंदिरा ने आई के गुजराल को संजय की सिफारिश पर सूचना और प्रसारण मंत्री के पद से हटा दिया और उनकी जगह विद्याचरण शुक्ला को नियुक्त कर दिया । शुक्ला वही व्यक्ति थे जिन्हें इंदिरा का कोई बस बुखार आ गया । गोयबल्स नाजी प्रचारमंत्री था । इंदिरा गांधी ने पच्चीस जून की सुबह रहे से कहा था, हम गंभीर संकट से घिरे हैं । गुजरात के विधानसभा भंग है । बिहार की भी भंग है कि सिलसिला नहीं हो जाएगा । लोकतंत्र हो जाएगा । उस कठोर आपात कार्रवाई बेहद जरूरी है । उन्हें भले ही अभी तक अनुच्छेद तीन सौ बावन की जानकारी नहीं रही, लेकिन आपात कार्रवाई से उनका मतलब लोकतंत्र बचाने के लिए तत्काल कोई उपाय अपनाने से था । आपातकाल को सही ठहराने के लिए बहुत खतरे में लोकतंत्र जुमला ही प्रयोग करती थी । उनके दृष्टिकोण से उन्होंने लोकतंत्र का अपहरण करके भारत के लोकतंत्र की रक्षा की थी । रे ने तब उन्हें समझाया कि संविधान में उल्लिखित अनुच्छेद तीन सौ बावन के अंतर्गत विदेशी हमले अथवा आंतरिक अशांति फैलने की सूरत में केंद्र सरकार राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति लागू कर सकती है । रामलीला मैदान में विपक्षियों की सभा ने इंदिरा को यह बहाना दे दिया जिसकी उन्हें तलाश थी । खुफिया अधिकारियों ने पहले ही बता चुके थे दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी उस शाम सेना और पुलिस वद्र हो कर देने का आह्वान करेंगे । उन्होंने वही किया था । रामलीला मैदान में पच्चीस जून की शाम अभूतपूर्व भीड जमा हुई । जेपी ने जब रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्तियां पडी सिंहासन खाली करो कि जनता आती है उनका भरी जयजयकार हुआ । जेपी ने पहले भी किए गए आह्वान को दोहराया की पुलिस और सेना को अवैध ऍम और संवैधानिक आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए । जेपी ने जैसे ही इंदिरा से तत्काल पद छोडने को कहा, इतने समर्थन में उन कार भरी इंदिरा बाद में कहेंगे । उन्होंने पुलिस और सेना को उनके कर्तव्य से विमुख करने की कोशिश की थी । क्या कोई देश सशस्त्र सेनाओं से विद्रोह करने के आह्वान को बर्दाश्त करेगा? इंदिरा गांधी का स्पष्ट मत्था जेपी का आह्वान सरकार की संप्रभुता के विरुद्ध आंतरिक हमला था । भारत की संप्रभुता पर गृहयुद्ध का खतरा पैदा किया जा रहा था । कुंभ कपूर ध्यान दिलाते हैं आपातकाल को सही ठहराने के लिए श्रीमती गांधी ने जे । पी । के शब्दों को बाद में बार बार उद्धृत किया । मगर तथ्य तो यह है कि आपातकाल की तैयारियाँ कई महीने पहले से नियोजित की जा रही थी । आपातकाल जैसी कार्रवाइयों पर लगभग एक साल से विचार चल रहा था । ऐसा सिद्धार्थशंकर रे द्वारा किए गए इंटरव्यू से जाहिर हुआ । उन्होंने कहा कि बहुत पहले अगस्त उन्नीस सौ चौहत्तर में ही उन्होंने इंदिरा गांधी को ये कहते हुए लिखा था वे असामाजिक तत्वों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे थे । हालांकि उन्हें पता था इससे कठिनाई पैदा हो सकती थी । दरअसल उन्नीस सौ साठ के अंतिम वर्षों और उन्नीस सौ सत्तर के दशक के आरंभिक वर्षों में नक्सलवादियों के विरुद्ध उनकी सरकार द्वारा ये जा रहे कठोर और नृशंस उपायों का जिक्र कर रहे थे जब उन पर मानव अधिकारों के अंधाधुंध उल्लंघन का आरोप लगा था । इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रही हूँ में पच्चीस जून की शाम को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने गए । उन्होंने राष्ट्रपति को बताया, देश की संप्रभुता को क्योंकि प्रत्यक्ष खतरा पैदा हो गया था, इसलिए आंतरिक आपातकाल लागू करना जरूरी था । उसी रात में आपातकाल लागू करने का अध्यादेश राष्ट्रपति के दस्तखत करने के लिए राष्ट्रपति भवन भेजा गया । आधी रात से कुछ मिनट पहले पच्चीस जून को राष्ट्रपति ने अध्यादेश पर दस्तखत किए । भारत गणतंत्र अब आपात स्थिति में था । आपातकालकी उचित ही कडी निंदा हुई । मगर जयप्रकाश के आंदोलन पर भी सवाल उठे । निर्वाचित सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह की अवधारणा क्या परिभाषा के लिहाज से अमान्य हैं? गुहा ने एक पूर्व आईसीएस अफसर द्वारा जेपी को लिखे पत्र का उल्लेख किया है । इसमें लिखा था, निर्वाचित विधानसभा को बर्खास्त करने की मांग करने के कारण बिहार अनुरंजन असंवैधानिक ऍम अलोकतांत्रिक दोनों है । सत्याग्रह आखिरकार उपनिवेशवादी शासन के खिलाफ गांधी का हजार था । इसका मकसद जनता द्वारा निर्वाचित लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रयोग किया जाना नहीं था । हडतालों सत्याग्रह हूँ । व्यापक नागरिक अशांति और पुलिस से नागरिक अवज्ञा के आह्वान से घिरी सरकार क्या अपना इकबाल को लागू करने के लिए कार्रवाई करने को कर्तव्य से भरी हुई नहीं है? इंदिरा गांधी के पास क्या उन प्रावधानों को थोपने के अलावा कोई रास्ता नहीं था जिन्हें उन्होंने लोकतंत्र का सिर्फ अस्थायी निलंबन बताया था? उन्होंने बाद में कहा, मैंने आपातकाल को दवा के समान बताया था । यदि कोई व्यक्ति बीमार है तो आपको उसे दवा खिलानी पडती है । इसे व्यक्ति भले पसंद ना करें, मगर उसके लिए वो आवश्यक है । जेपी ने जब घोषणा की निर्वाचित सरकार शासन का अपना नैतिक अधिकार हो चुकी है, तो क्या वे ऐसी भयावह परिपार्टी की बुनियाद नहीं डाल रहे थे? इसके जरिए मतदान पेटी से निकले जनादेश के बजाय नारों और जुमलों से उकसाई गई जनता की क्षणिक मांग के द्वारा निर्वाचित सरकार को अब उखाडकर फेंका जा सकता था । अगर हम यह स्वीकार भी कर लें, बीजेपी के नेतृत्व वाला आंदोलन लोकतांत्रिक नहीं था, तो इंदिरा ने भी अपनी तरफ से इसे समझने में काम अगली दिखाई । विपक्ष उनके प्रति इतना अधिक आक्रमक कैसे हो गया? उन्होंने सत्ता के प्रयोग हो, अपना अधिकार जारी रखने के साथ भ्रामक रूप में घालमेल कर दिया । लेकिन उन्होंने अपने नैतिक इकवाल को भी संजय की गतिविधियों द्वारा धीरे धीरे और खतरनाक रूप में छीजने दिया । संजय को अपने द्वारा खुला संरक्षण नहीं नहीं और आंदोलनकारियों के साथ कोई समझौता करने अथवा ये दिखाने से इनकार करके अपने नैतिक बल को कमजोर क्या वे उनकी शिकायतों को समझने का प्रयास कर रही थी? चार । दा प्रसाद लिखते हैं, आपातकाल का सहारा इसलिए लेना पडा क्योंकि सत्याग्रह का कोई तोड सरकारों के पास नहीं है । सत्याग्रह की शक्ति से भलीभांति परिचित थे । सत्याग्रह के प्रति सरकारी जवाब बल प्रयोग होता है । इसका सहारा तब भी लेना पडता है, जब सरकारों को अपनी नैतिक उपयुक्तता बहाल करने की और कोई रहा नहीं सोचती । इंदिरा के पक्ष का मत था कि जेपी आंदोलन का कोई जमीनी आधार नहीं था कि आरएसएस और जनसंघ द्वारा शुरू किया गया अभियान था तो जितनी तेजी से शुरू हुआ था, वैसे ही बिखर गया । अंत में जनता क्रांति इसके नेताओं को लील जाएगी और बिजली की कौन सिद्ध होगी और इंदिरा गांधी भी सकती हुई तानाशाह के रूप में प्रकट होंगे । दोनों पक्षों की ओर से ये हिचक ही परिस्थिति को बचा पाया, यदि जनशक्ति निर्वाचित प्रधानमंत्री को पदच्यूत कर दे दी अथवा इंदिरा लोकतंत्र को हमेशा के लिए खत्म कर देती है । भारत अकल्पनीय संघर्ष के चक्रव्यूह में फंस जाता । आपातकाल हालांकि मूलपाठ था, मगर सिर्फ जन दबाव के माध्यम से निर्वाचित सरकार को गिराने वाले लोग भी कोई लोकतंत्र के मसीहा नहीं कहना सकते । ऐसा कहा गया जहाँ दस की जरूरत होती थी वहाँ सौ इकाइयों का बाल लगा देने की । इंदिरा गांधी की आदत का ही नतीजा था । आबादकार इंदिरा ने बाद में सवाल पूछे जाने पर आपातकाल के समर्थन में अनेक कारण गिनाए और उसके आरंभिक महीनों में उन्हें भरोसा था । ये बेहद फायदेमंद था । उन्होंने लिखा, गृहयुद्ध की कोई घोषणा नहीं की गई की सच है कि मैंने आपातकाल लगाया है और जयप्रकाश नारायण तथा मोरारजी देसाई सहित अनेक विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया है । जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में सभा संबोधित की । इसमें उन्होंने सेना और पुलिस से सरकार के हुक्म उगली की अपील की । इसे कोई सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकती । इंदिरा की घनिष्ठ मित्र जयकर आपातकालकी जबरदस्त आलोचक थी । विषेशकर प्रेस पर सेंसरशिप थोपे जाने की । उन्होंने उनसे पूछा, हम जवाहरलाल नेहरू की बेटी इसकी अनुमति कैसे दे सकती थी? इंदिरा ने जवाब दिया, मेरे खिलाफ षडयंत्रों से तो मन जान हो । जयप्रकाश और मोरारजी भाई को मुझसे हमेशा नफरत रही है । हमेशा मुझे बर्बाद करने के लिए उतावले हो रहे थे । उनका रुख लगातार यही रहा । लोकतंत्र आंदोलनकारियों के कारण खटाई में पड रहा था, न कि उनके कारण और उन्होंने तो बल्कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए कार्रवाई की थी । उससे कहेंगी राष्ट्र के नाम प्रसारण ने सत्ताइस जून की रात को मैं नहीं आपातकाल लागू करने का कारण बता दिया । हिंसा और घृणा का वातावरण पैदा कर दिया था । उनमें से एक नहीं यहाँ तक कह दिया कि हथियारबंद बलों को उन आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए जिन्हें गलत समझते हैं । आपातकाल लागू होने के बाद से समूचे देश में हालात सामान्य है । हिंसक कार्यवाही और देश दोपहर के सत्याग्रह ए तो समूचे प्रतिष्ठान को धराशायी कर देंगे । इसे इतने परिश्रम और आशाओं के साथ इतने वर्षों में निर्मित किया गया है । मुझे भरोसा है कि आपातकाल को जल्द ही समाप्त कर देना जरूर संभव होगा । आप जानते हैं कि प्रेस की आजादी में मेरा गहरा विश्वास रहा है और आज भी है । मगर अन्य सभी स्वतंत्रताओं की तरह इसका प्रयोग भी जिम्मेदारी और संयम के साथ होना चाहिए । वो आगे कहीं जरा सोचिए, यदि हम लोगों तक खाद्यान्न नहीं पहुंचा पाते तो क्या होता है? तो यही कहते हैं सरकारी चंद्र निकम्मा है, इसलिए इसे हटना चाहिए । लोकतंत्र प्रणालियों को पहले भी इसी प्रकार हटाया गया है । इसीलिए हमने तो दर्शन लोकतंत्र को बचाया है । उसके घनिष्ठ लोगों का ये मानना है कि उन्होंने आरंभ से ही डटकर हालांकि से सही ठहराया । मगर इंदिरा इस फैसले से पूरी तरह सहमत नहीं थी । भगत लिखती हैं, श्रीमती गांधी दुविधा में कोई काम डाल सकती थी, मगर वह चतुर और अनुभवी व्यक्ति थी और कभी कभी जल्दबाजी में धडाधड फैसले करने के बजाय बेहतर है की दुविधा नहीं । उन पर विचार किया जाए । शायद उनके राजनीतिक जीवन के दो अत्यंत फॅालो आपातकाल और ऑपरेशन ब्लूस्टार के मामले में श्रीमती गांधी की अपनी निजी शैली में नहीं लेने दिया गया । प्रिया श्रीमती थी । आपातकाल घोषित करने के अलावा कोई चारा नहीं था । नहीं, आपने जब इस्तीफा देने का फैसला किया तो और कोई विकल्प नहीं था । लेकिन आपके लंबे राजनीतिक अनुभव की बदौलत क्या आप ये पूर्वानुमान नहीं कर पाई कि संविधान को निलंबित करने का भारत पर क्या असर पडेगा? अपने बेटे संजय को आपके द्वारा खुलेआम बढावा देने के कारण जनता की नजरों में आपके इकबाल पर भारी पहुंचाई, उसके बावजूद आपने शाही आत्मविश्वास के साथ लोगों से उम्मीद की कि वह माँ और बेटे की गलतियों को चुप चाप कबूल कर लें । आप ने ये सोचा कि आप जो भी करेंगी उसे जानता, आंख मूंदकर मान ले कि क्योंकि आप इंदिरा गांधी थी । आपके सहयोगियों ने जवाब से शक्ति के प्रयोग नहीं, संयम बरतने और आपके विरोधियों से बातचीत की कोशिश करने का अनुरोध किया । तो आपने सुपाय को एक बार भी नहीं अपना क्योंकि आपको ये विश्वास था कि आंदोलन निराधार था । इसके बजाय आपने होटल ता की राह अपनाई । पुराने राजनीतिक सहयोगियों को बहुत गंदे भीड भरे कैदखानों में डाल दिया गया । आपने ऐसा कहा साधारण अपराधों के लिए गिरफ्तार लोग ये मान रहे थे कि वो राजनीतिक बंदी थे लेकिन एल के आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी विजय राज्य संध्या को कैद में रखने का । इसके अलावा भी कोई अन्य कारण था कि वो जनसंघ के नेता और आपके राजनीतिक धुरविरोधी थे । यदि आप इस्तीफा देना चाहती थी तो आपने अपनी इच्छा को दूसरों की बातों में आकर बदल कर दिया । आप संजय की गतिविधियों पर पडता डालने और उसे बचाने की साफ साफ कोशिश कर रही थी । आप भलीभांति जानती थी, उसकी कारगुजारियों पर नई सरकार क्या रुख अपनाएगी? आप विपक्ष को सबका प्रदान करने देने से रोकने को उत्तर थी क्योंकि आपकी ये धारणा थी कि वे भारत और संजय दोनों को बर्बाद कर देंगे । आपने डर था यदि आपने पत्या किया तो नेहरू हराना हमेशा के लिए सभा हो जाएगा । आपातकाल की कहानी अक्सर सुनाई गई है और उचित रूप में अंधेरे पक्ष सहित विपक्षियों को जेल भेजने, प्रेस का गला घोंट नहीं, जबरदस्ती नसबंदी अभियान चला नहीं और झोंपडपट्टी हटाने की मुहिम के भारत भारत में आजादी के बाद बने इतिहास पर खुली हुई है आपातकालकी कठोर छवियां उन लोगों के लिए मैंने तो तुम से पहले ये कहा था तो हराने की घडी चाहिएँ लोकतांत्रिक रिवायत भारत में लंबी नहीं चल पाएगी और फॅमिली की सरकार यहाँ के अनुकूल नहीं थी । महात्मा गांधी ने समूची आबादी के भीतर व्यक्तिगत आजादी की चाहत जगह दी थी । नहर उन्हें अपना बौद्धिक आधार कैम्ब्रिज और हैरो में होने के कारण ये सपना देखा था । भारत भी अंग्रेजी लोकतंत्र का संस्करण सब हो सकता था । अंबेडकर ने गणतंत्र के संविधान को प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन पर आधारित करके कलमबद्ध किया था । पटेल ने भारत को भौगोलिक रूप में संगठन किया था, जिसमें उत्तर अधिकारवादी राजाओं को जनता की संप्रभुता के प्रति जवाबदेह बनाया गया था । इसके बावजूद स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की साहसिक और पे बात तस्वीर बनाने के लिए तरक्की की तो सभी हुई कुछ ही चली गई । वो टकरावों अनसुलझी असमता हूँ और जागरूकता के गहरे अंतर के उतार चढावों के एक उथल पुथल भरे नक्शे पर चलेगी और उसे ताजा रंगाई तथा मजबूत आदर्शवाद की खुराक चाहिए थी, ताकि उस आकृति की पहचान, ताजगी और अपील बनी रहे । इंदिरा गांधी के भारत ने उस निर्भीक कम विश्वास से लबालब पेंटिंग की जगह पर सत्ता और साजिशों की लक्ष्यहीन टुटपुंजिया चित्रकारी चस्पा कर दी थी और आपातकाल ने हम तथा उस साहसिक तस्वीर के कैनवास को ही जितने जितने कर दिया और धूल के बवंडर में पड पडा था, छोड दिया । महात्मा गांधी ने जहाँ अपने अनुयायियों से अपने आप को पृष्ट बनाने को सत्य और अहिंसा के निजी प्रतिमानों की ऊंचाई को छूने को कहा था वहीं इंदिरा ने उन्हें चूर चूर करने वाले लोकलुभावन करतबों की नींव डाली व्यक्ति की निकृष्टतम अनुभूतियों से अपील के लिए जहाँ गरीबी हटाने के सरलीकृत संदेशों ने उन उच्च आह्वानों को मिटा डाला हूँ जिन्होंने गांधी भारतीय लोकतंत्र की निशानियां मानते थे । स्वतंत्रता संग्राम ने बडी संख्या में राजनीतिक योग्यता वाले लोगों को तैयार किया था क्योंकि उन गुलाम लोगों के बीच मौजूद पढे लिखे लोगों ने अपने विचारों को आगे आकर आजमानी का साहस दिखाया था । मगर मुझे सोच और अभिव्यक्ति के प्रति इंदिरा गांधी के अविश्वास नहीं, कांग्रेस में अपना भविष्य तलाश नहीं हो, उत्सव पूछी, उपलब्धि वाले लोगों का रास्ता रोक दिया जबकि नेहरू युग में वैसे अनेक लोगों ने कांग्रेस को अपना था । आपातकाल के दौरान भारत के सबसे मेधावी राजनीतिक व्यक्तित्वों को बडी तादाद में सलाखों के पीछे जीवन गुजारना पडा । शिक्षित और योग्य लोगों के पेशे के बजाय राजनीति के दरवाजे जल्द ही वैसे लोगों के लिए बंद हो गए । सार्वजनिक जीवन की एकमात्र योग्यता कातर वफादारी को मानने से राजी नहीं हुए । उनके सामने उन्नीस सौ इकहत्तर में सुनहरा मौका था, जब वे जबरदस्त जनादेश के बूते उदारता की राजनीति की शुरुआत कर सकती थी । लेकिन जनादेश और सैन्य विजय को अपनी निजी उपलब्धि कि भारत की एकमात्र उम्मीद वही थी, मानकर वो अपने पिता की सामंजस्य वादी राजनीति पर अमल करने से अथवा ऐसे युग का विस्तार करने में चूक गई, जिससे वे नेहरूके साहसिक संविधानवाद की योग्य उत्तराधिकारी साबित हो पाती है । उनके द्वारा प्रिवीपर्स खत्म करने और महारानी गायत्री देवी को बंदी बनाने से नाराज माउंटबैटन नहीं, जैसा अपनी डायरी में लिखा भी उस शब्द के साधारण मायनों में तो जाहिर है भ्रष्ट नहीं है, मगर अपनी औकात से बहुत आगे बढ गए हैं और हर एक के साथ सकती तथा जटिलताओं से पेश आ रही हैं । बहरहाल, आपातकाल की घोषणा के बाद उन्हें अनपेक्षित समूह से समर्थन की पेशकश हुई । उन्होंने हालांकि आपातकाल में आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया था, मगर खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक टीवी राजेश्वर द्वारा लिखित पुस्तक में यह उल्लेख है विदेश को व्यवस्थित करने की उनकी कोशिश और बाद में संजय की परिवार नियोजन लागू करने की मुहिम । विषेशकर मुसलमानों के बीच आरएसएस मुखिया बालासाहब देवरस बडे भारी समझते । बताया जाता है कि देवरस तो इंदिरा से मिलने को भी आते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया क्योंकि वो खुद को आरएसएस के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते नहीं बताना चाहते हैं । वैसे भी अभी तो उनका रवैया शायद ही किसी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण था । संजय गांधी और उनके कृपापात्र गृहराज्यमंत्री ओम मेहता ने मिलकर विपक्ष के उन नेताओं की सूची बनाई है जिन्हें बंधी बनाया जाना था । गिरफ्तारियां जून को देर रात से ही शुरू कर दी गई । जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई को नींद से जगाकर उन्हें बताया गया कि वे बंदी बनाए जाते हैं । विपक्ष के अन्य नेताओं की तरह कांग्रेस के सदस्यों चंद्रशेखर और मोहन दारिया को भी जी पी । के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख के लिए बंदी बना लिया गया । गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू होते ही दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार अथवा पीठ हिस्ट्री लंदन की वह सडक जिसके किनारे वहाँ के ज्यादातर अखबारों के दफ्तर इस तरह की बिजली आपूर्ति अचानक रूप दी गई है । अधिकतर अखबारों के दफ्तरों को छापाखानों में अंधेरा पसर में से सिर्फ दो ही समाचारपत्र देश में आपातकाल लागू होने का समाचार अगली सुबह छापा अखबार थे हिंदुस्तान टाइम्स आॅफ और ये भी दिल्ली से इसलिए छपा है क्योंकि इनके कार्यालय और छापाखाने बहादुरशाह जफर मार्ग पर ना होकर दूसरी जगह पडते हैं । हिन्दू अखबार में शीर्षक था ऍम पोस्ट राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल लागू निवारक गिरफ्तारियां, प्रेस सेंसरशिप हो पा गया । बताया गया की इंदिरा ने अखबारों की बिजली काटने की इजाजत नहीं दी थी मगर संजय और उनके साथियों ने उनकी अनदेखी करके वैसा क्या? इंदिरा ने पच्चीस जून को कथित रूप मेरे को आश्वस्त किया । प्रधान ठीक है, बिजली रहेगी । उसके बावजूद बिजली काट ही दी गई जहाँ आयोग के सामने पेश हुए । गवाहों ने कहा कि अखबारों के दफ्तर की बिजली संजय के आदेश पर काटी गई थी, रही नहीं । जब बिजली रोक देने पर ये कहते हुए समूची कार्यवाही न्याय विरुद्ध थी, अपनी गंभीर परेशानी जताई । संजय मेरे से कहा था, हम लोगों को देश चलाना कहाँ होता है? आपातकाल लागू करने का फैसला करते समय इन्दिरा नहीं, अपने मंत्रिमंडल को तुच्छ समझकर उसकी अवहेलना है । मंत्रिमंडल को अगले दिन सुबह से ही इसकी जानकारी दी गई । जब सरदार स्वर्ण सिंह इस पर ये कहते हुए सवाल करने वाले एकमात्र मंत्री साबित हुए भारी आपातकाल जब पहले से ही लागू था, आपातकाल लागू करने की क्या जरूरत आन पडी पवन सिंह ने बाद में अपने मित्रों से कहा की थानेदारी नहीं चलेगी । उनकी हिमाकत का जवाब जल्दी उन्हें मंत्रिमंडल से हटा कर दिया गया है । उनकी जगह संजय के घनिष्ठ हरियाणा के मुख्यमंत्री तथा मारुति परियोजना के समर्पण बंसी लाल को मंत्री नियुक्त कर दिया गया । भारत भर में बुनियादी अधिकार निरस्त कर दिए गए हडतालों और यूनियनों को प्रतिबंधित कर दिया गया और प्रदर्शनकारियों की धरपकड की गई । साल उन्नीस सौ इकहत्तर में परे कुख्यात कानून मीसा अथवा मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी ॅ यानी आंतरिक सुरक्षा संरक्षण अधिनियम के तहत सार्वजनिक कार्य करता हूँ । प्रदर्शनकारियों और इंदिरा की अवज्ञा करने वाले लगभग हर एक व्यक्ति को बंदी बना दिया गया । मीसाबंदियों को दो साल तक बिना मुकदमे कैद रखा जा सकता था । कांग्रेस विरोधी छब्बीस संगठनों को प्रतिबंधित किया गया और मैं शामिल थे । आरएसएस भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी अथवा माकपा तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी अथवा भाकपा माले अलवत्ता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अथवा भाग पाने इंदिरा और आपातकाल का खुलेआम समर्थन । क्या चारों और अचानक चुप्पी छा गई । वरिष्ठ राजनेता भी नहीं बोल रहे थे । सामान्यतः कोलाहल से भरपूर भारतीय उपमहाद्वीप को भयाक्रांत खामोशी ने घेर लिया । अधिनायक बात से खुशामदी कला भी पैदा हो गयी । चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन में विजयी इंदिरा के मूर्तिशिल्प बना डाले, जिनमें वे दुर्गा बनी दहाडते शेर पर सवार थी । उनकी देश भर में नुमाइस लगाई गई । अखबारों पर सेंसरशिप के साथ ही साथ है । सकारात्मक खबरों पर ही जोर देने के दिशा निर्देश भी जारी कर दिए गए । इंडिया की तस्वीर वाले विराट बोर चौराहों पर नमूदार हो गए । इन पर नारा लिखा था दलिदर इजराइल फ्यूचर स्प्राइट नेता सही हैं, भविष्य उज्ज्वल है । बीबीसी के माँ डाली सहित विदेशी पत्रकारों को भारत छोडकर जाने का फरमान सुना दिया गया । यदि वे भारत से समाचार भेजने के इच्छुक थे, उनके लिए भी सेंसरशिप के नियम बना दिए गए । तली ज्यादा करते हैं । विदेशी पत्रकारों और सरकार के बीच इस बारे में हम तो बातचीत चली । क्या हम सेंसरशिप नियमों पर दस्तखत करेंगे? बीबीसी ने अन्य कई के साथ दस करने से मना कर दिया । मुझे शाम फोन पर पूरा माफी मांगते हुए हिदायत मिली मैं या तो चौबीस घंटे में देश छोडकर चला जाऊं वरना गिरफ्तार होने को तैयार हूँ । कुल पत्रकार गिरफ्तार किए गए थे जिनमें इंदिरा निंदर इंडियन एक्सप्रेस के कुलदीप नैयर भी शामिल थे । नहीं और मैं याद किया अम् अच्छे दोस्त होते थे । उन्हें गंदे चुटकुले पसंद थे और मुझे उन्हें सुनने को कहती थी । उनके संबंध कभी भले ही कितनी ही दोस्ताना रहे हो मगर नहीं करके उन पर केंद्र हरे । आलोचनात्मक लेख साहिर हैं । उनके गले उतनी अच्छी तरह नहीं उतर पाए जितने की उनके अशिष्ट चुटकुले । आपातकाल लगने के आरंभिक कुछ महीनों में शहरी मध्यमवर्ग नहीं, खराब व्यवस्था हो । नहीं अंतहीन हडतालों और बंद से मुक्ति और अर्थव्यवस्था के धीरे से फिर जी उठने का स्वागत किया । अधिकतर विपक्ष के कारागार में बंद होने के कारण संसद में आपातकाल के प्रस्ताव को आसानी से मंजूरी मिल गई । आपातकाल के आरंभिक कुछ वहाँ ईसन शाम और स्थिरता पूर्ण माहौल में काटे । इसमें प्रधानमंत्री को भी शांति मिले । गोवा उन्नीस सौ पचहत्तर के अक्टूबर महाने भारत दौरे पर आए टाइम पत्रिका के रिपोर्टर को उद्धृत करते हैं । इसमें लौटकर लिखा था कि प्रेस की आजादी और वैसे ही अधिकारों के भारत की साठ करोड आबादी में से अधिकतर लोगों के लिए कोई खास मायने नहीं थे, जो मुद्रास्फीति की दर पिछले साल गिरकर दस फीसद का कहीं अधिक साफ रखते थे । शहरी मध्यम वर्ग में से अधिकतर लोगों ने आपातकाल का स्वागत करके राहत की सांस लेते हैं । कुछ लोग तो यहाँ तक कहने लगे कि भारत में क्या लोकतंत्र वाकई प्रासंगिक था । लेकिन इंदिरा को जिस समय सामने डटकर अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करना चाहिए था वो छूट गई । लोकतांत्रिक सरकार बहुत पहले राजनीतिक परिणामों के डर से बडे आर्थिक उपाय करने से बचती हैं । लोकतांत्रिक, शोरगुल विहीन और अपनी राह में रोडे अटकाने से मेहरूम विपक्ष जैसी अनुकूल परिस्थिति के चलते आपातकाल के दौरान भारत को विचारधारात्मक बोझ के जुडे से मुक्त करके सतत आर्थिक वृद्धि की राह पर अग्रसर किया जा सकता था । इसके बजाय व्यापार उद्योग लगाने के लिए अनगिनत बाधाएं जारी रही हैं । भारतीयों को विदेशी मुद्रा रखने का कोई अधिकार नहीं था । इसलिए भारतीय कंपनियां देश की सीमा के बाहर व्यापार बढाने की सपने में भी नहीं सोच सकती थी । नियंत्रन और लाइसेंस राज के कारण नागरिकों के जीवन में भारत सरकार की डरावनी परछाई घर कर गई थी । ऐसा बदलने की हर एक कोशिश का नेहरू की विरासत बदलने की साजिश कहकर विरोध किया गया । ऐसा सिर्फ उनके सामने वाली सहयोगी ही नहीं बल्कि उनके अपने कांग्रेसी साथी भी जोर शोर से करते थे । इंदिरा गांधी उस दौर में हालांकि वास्तविक परिवर्तन के लिए राजनीति को ढल सकने में सक्षम थी, मगर वे इसमें भी चूक हो गई तो हमेशा यही शिकायत करती थी । उनके हाथ में अपनी नीतियों को लागू करने के लिए जरूरी सत्ता का अभाव था । छत्ता के लिए सिंडिकेट से उनका संघर्ष दरअसल उनकी अपनी स्वायत्तता के लिए था । उसके बावजूद उन्हें जब निर्वाध नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने लायक संपूर्ण सत्ता हासिल हुई, तब भी होने जाने किस वजह से असहाय और ठहराव की शिकार रही और पास समय समय पर पैदा होने वाले संकटों के और ही हल ढूंढने में ही लगी रही । भ्रष्ट ये था कि विकासपरक आर्थिक ढांचा बनाने के लिए उनके दिमाग में किसी भी स्पष्ट सोच अथवा सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम का अभाव था । भारत के भविष्य के लिए उनकी दृष्टि न जाने कैसे मध्यम अवधि तक ही सीमित थे । आर्थिक उदारवाद को अपनाने के बजाय इंदिरा गांधी समूची राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में केंद्रित करने में जुट गई । संसद को सर्वोच्च सत्ता प्रदान करने वाले एक के बाद एक अनेक विधेयक पारित किए गए । इंदिरा का समाधान पुकारे जाने वाले कुछ क्या बयान? इस संशोधन को संसद में पारित किया जिसके तहत संविधान के बुनियादी ढांचे में संशोधन का हक भी संसद को अदा कर दिया गया था । लोकसभा और राज्यों के विधानसभा की अवधि बढाकर छह साल कर दी गई । झांसी केंद्र सरकार को वैसे किसी भी राज्य में सेना को उतारने का अधिकार दे दिया गया जहाँ उसकी राय में कानून व्यवस्था का संकट खडा हो गया था । संविधान की प्रस्तावना बदल दी गई, संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणतंत्र के बजाय उसके बाद भारत संप्रभुता संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र हो गया । स्वतंत्र प्रेस के हामी और नेशनल हेराल्ड अखबार के संपादक रहे रोज गांधी ने उन्नीस सौ छप्पन में संसदीय बहस की खबर करते हुए पत्रकारों को कानूनी संरक्षण देने का कानून संसद के रूप में पारित कराया था । इस कानून को भी रद्द कर दिया गया । उसके बाद सांसदों के भाषण को किसी भी प्रकार अथवा रूप में छापने अथवा प्रसारक करने पर रोक लग गई । इंदिरा गांधी ने बाद में सेंसरशिप के बारे में कहा, अखबार उन ताकतों के साथ मिले हुए थे तो उन सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों की राह में रोडा अटका रहे थे जिन्हें हम लागू करना चाह रहे हैं । हालांकि उन्होंने झेंपते हुए ये भी माना कि सेंसरशिप को सुव्यवस्थित रूप में लागू नहीं किया गया । में लगता था कि कोई आचार संहिता बनाई जा सकती थी । दस अगस्त उन्नीस सौ पचहत्तर को संशोधन लागू किया गया । इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के चुनाव को कानूनी अदालतों की समीक्षा से बाहर कर दिया गया । उन्नीस सौ इकहत्तर में इंदिरा गांधी की जीत को सर्वोच्च न्यायालय ने वैध घोषित कर दिया । आपातकाल लागू होने के दो महीने बाद पंद्रह अगस्त को बंगलादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार की नृशंस हत्या कर दी गई । महज दस साल के उनके बेटे का भी उनके घर में गोली मारकर खत्म कर दिया गया था । इससे इंदिरा का यह है और बढ गया कि उनके विरोधियों द्वारा उसी तरह उनकी हत्या का षड्यंत्र रचा जा रहा था । निर्द्वंद्व सत्ता की चाहत में ये डर भी जुड गया की उनकी तरह से भी आलोचना उनके जीवन के लिए खतरनाक रूप धारण कर सकती थी । इंदिरा और मुजीब का उत्थान और पतन सामान ही था । दोनों ही राजनीतिक सप्ताह का शिखर पर पहुंचकर अचानक अपनी सत्ता की वैद्यता केश चरण के शिकार हो गए । बंगलादेश के जन्म के तीन साल बाद मुझे लोकतंत्र को अंगूठा दिखाकर नागरिक अधिकार निरस्त कर दिए और बांग्लादेश ने एकदलीय सप्ताह निरूपित कर दी थी । अपने विरोधियों के खिलाफ इंदिरा गांधी का गुस्सा देशभर में उसी दौर में कथित रूप में उनके जीवन पर बनी फिल्म आंधी के नाम की तरह छा गया था । मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार आपातकाल लागू होने पर पहले ही साल एक लाख दस हजार से ज्यादा लोगों की धरपकड करके उन्हें बिना मुकदमे ही बंदी बना कर रखा गया । आपातकाल के किस बंदी सलाखों के पीछे मर गए? ऐसा लगता है कि इसमें निजी खुलना और जनाना रंजिश की भी बडी भूमिका रही । दो महारानियों जयपुर की गायत्रीदेवी और ग्वालियर की राजमाता विजय राज्य संध्या को तो उचक्कों के बीच जेल में डाल दिया गया था । गायत्रीदेवी का तो दुनिया के कुछ सबसे खूबसूरत महिलाओं में शुमार था । दोनों ही महारानियां इंदिरा की राजनीतिक प्रतिद्वंदी थी । डॉक्टर माथुर लिखते हैं, तारकेश्वरी सिन्हा जैसी प्रधानमंत्री कि प्रतिद्वंदियों के अनुसार इन दोनों महिलाओं को ईशा वर्ष बंदी बनाकर शारीरिक मानसिक यात्रा दी गई थी । जॉर्ज फर्नांडिस भूमिगत हो गए थे और एक के बाद एक बम धमाके करवा रहे थे जिनसे पुल टूटने और रेलगाडियां पटरी से उतरने के हाथ से हो रहे थे । इंदिरा ने उसी बीच फ्री नेहरू से कहा, फर्नांडीस मुझे बम से उडा देना चाहता है । फर्नांडिस को अंतर ऍम करता तो कर लिया मगर उसके लिए उनके भाई लॉरेंस को पुलिस के हाथों भीषण यातना झेलनी पडी । लोकतंत्र कार्यप्रणाली की चिता की राख में से संजय गांधी और उनका दल मानव फिनिक्स पक्षी की तरह प्रकट हुआ । इसमें शामिल थे बंसीलाल, आरके धवन, ओम मेहता, विद्याचरण शुक्ल और कुछ अन्य । इन्हें जल्द ही आपातकालकी चांडाल चौकडी कहा जाने लगा । अपनी माँ पर संजय का नियंत्रन मुकम्मिल हो गया था । माँ बेटे के संबंधों के बारे में अफवाहें उडने लगी । किसी विदेशी संवाददाता ने गांधी परिवार के घर पर खाना खाने गए किसी अनाम मेहमान के हवाले से लिखा था संजय ने इंदिरा गांधी के चेहरे पर एक साथ छह तमाचे जडे थे और वे सन्न खडी पहुंचे, खाती रही उससे वो यमराज की तरह डरती हैं । अलवत्ता मेनका गांधी तमाचे केस अमाशय का जोरदार खंडन करती हैं और लेखक वेद मेहता ने पारिवारिक सूत्र के हवाले से लिखा, भगवान भी इंदिरा गांधी के चेहरे पर छह समाचार नहीं मार सकता था की बीस रुपए की अफवाहें संजय की हैसियत की विसंगतियों पर जरूर रोशनी डालती हैं । होना तो राजनीति में और ना ही सरकार में किसी पद पर था । कांग्रेस का औपचारिक सदस्य भी नहीं था । फिर भी निर्णय प्रक्रिया में उसकी चलती थी और ऐसा लगता है कि इंदिरा के काम काज में भी उसका दखल था । डॉक्टर कहते हैं वे स्वयं ही संजय की शिकार थी । अपने छोटे बेटे के प्रति अपने प्यार के अतिरिक्त के मोहपाश में बंदी वो खुद ही छटपटाती थी । केंद्र मल्होत्रा ने याद किया नेहरू और इंदिरा दोनों के ही मंत्रिमंडल में मंत्री रहे केशव देव मालवीय ने उन्हें बताया था । इन्दिरा इस बात से आश्वस्त है । इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद उनके जीवन के सबसे संकटग्रस्त समय में सिर्फ संजय नहीं उन्हें राजनीतिक रूप में बर्बाद होने से बचाया था और उनकी हत्या होने से भी उन्हें बचाया था । इंदिरा गांधी ने बीस सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की । इसका मकसद आपातकाल के दौरान देश का पुनरुद्धार करना था । इसके तहत जहाँ गांव में बसे गरीबों का कर्ज माफ किया गया, वहीं बंधुआ मजदूरी को भी अवैध घोषित कर दिया गया । दुकानों के कांच के शोकेस में उनकी तस्वीर लगाकर इस कार्यक्रम के प्रति समर्थन जताना भी अनिवार्य किया गया । संजय गांधी ने अलग से पांच सूत्रीय कार्यक्रम जारी किया, जिससे जनता अधिक उत्साहित हुई । उसके लक्ष्य थे रोड शिक्षा दहेज उन्मूलन, जाति प्रथा उन्मूलन, पर्यावरण का सौंदर्यकरण, सबसे विवादास्पद परिवार नियोजन का अतिवादी कार्यक्रम उत्तल मगर भविष्योन्मुख, पेट दर्द, अव्यवहारिक अकडू और मूलगामी । सामाजिक प्रक्रियाओं से अनभिज्ञ होने के बावजूद ठंडी । मैंने अपने नए तौर तरीकों से अनेक लोगों का ध्यान खींचा । इसी दौरान संजय के चारों और दरबारी छुटने लगे । नौकरशाह नवीन चावला पुलिस अवसर प्रीतम सिंह भिंडर, राजनेता अंबिका सोनी, सोशलाइट रुकसाना, सुल्तान धवन और धीरेंद्र ब्रह्मचारी दिल्ली के दरबार में ऐसा शहर जहां महत्वाकांक्षा हमेशा नैतिकता की बलि ले लेती है । नए राज के सामने अनेक लोग उन्हें दंडवत होना शुरू कर दिया । विजय लक्ष्मी ने अपनी बेटी नयनतारा से कहा, मैं परेशान थी तरह ने तौर तरीके से । इनमें पुरुष और स्त्रियां पकडकर जेल में डाले जा नहीं अथवा अपनी नौकरी जाने के डर से रेंगने लगे थे । मेरे खुद के आत्मसम्मान को लगा कि मुझे विरोध करना चाहिए । संजय का मशहूर नारा पाते कम कम ज्यादा उनके कठोर गंदगी साफ करने वाले रवैये का प्रतीक था । एक जल्दबाज किसी स्तर पर ढीलेढाले भारत का विरोधी करता जो अपनी माँ को दिखा देगा कि काम कैसे कराया जाता है । उसे लगता था कि झटके से और तानाशाही तौर तरीके से मनुष्यों की उस विशाल आबादी को ठोक पीट कर ही निश्चित आकार में ढाला जा सकता है । इसके प्रति उसके मन में कोई इज्जत नहीं थी । नेता की इच्छा को मानने के लिए बाध्य करने को लोगों को कुचलना पडे तो वो भी मंजूर था । आपातकाल दरअसल संजय के लिए राजनीतिक पहचान बनाने का वक्त स्वागत हुआ । वही इसका चेहरा था । उसने इस दौरान अपनी माँ को भी प्रभावहीन कर दिया और उसकी सत्ता प्रभाव तथा आत्मविश्वास कुलांचे भरता चला गया । आपातकाल लागू होते समय वह मात्र उनत्तीस साल का था । ऐसा युवक जिसे अभी ये भरोसा हो गया था उस की विरासत भारत अंततः और उचित रूप में हो उसका हो गया था । इसे वह अपनी मर्जी के अनुसार सही कर सकता था क्योंकि वो अपनी माँ का पुत्र था और ये ऐसा देश था जिस पर उसका परिवार अपने जन्मसिद्ध अधिकार के तहत राज कर रहा था । ठंडी का राज्य स्थापित करने में संजय गांधी जुड गए । साल दो हजार तेरह में जब राहुल गांधी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अध्यादेश को बकवास बताते हुए सार्वजनिक रूप में सरकार के प्रति अपना तिरस्कार जताया । वो अपने ठसक दार चाचा की साधिकार रांची शैली का ही अनुसरण कर रहे थे । के अगस्त महीने की भेद खोलती एक घटना जताती है । इंदिरा संजय से कितना ज्यादा डरती थी और से नियंत्रित करने के लिए शायद ही कुछ कर सकती थी । एक पे धडक इंटरव्यू में संजय ने उन्हें हमेशा ही अपनी माँ के वाम झुकाव वाले मित्रों और सलाहकारों से नफरत थी । सर्च पत्रिका की उमा वासुदेव से कहा, समाजवादी अर्थव्यवस्था भारत के लिए सिरे से गलत थी । उन्होंने सामने वादियों पर लानत भेजते हुए कहा, जहाँ तक सामने वादियों की बात थी, मुझे नहीं लगता कि आपको उनसे अधिक हमीर और भ्रष्ट लोग और कहीं मिलेंगे और कहा कि सार्वजनिक उद्योगों को अपनी स्वाभाविक मौत मार नहीं देना चाहिए । उन्होंने कहा, सारे आर्थिक प्रतिबंध खत्म होने चाहिए । बडे कारोबारों और बहुराष्ट्रीय निगमों की तारीख की और सुझाव दिया कि नेहरूवादी अर्थव्यवस्था के समूचे ढांचे को इसे उनकी माँ बचाए हुए थी, नष्ट किया जाना चाहिए । खबर तो ये भी है कि उन्होंने अपनी माँ के मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को मूर्खों की जमात कहा था । साक्षात्कार की खबर जब समाचार एजेंसी से जारी हुई तो इंदिरा के तो मानो तोते उड गए । उनके सगे बेटे द्वारा नेहरू की समाजवादी विरासत और उनके सामने वाली साझेदारों पर पीछे उछाला जाना तो राजनीतिक पार उसका काम करता । संजय नहीं सामने वादियों के बारे में बेहद न समझी बडा बयान दिया है । अब हम क्या करें? मुझे गहरी चिंता हो रही है । मैं कुछ चिंतित हैं । क्या हम बहाना बनाए अथवा करें? मैं लग रहा है उन्होंने ये सब बातें घर को हाथ से जल्दबाजी में लिखे नोट में कहीं । उन्होंने घर और विद्याचरण शुक्ला से पत्रिका की प्रतियां सार्वजनिक होने से पहले उसे हटा लेने में मदद मांगी । साक्षात्कार वापस किया गया और संजय ने अनिच्छा के साथ एक स्पष्टीकरण जारी किया । लेकिन भाजपा नाराज हो गई और सो के संग ने भी इस पर अपनी नाराजगी जाहिर की । सर्च का साक्षात्कार इंदिरा गांधी के लिए भारी शर्मिंदगी का कारण बना के प्रधानमंत्री से भी आगे बढकर बोलने की संजय की गुस्ताखी थी जो एक तथा कथित युवराज द्वारा भरोसे से ओतप्रोत बयान था तो ये मानता था कि वो छुट्टियों की जमाना और दुविधाग्रस्त माँ से भी ऊपर उठ गया है और सिर्फ उसी के पास भारत की तमाम परेशानियों का इलाज था अपनी माँ के गुस्से से । संजय के डरने के बजाय वास्तविकता ये थी खुद इंदिरा नुकसान को सीमित करने के लिए हाथ पैर मारती रहती । मानव से नाराज करने से वो डर रही हूँ । संजय को मन मर्जी से बोल नहीं अथवा करने से रोकने में इंदिरा गांधी की नाकामी ही आपातकाल की सबसे बडी बीमारी थी । ये डरी हुई माँ अकूत सत्ता की असुरक्षित प्रयोगकर्ता थी । आपातकाल के दौरान राजनीतिक कार्रवाई के लिए संजय का मंच युवा कांग्रेस बनी । चंडीगढ में कोमागाटा मारू नगर के दिसंबर महीने में हुए कांग्रेस के अधिवेशन नहीं संजय ने राजनेता का औपचारिक सोलह पहन लिया । कांग्रेस की किसी सत्र में वह पहली बार मंच पर नमूदार हुए । गगनभेदी नारों और तालियों की गडगडाहट ने उन्हें अपनी माँ के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर दिया । संजय ने निश्चल पडी युवा कांग्रेस को उसके पास पर खडे करके उसे कांग्रेस के प्रतिद्वंदी सत्ता के केन्द्र के रूप में विकसित करने से शुरुआत की । इसके लिए संजय की जो साठ दिन पैंतीस वर्षीय अंबिका सोनी को युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया । अमरीका को राजनीति में इंदिरा ही लाई थी और किसी राजनयिक की पत्नी सूरी याद करती हैं । संजय नहीं सार्वजनिक जीवन में अपनी आमदरफ्त शुरू ही की थी । उन्होंने कभी कोई पद नहीं संभाला और उनकी दिलचस्पी लोगों से मिलने जुलने में थी । संजय के बारे में लोगों की राय अतिवादी है लेकिन वही जब हम से बहुत मिलते थे और हमारे युवा कांग्रेस के दफ्तर में हम से बात करने आते थे तो उन्होंने कभी भी अपना रौब जमाने की कोशिश नहीं की था । उनका आभामंडल तो चाहिए इंदिरा में मेरी कारा को बाद में बताने वाली थी । संजय की बुनियादी दिलचस्पी राजनीति में थी ही नहीं, मगर तब उसकी खूब आलोचना और उस पर जबरदस्त हमले किए गए थे । तो संसद में जाने के लिए चुनाव इसलिए लडना चाहता था क्योंकि झूठे आरोपों का जवाब देने का उसे वही एकमात्र उपाय लगता था । आपातकाल में युवा कांग्रेस की तो दोबारा हो गई युवा नेता जिन्हें संजय नहीं शामिल किया था, उनकी परछाई बन गांव का दौरा करने लगे, लेकिन कभी गांधी और कभी नेहरू की तरह विनम्रतापूर्वक उसे खोजने के मिशन पर नहीं बल्कि रॉक दिखा नहीं और आदेश देने के लिए वो भी सर्वशक्तिमान गांधी पुत्र कि प्रतिबंधित सत्ता के मद में चूर होकर युवाकांग्रेस में कुछ बेहद ऊर्जावान राजनीतिक व्यक्त तो मौजूद थे । उनमें से अनेक राजनीति में संजय द्वारा छांटे गए छापामार दस्ते में शामिल थे । लेकिन उसी संगठन ने कुछ ऐसे लोगों को भी आसरा दिया जिन्हें ठग माना जाता था, जिनकी पहचान दुकानदारों को चमकाकर, उनसे पैसा वसूलने वालों और बाहुबलियों के रूप में स्थापित थी । इंदिरा गांधी खडी खडी देखती रही । शायद संजय के संगठनात्मक कौशल पर मुग्ध होकर उन्होंने उसे सोचने वाला नहीं बल्कि करने वाला बताया था । गुवाहाटी में के नवंबर महीने में हुए कांग्रेस के अधिवेशन नहीं । संजय को युवा कांग्रेस के सर्वोच्च नेता के रूप में स्थापित कर दिया और महत्व एमरित तुम्हें के लिहाज से वो कांग्रेस अध्यक्ष की जगह लेता दिखा । इंदिरा नहीं मातृवत गर्व के साथ घोषित किया । हमारी गर्जना चुरा ली गई है । ऐसी शख्सियत होने के बावजूद इससे कांग्रेस को मोतीलाल के हाथों से जवाहरलाल के हाथों में आते हैं और विकसित होते देखा था । अब वो संजय के नेतृत्व से अभिभूत हुई जा रही थी । ये बात खुद ही साफ कर देती हैं कि इतने वर्षों में इंदिरा में क्या बदलाव आए थे । उनके अभिभूत होने का और भी कारण माना जा सकता है । शायद लगभग वैसा ही था कि वो संजय और उसकी चौकडी में उन्नीस सौ तीस के दशक के इंग्लैंड में उस क्रांतिकारी विद्यार्थी समूह की झलक देख रही थी जिसमें वो खुद भी बडी शिद्दत से शामिल । शायद अपनी विध्वंसक बेटे की हरकतों को देखकर उनके भीतर को क्रांतिकारी चाहत गया था तो कभी वो खुद थी और उसमें भी पुरानी स्थापित व्यवस्था को तगडी चुनौती देने वाले व्यक्तित्व की कल्पना कर रही थी जिसके उन्होंने अभी खुद से बीस कीजिए । कांग्रेस की एक समूची पीढी को ही संजय और युवा कांग्रेस लील जाने वाले थे । विंद्रा कि व्यक्ति पूजा के चलते पहले ही जर्जर हो चुकी थी । हालांकि संजय द्वारा चुने गए युवा नेताओं में से अनेक आज कांग्रेस के प्रभावशाली नेता हो गए हैं । इससे पता चलता है युवा गांधी राजनीतिक योग्यता को परखने में उतना अनाडी भी नहीं था । अंबिका सोनी, कमलनाथ और आनंद शर्मा जैसे पार्टी के बडे नेताओं ने अपनी राजनीतिक पारी संजय की छत्रछाया में युवा कांग्रेस में ही शुरू की थी । कभी संजय के सिपाही थे ये लोग प्रधानमंत्री सचिवालय को मानो टक्कर देने के लिए प्रधानमंत्री के घर पर समानांतर सरकार स्थापित हो गई थी । संजय के साथ ही बंसीलाल और ओम मेहता केंद्र सरकार भी रक्षा और गृह मंत्रालय का भार संभाल चुके थे । प्रधानमंत्री सचिवालय और समानांतर सरकार के बीच बाहर बार खींचतान होने लगी थी क्योंकि संजय और उनकी चौकडी नियुक्तियों की प्रक्रिया को खुद को नियंत्रित करने पर आमादा हो गई थी । वो भी बहुत वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार करके । मौनी मल्होत्रा याद करते हैं । ये ऐसा समय था जब सत्ता का केंद्र उनके घर पर स्थानांतरित हो गया था । अपने को दिलासा देने के लिए साउथ ब्लॉक के अवसरों में ये जुमला कर लिया था । ये उनका दफ्तर जल विभाग था और वो उनका घर सीवरेज विभाग का निराश कुंठित होकर धर अपने पद से इस्तीफा देना चाहते थे । मगर हक्सर में उन्हें निरुत्साहित क्या? दीपक सर ने सलाह दी इसे और अधिक पतन से बचाने के लिए हमें व्यवस्था में बरकरार रहना चाहिए । व्यवस्था से बाहर होते हैं, आपकी कोई पूछ नहीं रहेगी । साल के आखिरी महीनों में अब इंद्रा के दरबार में भीषण पिता में बन चुके हैं । भारत के दौरे पर आए बीके नेहरू ने पी । एन । हक्सर से कुबूल क्या वे इंदिरा गांधी से बात करना चाहते थे और उनसे ये कहना चाहते थे ये बेहद खतरनाक और घोर आपत्तिजनक था । कानून के राज को संजय गांधी के राज में बदला जा रहा था । वो भी तब जबकि पार्टी अथवा सरकार ने वो किसी भी औपचारिक पद पर नहीं था । उसकी सत्ता का एकमात्र आधार इतना ही था कि वो अपनी माँ का लाडला था, अलबत्ता अक्सर नहीं । उन्हें इंडिया से एक शब्द भी कहने की हिमाकत नहीं करने की सलाह दी है क्योंकि वे संजय को श्रद्धायुक्त है । सराहना सम्मान के विचित्र मिश्रत भाव से आती थी । उसे भी परिपूर्ण मानती थी और उनकी नजरों में वह गलत कभी हो ही नहीं सकता । संजय के बारे में सब नहीं की मामूली अभिव्यक्ति पर भी पथराव किया जाता था । अक्सर ने उनसे कहा यदि इंदिरा से उन्होंने कुछ भी कहा तो इंदिरा तक उनकी पहुंच खत्म हो जाएगी । अब्बू भाई यानी हक चार अपने अनुभव से प्रेरित होकर बोल रहे थे क्योंकि उनकी बर्खास्तगी की वजह भी तो संजय ही था । संजय भट्ट के चलते सूरत नागरिकों पर कोडे बरसाकर उन्हें सरकारी नीति के अनुसार ढालने को । उधर निरंकुश राजसत्ता के दबदबे को दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके से झोंपडपट्टी हटाने और जबरिया नसबंदी मुहिम के पीछे महसूस किया गया । दिल्ली में के अप्रैल महीने में झोंपडपट्टी हटाने की मुहिम विभिन्न क्षेत्रों में चल रही थी । तुर्कमान गेट के पास निरीक्षण दौरे पर गए संजय ने गेट पर ही खडे होकर जगमोहन से कहा मैं तुर्कमान गेट में खडे होकर जामा मस्जिद और देखना चाहता हूँ । संजय के फरमाबरदार जगमोहन दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष थे । चाहे फरमान जारी होते ही वफादार हो तामिल करने को दौड पढाई तुर्कमान गेट को फौरन खाली कराया जाना था । संजय के कट्टर वफादार से बदलकर जगमोहन बाद में भाजपा समर्थक का चोला धारण कर लेने वाले थे । ये इस बात की मिसाल है व्यक्ति परत भारतीय राजनीति में वफादारियां हमेशा व्यक्तिगत होती हैं न कि विचारधारा पर आभार । तुर्कमान गेट इलाकों में तब दुकानें, झुग्गियों, झोपडपट्टियों और बाजारों की भरमार थी । क्या हजारों की तादाद में लोग बसे हुए थे? गहने डिजाइन करने वाली खूबसूरत रुकसाना सुल्तान ने उन्नीस सौ छिहत्तर के अप्रैल माह के मध्य में तो जाना हाउस नसबंदी केंद्र किसी क्षेत्र में शुरू किया धागे सरकारी नसबंदी कार्यक्रम को सार्थक किया जा सके । तुर्कमान गेट पर पहला बुलडोजर तेरह अप्रैल को आया और उसने घरों की दीवारों तथा छतों को ढहाना शुरू कर दिया । स्थानीय निवासियों ने इसे रोकने को जब रुकसाना की मदद मांगी तो उसने भी उनसे हर हफ्ते तीन सौ नसबंदी कराने के अपने लक्ष्य को पूरा करने में सहयोग करने की शर्त रखती । नसबंदी शिविर और बुलडोजरों के बीच तुर्कमान गेट क्षेत्र में लोगों के भीतर तनाव खतरनाक ढंग से उबलने लगा । सभी उन्नीस अप्रैल हो नसबंदी करवाने के लिए आये लोगों से भरी गाडी दुजाना हाउस पहुंचने पर उसके बाहर ही प्रदर्शन होने लगा । दिन ढलते तक वहाँ केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की टुकडियां तैनात कर दी गई । उन्होंने आंसूगैस छोडकर हालात सामान्य करने की कोशिश की उसके बावजूद लोगों का गुस्सा बढता चला गया और जल्द ही भीड पथराव छोडे की बोतलों और तेजाब के बमों की बौछार करने लगी । जवाब में पुलिसबल नहीं गोलीबारी रद्द कर दी । चौदह राउंड गोलियां बरसाई गई । मृतकों की संख्या का अनुमान अलग अलग है । सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक कुल आठ लोग मारे गए मगर गैरसरकारी आंकडों के मुताबिक एक सौ से ज्यादा लोगों को अपनी जान से हाथ होने पडे और बडी संख्या में अन्य लोग घायल हुए हैं । मारे गए लोगों में मात्र तेरह वर्ष का एक लडका भी शामिल था तो महज किनारे खडा था । तुर्कमान गेट इलाके में मई के मध्य तक रोजाना तो इस घंटे कर्फ्यू लगाए रखा गया ताकि तोड फोड जारी रखी जा सके और कुमार गेट को झोपडपट्टी मुक्त करने का अभियान समाप्त होने तक पेट दर्द, तबाही की परिपाटी डाल से हुए डेढ लाख छुट्टियाँ और दुकानें साफ कर दी गई और सत्तर हजार बाशिंदों को बसों में ठूसकर यमुना किनारे कांटेदार तार वाली बाढ में घिरे जमीन के छोटे छोटे टुकडों पर जबरिया पुनर्वासित कर दिया गया । तुर्कमान गेट झोंपडपट्टी सफाई अभियान में बरती गई कठोरता से ये साफ हो गया कि भारत में लोकतंत्र दम तोड चुका था । लोकतंत्र के बजाय अब स्पेश में सरकारी हुक्म के पालन के लिए घर तोडे और जिंदगियां खत्म की जा सकती थी । आपातकाल शैली के सौंदर्यीकरण अभियान का शिकार अन्य अनेक शहर भी हुए । सडके चौडी करने के लिए वाराणसी की प्राचीन हवेलियों को आधा तोड दिया गया । जिसकी वजह से ऐतिहासिक विश्वनाथ मंदिर की गाली ऐसी लगने लगी थी मानो वहाँ बमबारी हुई हो । संजय की शैली अब भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास संबंधी कार्यवाहियों में लोकतंत्र प्रक्रिया के तहत गौरी और सोचे समझे तरीके अपनाने को मजबूर सरकारों की तुलना में तीस काम अलग थी । सुंदरीकरण से भी ज्यादा बरबार संजय गांधी के दिमाग की दूसरी खप जबरिया नसबंदी मुहिम थे । भारत में लगातार बढती आबादी को उसकी गरीबी के प्रमुख कारणों में शुमार किया जाता रहा था । अंडा बांटकर आबादी को नियंत्रित करने जैसे नीतिगत उपाय बेकार साबित हुए थे । संजय ने अब ठान लिया था कि भारत की आबादी को तब टाल और प्रभावी तरीके से घटाया जाना चाहिए । इंदिरा गांधी ने भी परिवार नियोजन कार्यक्रम को उत्साहपूर्वक लागू करने का तय किया और वही इसके विरुद्ध कोई भी तर्क सुनने को तैयार नहीं थी । मेनका गांधी बताती हैं कि परिवार नियोजन कार्यक्रम की प्रेरणा संजय को कैसे मिली । संजय दरअसल राजनीतिक संवेदनशीलता से अनभिज्ञ थे । राजनीतिक थे और उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं हो पाया कि आपातकाल जैसे कार्यक्रम में अब परिवार नियोजन कार्यक्रम का घालमेल नहीं कर सकते । परिवार नियोजन कार्यक्रम की योजना बहुत पहले से थी, लेकिन सहयोग से दोनों का घालमेल हो गया और सारी बुराई उनके मध्य मार दी गई । वो मात्र सत्ताईस साल के ही तो थे । तथ्य में गलती हमने उनकी निजी किसी भी गलती के लिए कभी उन्हें माफ नहीं किया । हमें उनसे सौ साल अनुभवी व्यक्ति की उम्मीद की । उन्होंने जल्दी से अपनी बात पूरी की । उनके लिए ये कोई माफी नहीं है । इसमें कोई शक नहीं कि उनके नाम पर विचित्र घटनाएं हुई थी । यहां सवाल यह है कि संजय किस अधिकार के तहत नीति बना और लागू कर रहे थे? जाहिर है सिर्फ अपने जन्मसिद्ध अधिकार से जो ऐसी माँ ने उन्हें दिया था । इस की सबसे बडी विडंबना यह रही उसी ने उत्तराधिकार से राजा बनी लोगों के विरासती विशेषाधिकार खत्म किये थे । सरकार ने में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति लागू की आबादी की अनियंत्रित वृद्धि रोकने के लिए और सालाना पैंतीस जन्म प्रति हजार व्यक्तियों से घटाकर जन्मदर को पच्चीस जन्म प्रति हजार व्यक्ति पर लाने का लक्ष्य तय किया गया । इस लक्ष्य को पाने के लिए सार्वजनिक नसबंदी अथवा मर्दों की नसबंदी जैसा डरावना कार्यक्रम लागू किया जाना तय था । ये आपका ही नई नीति भारत को हमेशा के लिए बेरोकटोक बढती आबादी के शाप से मुक्त कराने का उपाय बताई गई । दिल्ली और उत्तर भारत के अन्य नगरों में नशबंदी क्लिनिक बनाए गए और गांव में नसबंदी घडियां रवाना की जाने लगी । नसबंदी कराने वाले हर एक व्यक्ति को ट्रांजिस्टर, निश्चित मात्रा में खाना पटाने का तेल और एक सौ बीस रुपए का उपहार मिलने लगा । फॅालो ने अपनी किताब में नसबंदी कराने वालों की भी कि मुस्कान बिखेरते थी और घडियों का उपहार लेते हुए तस्वीरें प्रकाशित की है । पुलिस वाले, डॉक्टर और अध्यापक आदि सरकारी कर्मचारी इस कार्यक्रम को लागू करने का आसान माध्यम बनाये गए । कई मामलों में उन्हें वेतन का भुगतान निश्चित संख्या में नसबंदी कराने वालों को घेरकर लाने के बाद ही किया जाने लगा । जाहिर है, सरकारी मशीनरी निरंकुश होकर नजबंदी के निर्धारित लक्ष्य पूरे करवाने के लिए कर्मचारियों के कमजोर वर्ग पर धौंस काटने लगी । इसके शकार गरीब लोग हुए । लाखों लोगों को बहला फुसलाकर और जबरन भी नसबंदी करवा दी गई । नजबंदी करने के लगातार कठोर होते उपायों की अपनी उडने लगी । लोगों के मन में नजबंदी का खौफ पडता गया क्योंकि उनके कानों में ऐसी बातें भी पडी । पुरुषों को सिनेमा हॉल और बस पकडने के लिए लगी लाइन में से हाथ कर नजबंदी के लिए ले जाया गया । जबरिया नसबंदी की मुहिम जब तक खत्म हुई तब तक तीन साल में तीन लाख नजबंदी के निर्धारित लक्ष्य से कहीं अधिक लाख नसबंदी शुरू के कुछ ही महीनों में की जा चुकी थी । साल तिहत्तर चौहत्तर में जहाँ महज नौ दशमलव चार लाख नसबंदी या हुई थी वहीं इससे कई गुना ज्यादा बयासी दशमलव छह लाख नसबंदी या में हुई । इस कार्यक्रम की गाज अवान ने इंदिरा गांधी के सबसे वफादार वर्गों, गरीबों, निचली जातियों और मुसलमानों पर गिरी । ओपी श्रीवास्तव बताते हैं, नजबंदी से यहाँ रायबरेली तक में लोग बेहद डरे हुए थे । सबसे ज्यादा परेशान कर्मचारी थे क्योंकि उन्हें निश्चित संख्या में लोगों की नसबंदी के लिए वहाँ पर लाने का लक्ष्य दिया जाता था जिसमें चूक होने पर उन्हें प्रताडित किया जाता था । इसीलिए के चुनाव में उन्होंने भी इंदिरा की मुखालफत होगी । हालांकि श्रद्धा दर्शन कर रही के दशकों बाद कहने वाले थे । आपातकाल में कोई कमी नहीं थी, मगर ज्यादतियां गलत थी और से कोई नहीं रोक पाया । इंदिरा भी शुरू में तो नसबंदी कार्यक्रम के लिए उत्साहित थी, लेकिन उसके लिए जोर जबरदस्ती की सूचना उन तक आने लगी । वे दुविधा कि शिकार हो गई । उसके बावजूद संजय के प्रति अपने अंदर मोह में वह उसे तत्काल रोकने का आदेश नहीं दे पाई । शुरू शुरू में जबरिया नसबंदी की बातें जब उन्हें बताई जाती तो सामान्य प्रतिक्रिया उन्हें बेबुनियाद तथा महज संजय विरोधी प्रचार बताने की होती है । एक बार जब फ्री नेहरू नाम से कहा कि चंडीगढ में लोगों की जबरिया नसबंदी की जा रही थी तो एकदम रूपणी और प्राप्त करने लगी । मैं क्या करूँ, मैं क्या करूँ? मुझे कुछ बताते ही नहीं । हालांकि थोडी शांत होने पर बोली ऐसे सब आरोप झूठे हैं । डॉक्टर माथुर याद करते हैं कि आपातकाल की शुरुआत में लोग खुश हुए कि रेलगाडियां समय पर चलने लगी थी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा अन्य सरकारी सेवाएं सुधर गई थी, लेकिन तभी नसबंदी के कारण हालत बिगडने लगे । बीके नेहरू द्वारा संजय के बारे में बात करने पर प्रधानमंत्री बहुत परेशान हो जाती थी । मैंने तो ये भी देखा इससे बीजू नेहरू द्वारा उन्हें कडाई से कुछ बताए जाने पर अपने दफ्तर की मेज पर बैठे बैठे उनकी आंखें दबदबा गई थी । जाहिर है इधर उन्हें हक्सर की सलाह को नजर अंदाज करके जनसंख्या नियंत्रण के लिए संजय द्वारा अपनाए जा रहे जोर जबरदस्ती और आप पाई और तरिकों पर अपनी राय से उन्हें अवगत करा दिया था । अलवत्ता संजय सबसे बेफिक्र थे । उन्हें अपने रवैये पर कोई संदेह नहीं था । रही सही कसर विद्याचरण शुक्ला द्वारा चलाए जा रहे प्रचार अभियान ने पूरी कर दी । उन्होंने संजय किशन ने कसीदे पडने वाली खबरों की मीडिया में झडी लगवा दी और प्रेस ने भी उन्हें डटकर छापा । खुशवंत सिंह ने अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के अंत में दिए गए एक इंटरव्यू में तारीख के गीत गाए । अविश्वसनीय रूप में सुन्दर युवा जिसकी आंखों से सरासर ईमानदारी और तेज प्रवक्ता है । मशहूर पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह तो दृढ निश्चय, न्यायप्रियता, जोखिम उठाने की प्रवृत्ति और एकदम निडर जैसे विशेषण लगाकर मानव संजय के दीवाने हो गए थे । शायद इन्हीं कारणों से आपातकाल के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री बने एलकेआडवाणी को भारत में ब्रेस् के बारे में ये कहने को मजबूर होना पडा । आप से सिर्फ झुकने को कहा गया था मगर आप तो रेंगने लगे थे । हालांकि इतिहास की और भी विडंबनापूर्ण करवट के तहत पत्रकार अब आडवाणी की पार्टी और इसके नेताओं के प्रति इंदिरा के समय में कांग्रेस के प्रति अपनाए गए रुख से भी अधिक नतमस्तक हैं । फॅस क्योंकि डर के मारे चुप्पी साधे बैठा था इसलिए पडने के पीछे जो भी हो रहा है उसका ब्यौरा बाद में ही लिखा जाने वाला था । एम्मा तार लो दिखाती हैं कि आपातकाल वापस लिए जाने के बाद कैसे अचानक नाट के नामों और विस्फोटक शीर्षकों वाली नई पुस्तकों के प्रकाशन की बाढ आ गयी थी । मानव सेंसरशिप के बोझ की भरपाई की जा रही हो, ऐसा ही किसी किताब के पिछले आवरण पर निम्नलिखित सनसनीखेज बिंदुओं में आपातकाल का समूचा संक्षिप्त इतिहास छापा गया था । राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता, प्रबुद्धजन और पत्रकार आधी रात को मारे छापे में बंदी बनाकर जेल में डाले गए । प्रेस का गला घोटकर बढिया किया । बंदियों पर अत्याचार और अपूर्वा नृशंसता घरों और बाजारों को ढहाया गया । मिट्टी में मिलाया मर्दों और औरतों को जानवरों की तरह नसबंदी शिविरों में हाका चंडाल चौकडी का आतंक कानून की हदें पार, चापलूसों और चमचों का रात आपातकालकी इन सनसनीखेज सुर्खियों में जुडने लायक एक पहल और भी थी शुक्र है की परवाह नहीं चडी हमेशा के लिए राज करने का सपना प्रधानमंत्री से मनमानी की छूट मिलने के साथ ही संजय की चौकडी हमेशा सत्ता पर काबिज रहने और एकदलीय राज्य बनाने के ख्वाब देखने लगी । बंसीलाल तो नया संविधान बनाने के लिए नई संविधानसभा की बात भी करने लगे थे । इस संविधान सभा द्वारा इंदिरा गांधी को देश का आजीवन राष्ट्रपति घोषित किया जाना था । बंसीलाल ने समय बीके नेहरू से कहा था, अरे नेहरू साहब, ये सब इलेक्शन इलेक्शन को खत्म कर दीजिए । पहन जी को प्रेजिडेंट फॉर लाइफ यानि आजीवन राष्ट्रपति बना दीजिए । पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के विधानसभाओं ने तो नई संविधान सभा के गठन के प्रस्ताव पारित करके भी भेज दिए थे । मगर शुक्र है इंदिरा ने खुद ही इन सब से इंकार कर दिया । इंदिरा के बारे में जो धारणा लोगों के मन में बनी है, वो तानाशाह बनना चाहती थी । उसका सच यह है कि वो ऐसा कतई नहीं चाहती थी । संपूर्ण सत्ता की चौदह में भी नेहरू की बेटी उन्हें पूरी तरह नहीं बोली थी । किए है कि आपातकाल में चीजें जिस तरह हो रही थी, उससे कभी कभी अपने पर ही संदेह और चिंता के घेरों में खेली हुई नजर आती थी । उन अकल्पनीय किस महीनों की समाप्ति करीब आते आते जब उन्हें लगातार बढती अलाहाबाद में जबरिया नसबंदी की सूचनाएं मिलने लगी । गांवों के स्कूल शिक्षकों को कैसे नसबंदी के लक्ष्य पूरे करने को बाध्य किया जा रहा था । उन्होंने धर चाहिए हाँ की भी के सुर में पूछा, क्या उन्हें लगता था कि आपातकाल को जारी रखा जाए? उन्होंने मुख्यमंत्रियों को ये कहते हुए सख्त संदेश भेजा, परिवार नियोजन के उपायों का प्रचार करने के दौरान लोगों का उत्पीडन करते हुए जो भी पाया जाएगा, उसे सजा दी जाएगी । लेकिन अब तक तो बहुत देर हो चुकी थी । सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं, शुरू के छह महीने में तो उन्हें लगता था क्या पात का लगाकर ठीक ही किया । लेकिन बाद में मुझे याद है उसके बारे में भी भारी महाराष्ट्र में गिर गई थी । राष्ट्रिक जिद्दू कृष्णमूर्ति उन्हें डॅालर्स बनाते थे और उनके सामने और उन्हें लगती थी । कृष्णमूर्ति के साथ की अपनी किसी मुलाकात में वो सुबह सुबह कर होने लगी थी । कृष्णमूर्ति ने सलाह दी, सही कार्यवाही जरूरी है । पर्यवेक्षकों के अनुसार आपातकाल के हालात के बारे में उन्हें उससे कहीं ज्यादा जानकारी होती थी । जितना भी जाहिर करती थी । आखिर में वे आजिज आ गई थी और आपातकाल से किसी भी तरह हर कीमत पर छुटकारा चाहती थी । लेकिन आपातकाल को उन्होंने जब खत्म किया, उससे पहले अगर वह से हटाना चाहती तो संजय द्वारा उसका कडा विरोध उन्हें वैसा करने से रोक देता । नटवर सिंह का मानना है उन्हें पक्का पता था कि क्या कुछ चल रहा था । इस बारे में कोई शक ही नहीं है । उन्होंने सिर्फ संजय के कारण उसकी अनदेखी की । हम तथा इंदिरा गांधी अपनी असुरक्षाओं पर काबू पाने में कामयाब रही । उनकी बुराई पर उनकी अच्छाई की जीत हो गई । अकेले पलों में जवाहर लाल की आत्मा शायद उन्हें कचोटती होगी । उनकी तस्वीरें मानो उन्हें गुस्सैल नजरों से देखती होंगी । उनके गानों में पिता की आवाज पूछती होगी । उन्होंने अपनी राजनीति पर कैसे अमल किया और उनके साथ बताए गए लंबे समय उनका दिमाग में कौंधते और काट के रहते होंगे । उन्होंने होने वाले आम चुनाव एक बार पहले ही डाल दिए थे । चुनाव प्रचार में हमेशा बढ चढकर शामिल होती थी । इसलिए उन्होंने सोचा होगा कि उन्हें दोबारा मुल्तवी करने का संदेश गलत जाएगा । उन्हें कदम ज्यादा आने लगे । ठाठें मार दी । भीड की नारेबाजी उन्हें याद आई नहीं, सिख जमघट के बीच वो उल्लास हमेशा महसूस करती थी । अब सरकार उन्होंने उम्मीद में अठारह जनवरी को अचानक ऐसा दांव चला । इससे सभी हतप्रभ रह गए । इससे देश में उत्साह की तरफ दौड गई और अखबार की सुर्खियों में जो धमाकेदार रूप से प्रकाशित हुआ उन्होंने अविश्वसनीय मगर सहज रूप में पांचवीं लोकसभा भंग करने और दो महीने बाद चुनाव कराने की घोषणा कर दी । इंदिरा गांधी ने के आम चुनाव की घोषणा करते हुए अपने प्रसारण में कहा था, हर एक चुनाव विश्वास पर आधारित है । इस सार्वजनिक जीवन में भ्रम को मिटाने का अवसर है । इसलिए जनता की शक्ति को शर्म आती रखने के संकल्प के साथ आइए चुनाव करें । बात के एक साक्षात्कार में उन्होंने खुद को अपनी खास बेबाक व्यवहारिकता के साथ अभिव्यक्त क्या आपातकाल और चुनाव डालने का कारण देश में व्याप्त अस्थिरता और अनुशासनहीनता थी? हम जब उस परिणति से उबर गए तो मैंने सोचा कि अब चुनाव कराने का वक्त आ गया । यह विशुद्ध लोकतांत्रिक कार्यवाई थी । चुनाव की घोषणा भी उनके विरोधियों के लिए उतनी ही विस्मयकारी थी जितनी आपातकाल लगाने की घोषणा और उन्होंने ये स्पष्ट रूप संजय द्वारा कडे विरोध के बावजूद किया था । चुनाव के सौरभ सर्वरूप था और जिसने उनसे कहा था, आप सबसे भीषण गलती कर रही हैं । उनके द्वारा संजय के बाद नहीं मानने से शुद्ध हुआ कि वे अपनी राजनीति और अपने फैसलों के लिए उस पर इतनी बुरी तरह भी निर्भर नहीं थी जितनी धारणा बन गई थी । हालांकि ऐसा लगने का कारण उनके द्वारा उसे इतनी अधिक मनमानी करने की छूट दिया जाना था । उसके प्रति उनके असीमित महोने ही ये धारणा बनाई की वही उन्हें नियंत्रित कर रहा था । मगर तो साहसी, नटखट और पुराने वाले छोडने को चुप चाप चुराती । चौकन्नी शेरनी के समान उन्होंने कभी भी सत्ता की बात लोग अपने हाथ में से वास्तव में जाने नहीं दी थी । वो कहने वाली थी, मैंने ही आपातकाल की घोषणा की और मैं नहीं उसे समाप्त कर दिया । हमने संसद द्वारा अनुमोदन के बाद ही चुनाव पूरे एक साल के लिए डाले थे । उसके बाद मैंने सोचा विदेश अब शांत है । अर्थव्यवस्था स्थिर है और चुनाव न कराने का कोई कारण ही नहीं है । अपहत कल से अपेक्षाकत आर्थिक स्थिरता कायम हो गई थी । चुनाव मुल्तवी करने के पीछे उनका इरादा आपातकाल के फायदों को मजबूती से अपनी जगह जमाने देना था । उन्होंने कहा, मैंने जो फैसला किया उसका मंत्रिमंडल और संसद में भी अनुमोदन किया । उस सिर्फ माना ही नहीं बल्कि उसका समूचे देश नहीं स्वागत किया था । यदि हम में ही चुनाव करवा लेते तो हम भारी बहुमत से जीते । हमने चुनाव नहीं करवाए क्योंकि हम अर्थव्यवस्था को स्थिर करना चाहते थे । उन्होंने शायद ये समीकरण लगाया होगा और साल भर बात चुनाव करवाने से और बेहतर परिणाम निकलेगा । उन्होंने अपनी तानाशाही क्यों खत्म की, इसका और भी कारण था । खासकर अनेक अंतरराष्ट्रीय मित्रों जैसे संयुक्त राज्य में डोसी, नौजवान युनाइटेड किंगडम में जॉन क्रेक द्वारा की जा रही उनकी निंदा को बर्दाश्त करना उनके लिए बेहद मुश्किल था । क्रिकेट सिर्फ उन के कडे आलोचक हो गए थे, बल्कि उन्होंने आपातकाल के खिलाफ प्रदर्शन भी आयोजित किए थे । लंदन के अखबार द टाइम्स ने तो इस भारत के विज्ञापन भी छापे थे । टूट लेट टरलाइट को आउट ऑफ इंडिया डेमोक्रेसी, भारत के लोकतंत्र को धूमिल मत पडने दो और अभिनेत्री कलिंडा जैक्शन और इतिहासकार ए पी । जे । टेलर जैसे मशहूर हस्तियों ने अपनी नाराजगी जाहिर की थी । नॉर्मल को के सितंबर महीने में ही बहुत पर व्यंग्य करते शर्मिंदगी भरे पत्र में उन्होंने लिखा, यदि तुम जालम तानाशाह से उपहार लेना बर्दाश्त कर सको । यहाँ कुछ ऐसा है जो मैंने तुम्हारे लिए कुछ वर्ष पूर्व से रखा हुआ था । टैली कहते हैं, चुनाव कराने का महत्वपूर्ण कारण अवश्य ही अंतरराष्ट्रीय मत द्वारा अस्वीकृति जताना रहा होगा । खुद को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की दिग्गज समझती थी मौनी की बताते हैं, मुझे लगता है कि मैं मार्गेट थैचर को उनसे मिलवाने ले गया था श्रीमती थेचर । उनके सामने बिल्ली की बच्ची महसूस हो रही थी । मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, मैगी के साथ समस्या यह है क्या पहले से उनके बारे में सटीक अंदाजा लगा सकते हैं । उनकी नजर में ये बात कमजोरी की प्रतीक थी । उनकी नजर में अपने इरादों का अंदाजा किसी को न लगने देना अच्छी बात थी और लोगों को अनुमान लगाने पर मजबूर करना ही खूबी थी । उनके द्वारा चुनाव कराने के निर्णय की तारीख एकदम एक अनअपेक्षित नेता ने कि जयप्रकाश नारायण ने कहा, इंदिरा ने अप्रतिम साहस जताया है । उन्होंने ये महान कदम उठाया है । प्रिया श्रीमती गांधी आपातकाल लगी । किस महीने बीतने पर आपने जब अन्ततः चुनाव करवाए तब क्या आप अपराधबोध से ग्रस्त थीं? क्या आपको कभी ऐसा हुआ? क्या आपके पिता अथवा मानें? आपातकाल के दौरान हुई तमाम घटनाओं पर क्या प्रतिक्रिया की होती है? आपका लागू होने के कुछ ही हफ्ते बाद आप अपनी बाइयां सडक में से परेशान हो गई थी । क्या वो ऊपरी तौर पर नियंत्रक आंतरिक उथलपुथल का परिणाम था? फडकने ऐसी बेकाबू हो गई थी । उसे नियंत्रित करने की पेशकश जे । कृष्णमूर्ति को करनी पडेगी । आपने उतना ही पश्चाताप जताया जितना किसी रानी से अपेक्षित था । यदि कोई कठिनाई हुई हो तो उसके लिए हमने गहन खेद जताया है । विभिन्न पदों पर बैठे लोगों ने अपने अधिकार का दुरुपयोग किया । कुछ बातें जरूर गलत हो गई थी । अस्पतालों तक में भले ही सबसे अच्छी देखभाल उपलब्ध हो, अगर मामले बिगड ही जाते हैं । जिस राजनीतिक सूझबूझ के लिए आप मशहूर थे, क्या होता है, वह जाग्रत हो गई थी और उसने आपको यह अहसास कराया है की आपकी सरकार, आप और संजय इतने अधिक बदलाव हो गए थे । सूचना का प्रभाव बंद कर दिए जाने के कारण अलग अलग पड जाने और गहन चुप्पी तारीख हो जाने से फिर रहे खतरे को अपने भाप लिया था । छुट्टी भी डर आती है । स्थिरता से पैदा होती परेशानी की लहरें दूर गूंजती चीज थी । आपके कानों तक पहुंच गई थी आपने किस्से सुने आपने पी अंधर, बीके नेहरू और फ्री नहीं हो पता पुपुल जयकर के लटके हुए चेहरे देखिए कनखियों और फुसफुसाहट से कहीं जाते संवादों से आपको कुछ ना कुछ कमी महसूस हुई । जीवन्तता की कमी निर्वाह लेकिन अपनी अपर हरिता के बारे में आपका आत्मविश्वास फिर हावी था और आपने तमाम आशंकाओं के बावजूद आपको लगा कि जनता आप की संभावना को समझेगी । वो हमेशा आपका समर्थन करेगी । आपको संधि का लाभ देगी । आखिरकार आप इंदिरा गांधी थी तो पैदा ही राज करने के लिए हुई थी । आपको अभी तक के समझ में नहीं आया होगा कि भारत आपकी उस कल्पना से भी अधिक तेजी से बदल रहा था, जिसमें आपको युगों पुराने वंशवादी राज परंपरा के खेरे में कस रखा था । चुनाव कराने की घोषणा करते ही अधिकतर राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया, सेंसरशिप उठा लिया गया और फॅमिली तथा अन्य विदेशी संवाददाता भी भारत लौट आए । तली कहते हैं, महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने चुनाव की घोषणा उन्होंने आपातकाल औपचारिक रूप से हटाया नहीं था । इसका मतलब ये हुआ यदि वे चुनाव जीत जाती तो आपातकाल शायद जारी रहता है । आपातकाल तो चुनाव के बाद ही औपचारिक रूप में खत्म किया गया । ताजा चुनाव की घोषणा के बावजूद इंदिरा आपातकाल लगाने के अपने फैसले को सही ठहराती रही । वही तो लोकतंत्र को बर्बाद कर रहे थे । उन्होंने कहा कि वो क्योंकि चुनाव में नहीं जीत पाए थे इसलिए उन्होंने कहा हमें सडक पर लडना चाहिए । मोरारजी देसाई का ये बयान कलम बंद है कि हम प्रधानमंत्री निवास और संसद का घेराव करेंगे । अन्य विपक्षी नेता ने कहा कि यदि हम मतपत्र से नहीं जीत पाए तो हम बन्दूक की नौ पड जीतेंगे । उन्होंने पुलिस और सेना को लगाया और देश भी जबरदस्त अनुशासनहीनता पैदा कर दी थी । हम यदि उन्हें नहीं रोकते भारत थी, सबूत नहीं बचता । जनता के बीच उन्हें ये समझा लेने के ऋण संकल्प के साथ गई । आपातकाल भारत के लिए विशेष सेवापति उन्हें पूरा भरोसा था कि मेरे लोग इस बात को समझ जाएंगे । चुनाव बस दो ही महीने दूर थे वो इंदिरा ने खुद को प्रचार में झोक दिया । संजय पहली बार अमेठी से चुनाव लड रहे थे । अभियान झटका था । अपने किले की सुरक्षित हाथों से बाहर निकलते ही उन्हें जनता की नाराजगी की आंधी से रूबरू होना पडा । इसकी चिंता से भारी असर बडा प्रमाण और याद करते हैं । उन्होंने जोशीले भाषण दिए मगर श्रोताओं की संख्या बहुत कम होती थी । एन इसी वक्त उन्हें हाॅस्टल की गहन मार झेलनी पडी । उनके सारा जहरा फल गया । इससे जाहिर है क्यों? भीषण दर्द होता होगा । मगर वही प्रचार में जुटी रहे जनसभाओं में और उनकी तरफ पीठ कर लेती और गुस्से में नसबंदी मुहिम के खिलाफ बोलती और कहती कैसे उनके मर्दों को कमजोर और नपुंसक बना दिया गया है । नसबंदी डरावनी उपमा बन गई । ये मर्दों को कमजोर करने की परिकल्पना थे कि समूचे देश को बढिया कर देने का प्रतीक बन गई । उस चुनाव अभियान की रिपोर्टिंग करने वाले डाली जांच करते हैं, भी शांत रहती । उनके प्रति कोई प्रतिक्रिया ही नहीं जताती । इससे भी घबरा गई । रामलीला मैदान की जनसभा में उन्होंने मंच से उतरकर उनके बीच जाने की कोशिश की है । मगर सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक लिया । प्रचार मुहिम के दौरान इंदिरा ने अपने विरोधियों को यहाँ तक कह डाला, चैनलों में जाओ, एक अनुभवी बुजुर्ग नहीं, हवा के बदले रुख को भांप लिया और महसूस किया कि जो व्यक्ति कांग्रेस को सबसे बडी पूंजी सिद्ध होता था, वहीं इस चुनाव में उसके गले का पत्थर बन गया था । कांग्रेस के शीर्ष नेता और नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल और कभी इंदिरा के विश्वस्त सहयोगी रहे जगजीवन राम ने पार्टी से इस्तीफा देकर अलग दल बना लिया और जनता गठबंधन में शामिल हो गए । उनकी विदाई से तगडा झटका लगा । विपक्ष को इंदिरा पर बढत मिलती दिखने लगी । जनसमर्थन विपक्ष के लिए धीरे धीरे जनज्वार बंदा गया के मार्च महीने में भारतीय लोकतंत्र ने ऐसी करवट ली जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । इंदिरा गांधी और कांग्रेस का सूपडा साफ हो गया । इंदिरा और संजय को भी अमेठी और रायबरेली में उनके चुनाव क्षेत्रों में हार का सामना करना पडा । इंदिरा को उनके पुराने प्रतिद्वंदी राजनारायण ने हराया और इंदिरा गांधी को हराने वाले एकमात्र नेता के रूप में उनका नाम इतिहास में दर्ज हो गया । आजादी के बाद से तब तक के अपने सबसे खराब चुनाव नतीजे में महत्व सीटें कांग्रेस की झोली में आई । उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई । पार्टी का उत्तर भारत से मात्र दो सीट जीतकर सूपडा साफ हो गया । हालांकि दक्षिण भारत में उसका वर्चस्व बरकरार रहा । इंदिरा के विरोधी जीत गए जनता पार्टी पूर्ण को बहुमत मिल गया । चालीस फीसद वोट पाकर वह दो सौ अट्ठानबे सीटों के साथ सत्तारूढ हुई । आजादी के बाद पहली बार दिल्ली की गद्दी तब कांग्रेस की मुट्ठी से निकली थी । भारत की पर्यायवाची और निर्द्वंद्व सत्ता की धनी महिला को धूल चाटनी पडी । उन्होंने वोट की ताकत को नकारने की हिमाकत की थी । मगर अब वोट की ताकत के आगे नतमस्तक हो गई । अपनी हार में उन्होंने विनम्रतापूर्वक लोकतंत्र में आस्था दोहराई । हारने पर उन्होंने उसी मंदिर में शीश नवाया, जिसको वे तहस नहस कर चुकी थी । इंदिरा गांधी हारी । अगर लोकतंत्र जीत गया चुनाव करवाने और आपने हारने पर जनमत को स्वीकार करने से उनकी कुछ तो राजनीतिक जमीन बच गई । उस समय ये दुनिया के एकमात्र ऐसी तानाशाह बनी, इसमें स्वेच्छा से सत्ता हस्तांतरित कर दी । उनकी हार से स्वतंत्र भारत में पहली बार एक शासन से दूसरे शासन के हाथ नहीं, सत्ता का संवैधानिक हस्तांतरण हुआ । इसका परिणाम भारतीय लोकतंत्र की जडों को ऐसे रूप में मजबूती मिलने से निकला, जिसकी किसी कभी नहीं कल्पना नहीं की थी । साल के ऐतिहासिक चुनाव में भारतीय नागरिकों को सिर्फ अपने मत की ताकत का ही एहसास नहीं हुआ । देशभर के राजनेताओं को पूर्ण सत्ता हासिल करने और उसके प्रयोग के खतरों का भी भलीभांति भान हो गया । शारदाप्रसाद लिखते हैं, इंदिरा गांधी के आपातकाल से जो उपलब्धि पाई तो ये थी कि उन्होंने ये सुनिश्चित कर दिया भविष्य में कोई भी प्रधानमंत्री इस की शरण में जाने की जरूरत नहीं करेगा । पुपुल जयकर उम्मीद सौ सतहत्तर में बीस मार्च की उस रात को इंदिरा गांधी से मिली थी । उन्होंने कहा, वो पल में हार चुकी हूँ । उनकी आवाज में शांति और सभ्यता का पुट था । आपातकाल के हमेशा ही खुले आम आलोचक रहे राजीव गांधी बोले, मैं मम्मी को ऐसी हालत में पहुंचाने के लिए संजय को कभी वापस नहीं करूंगा । वही जिम्मेदार है । बाद में वैसे ही भाव प्रकट करते हुए राजीव अपनी माँ से कहा, आपको इस मुकाम पर लाने वाले संजय और धवन है । इंदिरा गांधी ने जवाब में कुछ नहीं कहा, मगर वे निराश लग रही थी । प्री श्रीमती गांधी अपनी हार से आपने क्या सबक सीखा? आपातकाल आज भी जारी है । इसके दुखद प्रेयर अब भी हमारे जीवन पर मंडरा रहे हैं । यदि आप कोई राय दे पाती तो वर्तमान सत्ताधारियों को क्या सलाह देती है? क्या ये कहती न्यायाधीश के आदेशों का पालन करूँ है? वो कितना भी अस्वीकार्य हो, नौकरशाह पर भरोसा करो, भले ही उसे वफादारी जताने का शौक ना हो । राजनीतिक सहयोगियों की प्रतिभा का आदर करो, परिवारजनों को राजनीतिक जीवन में दखलंदाजी मत करने दो । आपने यदि आज के परिदृश्य को देखा होता, जब अदालत के आदेश को कोई राजनेता नकारता है, जब ईमानदार नौकरशाह राजनीतिक मनमानी के कारण तबादले का शिकार बनते हैं । जब दलों से सर्वोच्च व्यक्ति पूजा का अंधानुकरण कराया जा रहा है, जब राजनेता कुनबापरस्त राजनीति कर रहे हैं, संसद का अपमान किया जा रहा है, आप निश्चित ही कहीं न कहीं अपराधबोध से ग्रस्त होती है । आपातकाल में सिद्ध किया की नीलाम कुछ सत्ता पूरी तरह भ्रष्ट का डालती है । चांदी के चंद्रशेख क्योकि रिश्वत लेने का भ्रष्टाचार भर नहीं है, बल्कि आपातकाल ने भारत के नैतिक कवच को तार तार कर दिया । नैतिक और बौद्धिक चाचा, जिसने उन संस्थाओं को खोखला कर दिया, जिन पर निर्णायक रूप में भारतीयों की रोज मर्रा का कल्याण और बेहतरी निर्भर थी, आती थी, आज भी जिंदा होती तो ये देखती । चार दशक बाद आपातकाल का क्या परिणाम सामने आया । तो क्या मौजूदा राजनीतिक संस्कृति के व्रत, कोई जेपी छाप, सत्याग्रह, आन्दोलन छेडती आपातकाल लगाकर न्यायाधीशों को धमकाया गया? नौकरशाहों पर डर का साया सारी रहा । फॅमिली लगी राज्यों की विधानसभाओं की स्वायत्तता खत्म हो गई और सरकार के सामने पार्टी ने घुटने टेक दिए । संक्षेप में कहीं तो संविधान द्वारा इतने जतन से खडे गए भारत राज्य के बहुमूल्य व्यवस्तम तोड गए नागरिकों की जगह इंदिरा ने चापलूसों की फौज खडे गी । सामंतवादी समाजों का अभिशाप थी नेहरू और उनकी पुत्री के बीच बहुत दिखाई तब सबसे अधिक चौडी हो गई थी । आज सर्वोच्च नेता के रूप में हत्या कर कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को अपने को उद्यत दिख रही है तो हम इतना ही कह सकेंगे शुक्रिया श्रीमती गांधी संस्थाओं कोरोनरी गाना शाह आज भी तारीख है और भारत संस्थागत रूप में कागजी तथा कमजोर होता जा रहा है । अनेक राजनेताओं की ये मान्यता है दक्षिण शासन के लिए अपने हाथों में संपूर्ण सत्ता समेटना, नागरिक अधिकारों का गला घोटना और मतभेद को कुचलना जरूरी है । सुप्रीम पूजा की प्रणेता और मूल इन रही थी जिनके द्वारा विराट व्यक्तित्व शासन प्रणाली पर समूचा नियंत्रन और अपने विरोधियों को धूल चटाने में महारत हासिल करते हैं । आपातकालकी विरासतों में मीडिया के प्रति इंदिरा द्वारा व्यक्त दुश्मनी भी शामिल है । वो ये समझने में नाकाम नहीं । लोकतंत्र में मीडिया को सत्ताधीशों से अवसर छत्तीस का आंकडा काम करना पडता है । इसके बावजूद अपने समय में तो कम से कम संवाददाता सम्मेलनों में तो शामिल हुई और उन्होंने प्रेस को इंटरव्यू तो दिए थे । वर्तमान सत्ताधीश सरकारी विज्ञप्तियों और तयशुदा सवालों के जवाब देकर सूचना को नियंत्रित करना ही पसंद कर रहे हैं । इंदिरा के बाद अधिकतर नेता मीडिया के साथ सामान्य संबंध नहीं बना पाए । उनके पुत्र राजीव तो मानहानि विरोधी विधेयक लाने पर उतारू थे । उनके परिवार जान सोनिया तथा राहुल गांधी प्रेस से बचते हैं और लम्बी साक्षात्कार देने से परहेज करते हैं । वर्तमान नेताओं के समान ही उन्होंने भी छत्तीस के आंकडे वाले पत्रकारों के महत्व को संविधान प्रदत्त सत्ता के संतुलन के लिए आवश्यक सभी नहीं माना । अखबारों पर नियंत्रण ठोकने से मैं खुश तो कपडे नहीं हूँ मगर कुछ बन्दों ने तो निष्पक्षता और स्वतंत्रता को ताक पर रख दिया था और स्वयं ही पूरी तरह विपक्षी मोर्चे के साफ मिल गए थे और निराशा और पराजय का माहौल बनाने में जुटे हुए थे । उसके पहले भी प्रेस सरासर हमारे खिलाफ था । उन का नजरिया यही रहा कि प्रेस मेरे वृद्ध था, अपना मेरे साथ और दुर्योग से उनके प्रधानमंत्रित्व के बाद से राजनेताओं की पीढी की मानसिकता में यही बात चेहरे बैठ गई है । आपातकाल लागू करना अच्छा नहीं होगा मगर आपातकालकी मानसिकता नहीं, पीछा नहीं छोडा है । ये बात एल । के । आडवाणी ने साल दो हजार में एमरजेंसी की चालीस साल गिरा पर कही थी । तभी इंदिरा के प्रतिद्वंदी रहे आडवाणी शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यप्रणाली पर इशारा कर रहे थे, जिनके आलोचकों ने उन पर बहुदा तानाशाही प्रवर्तियों का शिकार होने का आरोप लगाया है । वो शायद उन्होंने मुख्यमंत्रियों को भी इंगित कर रहे थे, जो अपनी राज्य सरकारों को निरंकुश सामंतों की तरह चलाते हैं । शायद वे एकदम सहजता से ये स्वीकार कर रहे थे कि भारत के राजनेता आज भी सत्ता के दुरुपयोग के दांवपेचों के लिए इंदिरा गांधी को ही गुरु मानते हैं । आपातकाल के वर्षों का वह अंधेरा तो दूर हो चुका, मगर हमें उस उजली धूप के लौटने का अभी तक इंतजार है, जिसमें लोकतंत्र की सच्ची भावना को सभी राजनेता अंगीकार करें, जैसे जवाहर लाल ने किया था, मगर जिससे अपनाने में इंदिरा त्रासद रूप में नाकाम रही ।
Sound Engineer
Producer