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अदभुत प्रेम की विचित्र कथा - Part 2 in Hindi

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AuthorSaransh Broadways
अदभुत प्रेम की विचित्र कथा writer: अश्विनी भटनागर Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Ashvini Bhatnagar
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दो डेनी ॅ की छत वाले दो कमरों के छोटे से मकान में बडा हुआ था । तंग जगह की वजह से अपने को पंद्रह हुआ सा महसूस करता था । अपने घर के छोटे आकार पर उसे की जाती नहीं । इतने छोटे मकान में भला कौन चैन से रह सकता था । लेकिन खुश देखते थे । दैनिक था कि घर वालों की खुशी बनावटी थी, मजबूरी वाली नहीं । इस बनावट पर भी वो खींच जाता था । फिर मनी मनी क्या करता था कि उसका जीवन एक फॅस वाली छत के मकान से दूसरे ऍप्स वाली छत के मकान के बीच का सफर हरगिज नहीं होगा । वो कुछ और करेगा । इससे जिंदगी फिर कभी कंगना हो आगे बढना था और से मालूम था कि अगर वो अपने दिमाग का सही इस्तेमाल करता है तो सब कुछ संभव हो जाएगा । अपनी तैयारी उसने जल्द ही कर लीजिए और उस पर सबका ये था कि कच्ची उम्र में ही वहाँ को माँ से अलग करने में माहिर हो गया था । वो समझ गया था बीए की डिग्री बेकार थी और शिक्षा की नौकरी उससे भी बत्तर दी । वो अपने को इन तक सीमित नहीं कर सकता था । उसको बहुत बेहतर जिंदगी चाहिए नहीं शुरू शुरू में नायाब जिंदगी का स्वाद उसको खामखयाली रखता था । फॅमिली इस तरह दिल में रहा था कि उस पर सुना हो गया था । उसके पीछे अपने अपने को बडे हिसाब से दौडाने लगा था । उसके पिता सिर बी ए पास नहीं और डैनी को लगता था कि खालिस् बी । ए पास से ये कतई उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह बेहतरी के लिए कोई रणनीति बनाएगा क्या? फिर ब्रांडिंग जैसे नए विचारों का सिर आप अकड सकेगा? उनके शैक्षिक कौशल में मूलभूत करी थी और इसलिए उनकी कुलजमा काबिलियत से कोसो दूर की बात थी । ये पास होने का मतलब लिख लेना पड सकता ना और गिनती गिन लेना था । जब ये सब ठीक ठाक सीख जाते थे तो एक लडकी की लाइन के आखिरी छोड से नत्थी कर दिया जाता था या फिर किसी खस्ता हाल स्कूल में मास्टर बना दिया जाता था । सब रहट के कनस्तर थे । एक घेरे में बंधे हुए एकदम लामबंद । पहले स्कूल के रहत पर बन्दे थे । अफ्रीकी फर्क सिर्फ इतना था कि छोटा कनस्तर बडा हो जाता था पर पानी निकालने और उबलने के बीच में रहता खाली का खाली था । लेकिन समय बदल रहा था और उन्हें क्या कम से कम उसके पिता को तो बेहतर नजरिया अख्तियार करने की जरूरत नहीं है । ऍम से क्या उम्मीद की जा सकती थी? वो कैसे अपने को लीग से अलग कर सकते थे? कैसे कुछ नया सोच सकते थे और अगर ऐसा करने की कोशिश भी करते हैं तो उसको चतुराई कहा जाता है । उन दिनों चतुर होने का मतलब था चालू होना । बेईमान होना तो ठंड और फिर हाथ हुआ करते थे या फिर पश्चिमी दुनिया के चंद पूंजीवादी बस तब उसके पिता जैसे लोग कनिस्तर बनने में ही अपनी वाहवाही समझते थे । उनके मुताबिक एक लीग तो होनी ही चाहिए थी । चाहे किसी भी वास्ते यही एक तरीका था शायद ईमानदार तरीका, फैशनेबल तरीका जो सबको भागता था । अपनी ना किसी दूसरे की पीठ से लगाकर लाइन में खडे होना ही स्वीकार्य था और लाइन के लगे लोग आगे तभी सकते थे जब समाजवाद ऍम दुनिया के किसी दूर होने में हलचल होती थी । लाइन से हटकर कुछ कर रहा या जतन करना पाप था । दूसरे शब्दों में लाइन में लगे रहना अवामी मजहब की रवायत थी । इसमें कोई गुस्ताखी नहीं हो सकती थी । रवायत निभाते हुए पिताजी ने उसका नाम तीन अनाथ रख दिया । शक था उन्होंने ये नाकाबिले बर्दाश्त देसी ना अपने स्कूल के किसी बडे अफसर को खुश करने की खातिर रखा था, ना उन जैसे लोगों की शिक्षित जैसा ही था । नीरज देशवार बे मजा मुफलिस पुरान खंड ऍम फॅमिली ने अपने पिता से अपने नाम को लेकर एक बार सवाल भी किया था । उन्होंने अपने स्कूल मास्टर वाले अंदाज में समझाया था ये ईश्वर का पर्याय है उस सर्वशक्तिमान का जो दीन हीन प्राणियों का नाथ है और डैनी को दीना नहीं नहीं लगा था और नाथ में अनाप जाहिर हुआ था । उसके पिता का नाम देवकीनंदन था यानी देवकी के पुत्र कृष्ण । लेकिन अपनी छोले जैसी लंबी कमीज में उनके हड्डियों के ढांचे सरीके वजन पर झूलती रहती थी और फॅमिली इनके पख्तून में खुसी रहती थी । वो खूबसूरत का नहीं आया कि बॉडी नकल लगते थे । वृन्दावन के सुबह भागों में जिनके इर्दगिर्द गोपियां मंडराया करती थी तो ईश्वर थे । जिन्होंने गीता का उपदेश दिया था । उस जिस्मानी और रूहानी धर्मस्वरूप का नाम उन्होंने खटिया लिया था । उसके पिता तो वैसा पांच पढा भी नहीं सकते थे । कृष्ण जैसी दिलकशी अपने में लाना तो बहुत दूर की बात । उसे अक्सर हैरत होती थी कि जिस नाम से ईश्वर ने धरती पर हूँ, धारण किया था । उस नाम को रखने की जरूरत क्या थी? क्या जरूरत थी के नाम के जरिए गरीब, अमीर और अमीर गरीब का स्वांग रचा । पर ऐसा ही चलता था । उसके एक अमीर पडोसी जो कोयले और राशन की दुकान के मालिक थे । कहना गरीब जब था और वैसे भी वो सिर्फ दीनानाथ नहीं था । उसकी माँ से वीनू कहकर बुलाती थी । दोस्तों से दिन कहकर पुकारना पसंद करते थे । बस क्लास में हजरी लगाते समय दीनानाथ नाम लिया जाता था । बाकी सब समय दिन ही पूछता था । दसवीं में दाखिल होते ही उसने फैसला किया था कि वो अपना नाम बदल देगा । वो डी नाथ बन गया की दूसरी बार था तो उसका नाम संक्षिप्त हुआ था । पहली बार पैदाइश के समय पिता ने समाजवादी और जाती विहीनता के अपना सिद्धांतों को उस पर लाते हुए नाम से जाती सोचा दीक्षित घटा दिया था रावण दिन आना । दीक्षा सिर्फ दीनानाथ हो गया था । जन्म से ही कांटछांट शुरू हो गयी थी । इसीलिए उसने अपना नाम और छोटा कर दिया तो कोई कोहराम नहीं मचा था । आखिरकार जब कोका कोला हो सकता था तो दीनानाथ तीन आप तो नहीं हो सकता था । ऍम छोटा था, ट्रेंडी था और शायद स्मार्ट भी कॉलेज पहुंचने पर डी ना केवल नाथ हो गया उसे पुकारने वालों को इस बात से कोई सरोकार नहीं था । नाम ने डीके मायने क्या थे ये विवरण फिजूल था ना याद रहने वाला नाम था । बाकी सब बे मतलब था । लेकिन नाथ हो क्या डीना याददाश के लिए ठीक थे । पर दोनों में वो ठसक नहीं थी जिसकी इसको तलाश उसका कॉलेज का साथी लंबा बना ठना राजेंद्र सबके लिए रहेंगी था जब लडकियाँ राजेंद्र को रहेंगी के नाम से पुकारते थी । बिना को बहुत अच्छा लगता था । एक अजीब से विदेशी कशिश थी उस नाम में जब धूलभरे फुटबॉल मैदान के आरपार बोलता था । उसका विदेशीपन बेतकल्लुफी बिल्कुल वैसे ही थी जैसे बचपन में बडे आॅफर टाइप किरदार रहेंगी में थी । रेंगी में किसका रोमांस था नाथ में कतई नहीं था । हाँ तो उसे कुछ लडकियों ने बताया भी था कि उन्हें नाथ बुलाना बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि उसका मतलब मालिक था एक बेहतर नाम और जरूरी हो गया था ना । क्या डीना लंबी दौड वाले नाम नहीं थे । दूर कहीं वो भविष्य उस की प्रतीक्षा कर रहा था जिसका उसे पहली बार रहेंगी के साथ ऑफिसर्स क्लब जाकर दिखा था । वहां उसने गौर फरमाया था इस साहब सरीखे देखने वालों को कडक कलफ की कोई शानदार वर्दी में मेरे वहाँ पर सलीके से बडा सा ऍम डाले अदब से ड्रिंक सर्व कर रहे थे वो भी एक दिन बडे शहर के लाउंज में यकीनन बैठा होगा जहाँ फर्स्ट हरे सफेद गुलाबी संगमरमर के होंगे न कि छोटे शहर के सीमेंट वाले रेंगी ने उसका तार्रुफ शहर के खिलाते होटल से भी करवाया था । एक अजीब से दिलफरेब महक थी होटल की आबोहवा में घर की भूख से हम अपने घर में दोस्तों के घरों में अलग अलग तरह की भूख लगती थी । एक घर से दूसरे घर जाने का मतलब एक दम से दूसरी भूमि जा रहा था । उसको ये सफर नापसंद था उसका अपना घर धीमी सुरक्षा भी आज पर चडी पीनी दार और तवे पर सिखती रोटियों की गन समिति रहता था । एक रुकी सौंधी सी मैं जो आटे के पक नहीं होती थी । सुबह दस बजे खाना बनना शुरू होता था और घंटे बर्बाद जब चौके में छोटी चौकियों पर काली गाय के दूध से बने देशी घी के साथ परोसा जाता था, उसकी महक नथुनों में भर जाती थी । रूखापन चुपड जाता था । ये तो नहीं कह सकता था क्यों से ये सब ना पसंद था, बस रहेंगे । घर में पसरी गन कुछ अलग ही थी और तेज थी रेंगी की तरह पहली मुलाकात में यूज ऍम बाहों में जगह लिया था वो चला गया था वो उसके बूक आक्रमक थी, सिर्फ बढ चढकर बोलती थी शायद इसीलिए उसको खाने वाले भी तेज तरार थे । उसके अपने घर में साथ समझी पकती थी जिसकी मुफलिस तासीर की वजह से घर वालों में कातरभाव बच गया था । लेकिन इन सब बातों से अलग ॅ होटल इसलिए भी बताया था तो वो बहुत साफ और उसकी मैं गैर जानदार थी । उसकी लॉबी आने की तरह चमक रही थी । ऐसी सफाई उसने पहले कभी नहीं देखी थी । रहेंगी के घर में भी नहीं । होटल में बढिया मखमली सोफे थे जिन पर बैठे या आसपास बोल के लोग कुछ पूछा कर बोल रहे थे । साफ सुथरा हल्का सा ठंडा शांत माहौल बेहद ही नाजुक मजाक था और जब वह रहेंगे के साथ लंच के लिए चाइनीज घूम गया तो खाने की महक भी चुप चाप एक शर्मीली लडकी की तरह उसकी बगलगीर हो गई थी ये मैं उसके घर की तरह न तो जी पी थी नहीं रेंगी के घर के माफिक तेज तरार कोई तुम सही थी, माकूल थी । टैनी उसको अपने जीवन का हिस्सा बना लेना चाहता था । ऐसे होटलों और क्लबों में वो बचना चाहता था और मैं जाने से पहले वो ऑफिस में बैठना चाहता था । इसमें साफ सुथरे के दिन हो । प्रॉस्टेट शीशे के दरवाजे हूँ और खिडकियों पर वेनेशियन ब्लाइंड्स लगे हैं । उसके पिता स्कूल में अध्यापक कक्ष में बैठते थे । इसमें गंदली कुर्सियां नहीं हैं । उनमें से कुछ की हालत कितनी खराब थी । उन्हें रस्सियों से बांधकर खडा किया गया था । बीच में बडी लम्बी सी मेज पर चाहिए चाहे और समय के बंद माता थे । जिसके चारों तरफ एक सी लंबी बेरंग कमीजें और पे बम लगी पतलू ने पहले मास्टर बैठते थे । छत पे टंगा एकमात्र ऊर्जा विहीन पंखा नीचे बैठे मास्टर को घूमता रहता था । टोमॅटो की तरह ही कभी कभी काम करता । ज्यादातर वक्त उसमें करंट नहीं होता था । बस दिन महीने सालों से लटक रहा था । बेमन झूल रहा था । मास्टरों की तरह दीनानाथ दीक्षित उर्फ दीनानाथ यानी दिन लूँ उर्फ डी ना जब कॉलेज में दाखिल हुआ तो उसकी खुद को भी हुई तंगी से खींच निकालने की चाहत और तेज हो गई जिंदगी और अपने से उसकी उम्मीदें बिल्कुल साफ हो गई थी । उसके खिलाफ हो, टेरॅरिज्म, ऍम जैसी फिल्मों में होती थी । विदेशी कमीजों और पतलूनों का बडी पसंद है और खुशरंग चमक चटाइयां चाहिए थी । मारुति कार्य उसके जहन में पहले ही बस चुकी थी । कॉलेज का समय काटते हुए बडी संजीदगी से उसने उनको आम आदमी की कार से एयर कंडीशन चमकीली कार में तब्दील होते देखा था । वो चाहता था जल्द ही वह भी अपनी चमचमाती लाल मारुती में बैठकर होटलों और प्रभु में जाए । जाॅन अदब से झुककर उसको सलाम होंगे । दूसरे शब्दों में उसे वो सबको चाहिए था जो उच्च आय वर्ग में शामिल होने के लिए जरूरी था, जो उसे स्टेटस दे सकता था । पैसे उसे मालूम था कि वो अचानक अभी नहीं हो सकता था और अगर हो भी गया तो भी जगह जगह हीरो वाली सोच चार ढल अपने में नहीं ला सकता था । उसके पिता समाजवादी सोच के थे जिनके लिए अमीर होना पूरी बात थी । आमिर गैरभरोसेमंद और संदल होते थे जिनके शरीर पर पूर्व पूर्व मक्कारी से भरा होता था । वो कहते थे कि अमीर हो ना, एक बात है पर खुशहाल होना एकदम अलग बात थी । उनके मुताबिक अमीरों पर हमेशा दुखी रहने की लानत पडी थी जबकि गरीबों को हमेशा खुश और संतुष्ट रहने की दुआ लगी थी । अमीरों को नामालूम कितने तरीके की बीमारियाँ घेरे रहती थी और जैसे जैसे उनकी दौलत में इजाफा होता था, उनका शरीफ घटता जाता था । सच यह था उसे बताया गया था की दौलत के साथ बुरी बुरी लाते हैं । खुद ब खुद चली आती थी और आदमी का सत्यानाश कर देती थी । इसलिए उच्च मध्यवर्ग जैसा लेवल उसी चर्चा था । ये फिक्र नया नया चल अब दिखाया था और शायद देने के लिए ही गढा गया था । इसमें अमीरी गरीबी से बराबरी की दूरी थी । ये वर्ग न तो खरीद था नहीं अभी लेकिन उसके पास सुविधा भोगने भर की संपन्नता थी । उच्च मध्यवर्ग होने का मतलब तीन बेड रूम का मकान था । इसके आगे छोटा सा लॉन हो, एक लाल, उनकी मारुती कार पहले, बिना ऐसी और फिर इसी वाली कमरों में कूलर और ऍम हो । उसके साथ एक सीन से बडी कुर्सियों की जगह फॅमिली वाले सोफे जरूरी थी । फर्श पर टूट की मैच से बढकर कालीन का बच्चा होना उच्चता का संकेत था । इन घरों में रसोई की जगह किचन होता था, जिसमें संगमर्मर ॅ इतने साफ और सफेद होते थे, उन पर रोटी दे दी जाती है । रेंगी का घर ऐसा ही था । पढते थे, साइड टेबल थी । साथ में बैठकर खाने के लिए । डाइनिंग टेबल और बातों में जो प्रश्न था उस सब कुछ एक चुटकी में कटक लेता था । रहेंगी के कमरे में पांच पांच किलो वाले रूम चेक दे नहीं थे । वहाँ नए तरीके के डनलप के गुदगुदे गद्दे और नरम गुदास तक किए थे । जिन्हें जितना जी चाहे तोडमोड हो और उनकी शक नहीं भी करती थी । दैनिक और रहेंगी का था । क्या पसंद था उसके अपने तकिए में तो टूटी हुई की दरारें इस कदर थी कि उनमें गिरकर उसकी गर्दन कई बार टेढी हो चुकी थी । सुबह की गुस्ल के दौरान डैनी वहाँ एक फीट लंबे आईने के सामने खडे होकर अपने प्रतिबिम् से अक्सर सवाल करता था । उसमें ऐसी कौन सी कमी थी जिसकी वजह से वह उच्च मध्यवर्ग में शामिल नहीं हो सकता था । पहले वो अपने चेहरे का आकलन करता था तो उसे ठीक ठाक लगता था । उसके नए नक्ष दीजिए । खान इस भ्रमण वाले थे । दीक्षित होने के बावजूद उसका रंग गोरा था और सब गोरा नहीं । कितने धूप सा गोरा था । पी की काली मुझे घनी बहुत हैं और काले घुंघराले बाल गोरे रंग को और उपहार देते थे । उसके माँ बाप भी गोरे थे । बहन ज्योति नहीं लेकिन उस कारण तीखा हो रहा था । उसके अलावा उसका कद बिना जूतों के छह फीट का था । अपने पिता से लगभग पांच छह इंच ऊपर उसका शरीर ढीला था और अपनी मैरून रंग की टी शर्ट पहनते हुए जब अपनी बाहें मोडता था तो बाहों में मछलियां फडकने लगती थी । उसे अपनी ये पालतू मछलियाँ बेहद पसंद थी । मास्टर देवकीनंदन की नौकरी उस की पढाई लिखाई को धार देने में काम आई थी । शिक्षा तो उनका जाती धर्म था और उन्होंने अपनी निम्न मध्यमवर्गीय हैसियत के बावजूद अपने एकमात्र पुत्र पर अपने समस्त विद्यालय ज्ञान भंडार की वर्ष कर दी थी । नतीजतन दिन हूँ अपने स्कूल का टॉपर था । विषेशकर गणित में उसका आसानी कोई नहीं था । उसके पिता को विश्वास था उनका बेटा प्रधानाचार्य की सीधी भर्ती परीक्षा में अगर बैठा तो जरूर अव्वल आएगा और अपनी जिंदगी वो राज्य के बडे शहर में अच्छे स्कूल के प्रधानाचार्य के रूप में शुरू करेगा । डाॅ जब कभी सुबह अपने से सवाल करता था तो उसे एक ही जवाब मिलता था उसमें वो सब कुछ था जो उच्च मध्यवर्ग का हिस्सा होने के लिए जरूरी था । उसे यकीन था कि ग्रेजुएट होकर निकलने के कुछ ही सालों में वो अपना मुकाम हासिल कर लेगा । एक विकल्प भारतीय प्रशासनिक सेवा का था । आईएएस अधिकारियों का अपना ड्रॉप था । विदेश के असली मालिक थे जो अमीर सुंदर लडकियों से बिहार चाहते थे, लोगों में जाया करते थे और सुख साधन से संबंध जीवन बिताया करते थे । उनकी जी हुजूरी अलग से होती थी और दूसरा विकल्प इंजीनियरिंग का था । कुछ सुन रखा था कि सरकारी विभागों के इंजीनियर टनों के हिसाब से पैसे कमाते थे । लेकिन उनका रुतवा आईए सरीखा नहीं था । उसको इंजीनियर बेहद मुँह हमेशा अधीनस् टाइप भी लगते थे । उनको पैसा होने के बाद भी गरीब और असहाय बनकर रहना पडता था । लेकिन अब सर इंजीनियर डॉक्टर बनने से पहले उसे अपने लिए एक बढिया सा अपर क्लास नाम खोजना था । एक ऐसा नाम जो क्लबों के मैं खानों में या फिर टेनिस कोर्ट में नफीस याराना अंदाज से बुखार आ जा सके । उसे कैसा नाम चाहिए था की छूटी छोटी सफेद स्कर्ट ओ में क्लब में आने वाली हसीनाओं के फोन से लबों पर भी खूब सकें । उसी रहेंगी नाम पसंद था और उसको तो पहले ही राजेंद्र ने अपना लिया था । रहेंगी ने एडी सुझाया और बताया कि गायक एडी मर्फी एक महान हस्ती था । रहेंगी और एडी का काफी अभी अच्छा बैठता था । उसने लगभग एक हफ्ते उस पर विचार किया था । ईडी सुनने बोलने में ठीक था पर एक अश्विन का नाम था । एडी मर्फी महान व्यक्ति होंगे । दुनिया भर में उनके सैकडों चाहने वाले भी होंगे । लेकिन नाम का पहला हिस्सा सुनते ही तो शकल सामने आती थी । वो एक काले आदमी की थी । वो तो हो रहा था । उसका नाम ऐसा कैसे हो सकता था । किसी सुनते ही काला सा चेहरा आंखों के सामने तैरने लगे । सोचने तय किया कि किसी माकूल नाम की खोज उसे जारी रखनी होगी । नाम कुछ तो उसकी झोली में अपने आप आ गिरा था । वो पांच की लाइब्रेरी में कुछ किताबें तलाश कर रहा था । एक पूरी की पूरी शरीर उस पर आगे जैसे तैसे उसने जब उस भारी ढेर को खुद पर से हटाया तो एक किताब उसकी खोज में पडी रह गई थी । कुछ किताब के कवर पर एक सर्जरी से निभा डाली थी । उस पर स्टोन फॉर्म डैनी फिशर लिखा था । वहीं फर्श पर बैठा रहा और शब्दों को देर तक गौर से देखता रहा । टीना दिन लूँ पहनी वह ना मिल गया था । उसे दीनानाथ अबसे डैनी होगा । उसने खुद को अपना नया परिचय दिया था । ऍम बच्चों के कॉल नहीं रहनी । सुनने में अच्छा लगता था । एकदम अच्छा लडकियों को भी अच्छा लगेगा । ऍम के लिए भी सटीक था । इसी नाम के साथ वो बाजार में उतरेगा ।

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Sound Engineer

Voice Artist

अदभुत प्रेम की विचित्र कथा writer: अश्विनी भटनागर Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Ashvini Bhatnagar
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