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अदभुत प्रेम की विचित्र कथा - Part 1 in Hindi

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AuthorSaransh Broadways
अदभुत प्रेम की विचित्र कथा writer: अश्विनी भटनागर Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Ashvini Bhatnagar
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आप सुन रहे हैं तो कोई ऍम किताब का नाम है । अद्भुत प्रेम की विचित्र का था जिसे लिखा है अश्विनी भटनागर में अर्जी आशीष जैन की आवाज में फॅस उन्हें तो मन चाहे हूँ । एक डैनी चालीस वर्ष का हो गया था । वो सफल था, संपन्न था और प्रसन्न था । इधर कुछ समय से उसे लगने लगा था कि वह जिंदगी के साथ रजी एक मस्त साजिश की आनंद धारा में बह रहा है । उसने पास नहीं पडे थे और से लगा था कि वह यकीनन उसकी जिंदगी को सही मायने में परिभाषित करते थे । मस्त साजिश की आनंद धारा दस साल से मौज में था और उससे पहले के बाद साल यानी उसकी कामकाजी जिंदगी के पहले पांच साल रोमांचक चुनौतियों की श्रृंखलाओं से भरे हुए थे । बार बार उसका सामना अपने से कहीं ज्यादा कामयाब और पुनर् मान लोगों से हुआ था और हर बार डैनी ने पाया था कि एन मौके पर उसके दिमाग के कौंधने उनको चकाचौंध कर दिया था । दैनिक पछाडकर मौकों का इस्तेमाल सहयोगी की किस्मत के पूरी तरह से दोहन के लिए किया था । वैसे किस्मत उसके हुनर पर हमेशा रिश्ते रही थी और अगर कुछ पलों के लिए उस ने साथ छोडा भी था तो वो बडे अनमने मन से जुडा हुई थी । उसने कभी लम्बी वोट नहीं की थी । वो तो बस चौखट के बाद अंतराल खत्म होने का बेसब्री से इंतजार करती रहती थी । पांच सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि डैनी को किस्मत की जरूरत महसूस हुई हो और उसके इंतजार में उसके दांत भेज गए हो था । उसने कभी कभी थोडा बेचैन जरूर कराया था पर फिर अफरा तफरी में पेश हो गई थी । इसके चलते डैनी को यकीन हो गया था कि उसके दिमाग के छल मिला है और मौकों की नजाकत नहीं । उसकी जिंदगी को ऐसी कशिश दी थी की किस्मत उसकी तरफ खुदबखुद फिजी चली आती थी । ये ही मस्त साजिश नहीं तो और क्या थी । लेकिन अजीब बात ये थी कि जब भी फॅमिली को गले से उतारने की कोशिश करता था तो उसके अलग से बेवजह ही सूखी खोखली से हँसी फूट पडती थी । उसकी समझ में नहीं आता था कि वह क्यों अनायास ही हँस पडता था । शायद साजिश का मस्त होना अपने आप में हास्यास्पद था और इसीलिए असीसी छूट जाती थी या फिर साजिश में होने की वजह से वो खिसियानी हंसी थी । एक तरह का तंज था उसे अपनी हंसी कभी ये वाली तो कभी वो वाली लगती थी । पर जो भी हो दैनिक हँसी में गुदगुदी देने वाली मौज नहीं थी । उसमें कुछ हूँ, खा पन महसूस होता था । वो कुछ अटपटी सी लगती थी लेकिन उसके बहनोई अनिल को उसके हँसी बेहद पसंद थी । अनिल एक भला और मोहम्मदी शक सा और पूरे दुनिया में अपना झंडा गाडने की ताबडतोड कोशिश ने उसे तोड दिया था । उसने आठ अब भी थी पर इतनी नहीं उससे हो कुछ पका सकेंगे । उनके वो खुद ही पक चुका था । जो ना जल भेजा था । अनिल कॉर्पोरेट कबाड बन चुका था । अनिल को देने की हँसी में प्रशिक्ष लगती थी । उसका कहना था की बडी नफासत से नुमाइश किए बिना वह अपने को निहार लेता था । ये देने की खास अगाधी पाँच भी करता था लेकिन अगले को चुकता भी नहीं था । खुद की खूबियाँ बडे अंदाज से बखान करता था और उसमें से शान मारने की हूँ नहीं आती थी । अनिल कहता था की तरह तो कोई डाॅॅ मगर असरदार तरीके से कराता है । कभी कभार डाॅॅ रूखापन आ जाता था लेकिन हम उसे नजरअंदाज कर देता था । फाइनल कहता था ऍम था और उसके बदलते मूड को अगर तवज्जो ना दी जाए तो बेहतर था । थोडी बहुत खलिश । हर कामयाब जिंदगी की दाल का नमक थी । दूसरों को अपने स्वाद अनुसार उसे नहीं रखना चाहिए था पैसे अनिल में बुराई ये थी कि वो एक अच्छा था । आपने कॉर्पोरेट हादसे के बाद उसने हाथ कटे उसूलों की दुशाला ओड दी थी जिसे वो कभी कभी धूप तो जरूर दिखा देता था और अंदाजा नहीं था कि दुशाला कहीं बीच से तो कहीं कोनों से गल चुका था । डैनी ने बहुत सारी कोशिश की थी वो उस दुशाले को छोडकर नया जामा पहले आखिर उसकी छोटी प्यारी बहन का पति था लेकिन नया पन उसके व्यक्तित्व का नाम नहीं था । नए जाने की आजमाइश में उलझता गिरता ही रहा था । तभी उसे ढीला लगता था तो कभी तंग । अनिल कहता था कि वो उसको बेतुका लगता था, वो खींच जाता था । फिर आपने कोशिश दुशाला में दुख का लेता था । डैनी को ये बात आती नहीं थी । कुछ हद तक चर्चा बाहर भी पैदा करती थी लेकिन बहस फिजूल थी । वो घोडे को पानी तक ले जा सकता था पर पानी पिला तो नहीं सकता था । और फिर अगर घोडा बहनोई हो तो मजबूरी अलग तरीके की हो जाती थी । पहन के शहर के आगे हद से ज्यादा वो खोलना उससे कुनबे की रवायत में नहीं था । बहनोई का मान रखना उसकी परवरिश का हिस्सा था । इसे वह कैसे नजरअंदाज कर सकता था? भला? वैसे भी उसे ज्योति इतनी प्यारी लगी थी कि बहन को जरा सी भी तकलीफ देना उसके लिए नाकाबिले बर्दाश्त था । इसीलिए उसने अनिल को बदलने का इरादा छोड दिया था । वो खुद आगे बढ गया था । ऍम फ्लैट में अकेले ठार छे रहता था । बडी सी खाने की मेज पर अकेले ही बैठ कर खाता था और महंगे गुदगुदे बिस्तर पर अकेले होता था । घर में कुछ चहल पहल बनी रहे । इसीलिए उसने उम्दा नस्ल का कुत्ता पाल लिया था । उसकी देखभाल करने के लिए नौकरानी भी रख ली थी । उत्तर से वह अक्सर बातें करता था तो तो उसकी बात ध्यान से सुनता था । समझता भी था । आपने बन का एहसास दिलाता था । मोहब्बत करता था । उधर नौ कराने के बाद और थी । वो चीनी थी, सिर्फ अपनी भाषा जानती थी और काम भर के लगभग आधे दर्जन अंग्रेजी शब्द समझती थी । जैसे वोटर को कम डोर क्लोज फॅमिली को नौकरानी की खातिर चीनी भाषा सीखने की कोई जहाँ नहीं थी, जैसे कि नौकरानी कांग्रेस जी का पूरा वाक्य समझने की जरूरत महसूस नहीं होती थी । वो साथ थे । कुत्ते की वजह से । कुत्ते को नौकरानी की जरूरत थी और इसी नाते डैनी नौकरानी को पाले हुए था । एक बार उसके माता पिता हांगकांग उसके घर आए थे । बहुत दिनों से वो चाहता था कि माँ बाप आएँ और देखें उनके छोटे से दिन उन्होंने अपने लिए कैसी शानशौकत भरी जिंदगी तराशी थी । उसने उन्हें बताया कि हांगकांग की गेटिंग प्राइज एक निराली दुनिया थी । ऊंची पहाडी पर बना हुआ आसमा को भेजता उसका फ्लाइट नीचे बच्चे हुए शहर का दिलकश नजारा पेश करता था बशर्ते बादलों का पड दाना हो । बादल घिरते ही फ्रेंड उन पर तैरने लगता था । ठीक वैसे ही जैसे परियों की कहानियों में उसने सुना था । वो आलीशान, खुशगवार और रोमानी था । आप लोगों को यकीनन बहुत पसंद आएगा । उसने कहा था पर माने एक दिन में ही कह दिया कि घर में उनका दम घुटता था । दैनिक उनकी बात पर इतना चौका था कि लडखडा गया था । मेरे पकडकर खून से बैठ गया । मन ही मन नाम जो करने लगा था, उसके फ्लैट के तीन कमरे ऍम और हवा में झूलता खोला । आनंद कुल मिलाकर उसके सहारनपुर के एचआईजी फ्लैट से दोगुना या फिर तीन गुना बडा था । ताजा हवा, भरपूर रोशनी और दिलकश नजारा । इसके लिए उसने लाखों डॉलर खर्च किए थे । उनके लिए तो ये मतलब थे यहाँ का दम घुट रहा था । अब वो माँ को काफी देर तक देखता रहा था । उसके दिमाग की नसें फट पडने को हमारा हो रही थी । वो पैर पडना चाहता था । सिर पर चढी झल्लाहट घर की दीवार पर बार भेजना चाहता था । बट वो खामोश रहा था । यहाँ दीवार ही दीवार हैं । मशीनें हैं लोग कहाँ है घर के बाहर हैं न भीतर माँ फूट पडी थी । मैं घंटो घंटो घूमती रहती हुई नहीं दीवारों के बीच करती हूँ को छूने से इन छाती पर चढा आता है । सब कुछ बहुत बडा बोझ रखता है और तुम तुम घर पर बडा होते ही कम हो । सुबह से लेकर देर रात तक बस काम में ही उलझे रहते हो । उधर उसके पिता के अपने मसले नहीं । उन्हें हर चीज ज्यादा मालूम होती थी । जरूरत से कहीं ज्यादा खामखां । उन्होंने ड्राइंग रूम की दीवार पर पंगे बडे से टेलीविजन को देखा था और बोले थे इतने बडे स्क्रीन की क्या जरूरत है भला? जैसा बत्तीस इंच का सहारनपुर में लगा है, उतना ही काफी है । यहाँ ऍम भरसक कोशिश की थी । उन्हें होम थिएटर सिस्टम की बारीकियां बताए, लेकिन उन्होंने उन्होंने उसे हाथ से वर्ष दिया था, पर बस चल दिए थे । रहने की सुने बगैर डैनी उनके रवैये पर हैरान रह गया था । अंदर ही अंदर उनकी प्रतिक्रिया एक तरफ तो मन मसोस रही थी, दूसरी तरफ उसका दिवाज विश्लेषण करने में लगा हुआ था । आखिरकार उनको शान बान से इतनी परेशानी क्यू थी जो मुख्य पर मुख्य निकाल रहे थे । जब की उनको अपने बेटे की तरक्की पर खुश होना चाहिए था । बेहतर रहन सहन से ठोंकनी काट रहे थे, क्यों घबरा रहे थे? दरअसल डैनी ने निष्कर्ष निकाला था । समस्या सिर्फ दो लोगों की नहीं थी, बल्कि पूरी कॉम की थी । हर शख्स बदरंग माहौल में इतने लम्बे अरसे से था । उसके दिलो दिमाग में वो पूरी तरह से घर कर चुका था । गलन का वो इस कदर आदी हो चुका था कि शौकत का जरा भी कतरा उसको खडकता था । हर तरफ खाकी खाती थी और सब महज खाकसार है । खाडसे समय रहने से ही उनका मकसद पूरा होता था क्योंकि उन्हें और कोई उम्मीद अपने से नहीं थी । इस छह की तस्वीर भर और नुमाया होती थी । चारों तरफ जीवन एक व्यवस्था रहन सहन, सुस्त और उबाऊ था । सुस्ती दिलो दिमाग में बैठ गई थी । सोच को खुल लग गया था जिसकी वजह से रोशन खयाली से उन्होंने तौबा कर ली थी । सब पुरानी खींची हुई लकीर के फकीर बन गए थे और इस फकीरी में ही अपनी शान समझते थे । ऍम नहीं तो शुरू से ही अलग था । उसे दागदार उजाले नहीं चाहिए थे उसे चमकती साफ सुबह की तलाश थी । पीडित इधर पीनी बदरंगी ओडे हुए तथाकथित भारतीयता का दामन झटक कर वो अलग हो जाना चाहता था । शिकार करने आया था, शिकार बनने नहीं । डैनी को मालूम था । इसके परिवेश में व्याप्त माहौल के बावजूद वो अपने दिमागी और जिस्मानी हरकत से बाज नहीं आएगा । उसकी अकल की कौन कामयाबी का रास्ता रोशन करेगी और से तेजी से आगे बढाएगी । वो अपनी जांबाजी को दुनिया भर के जाबाजों से जोडना चाहता था । गहरे समुद्र में अपना बेटा डालने का बीडा उठाना चाहता था । वो संस्कृति का हिस्सा नहीं बनना चाहता था । जो वंचना को पोसती हो और प्राप्ति को नकारती हो । उसे जहां थी कि वो सफलता की रोमांचक हिलोरे पैदा करेंगे । एक के बाद ही कामयाबियां हासिल करें जिस पर उसका पूरा वजूद तरक्की जमा तरक्की बन कर रहा हूँ । इससे क्या फर्क पडता था कि वो अकेले बैठ कर खाता था । क्या फिर कुत्ते से बातें करता था । तब हम ऐसे लोग थे तो इस सब करते थे । इससे भी ज्यादा करते थे और सब समृद्ध थे, सफल थे और और खुश भी थे । मस्त साजिश की आनंद धारा वाले लाभ उसे एक और वजह से भी पसंद हैं । उन्हें रोमांच था, ठीक वैसा जैसा उसने अपनी जिंदगी को दिया था । सालों तक उसने गुपचुप खुद अपने साथ सांठगांठ की थी जिसके जरिए वह मुश्किलों की चट्टानों पर उंगल भर पकडते बनाकर ऊपर और ऊपर चढने में कामयाब हुआ था । आज वो शिखर पडता था और डेटिंग साइट पर खडा होकर नीचे जमा नजरों को तसल्ली से निहार सकता था । ऊपर आ चुका था । अब नीचे जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था । उस अपनी पहुंच पर यकीन था । वास्तव में उसकी दिल्ली खुशी बदरंग माहौल से बच निकलने के लिए अपने साथ की गई कामयाब मस साजिश में थी । साजिश की कामयाबी पहले उसके बच निकलने में थी और फिर तरक्की जमा तरक्की पानी में थी । एक तरह से उसकी कामयाबियों को अगर एक के ऊपर एक रख दिया जाता तो वे गेटिंग हाइट की ऊंचाई को भी आसानी से नहीं सकती थी और किस्मत से साठगांठ खूब हुई थी और आज जो उस मस्त साजिश का नतीजा था, जिसकी आनंद धारा उसके चारों तरफ हिलोरे ले रही थी ।

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अदभुत प्रेम की विचित्र कथा writer: अश्विनी भटनागर Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Ashvini Bhatnagar
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