Wings of Fire Part 1
Wings of Fire Part 2
Wings of Fire Part 3
नमस्कार आदाब सच्च श्री अकाल मैं पाँच एक उम्मीद धिमान ऍम पे आप सबका स्वागत अभिनंदन करता हूँ । मेरी आवाज में अक्सर आप लव स्टोरी सुनते रहते हैं लेकिन आज एक नई कोशिश करने जा रहा है कि हाँ बिल्कुल उम्मीद है की ये कोशिश आपको जरूर पसंद आएंगे । आज मैं आपके लिए लेकर आया हूँ एक ऑडियो जो कि आधारित है जीवनी पर और जीतने किसकी उस इंसान की जो हर किसी को प्रभावित करता है और हर कोई उन्हीं की तरह ईमानदारी भरी और आदर्श जिंदगी जीना चाहता है । मैं बात कर रहा हूँ डॉक्टर के पीछे अब्दुल कलाम उनकी एक बुक जिसका नाम आपने भी सुना होगा जो की उनकी स्वच्छ जीत नहीं है आत्मकथा है नाम है फॅस जिसे हिंदी में हम कहेंगे अग्नि की उडान । उन्होंने लिखा है कि मेरा जन्म मद्रास राज्य अब तमिलनाडु के रामेश्वर कस्बे में एक मध्यमवर्गीय तमिल परिवार में हुआ था । मेरे पिता जान लाख दिन की कोई अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुए थे और ना ही वे कोई बहुत अधिक धनी व्यक्ति थे । इसके बावजूद वे बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी मेरी माँ अच्छी । अम्मा उनके आदर्श जीवन संगिनी थी । मुझे याद नहीं है कि वे रोजाना कितने लोगों का भोजन बनाया करते हैं और उन्हें खिलाया करती हूँ । लेकिन मैं यह पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि हमारी सामूहिक परिवार में जितने लोग थे उससे कहीं ज्यादा लोग हमारे यहाँ भोजन किया करते थे । मेरे माता पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपत्ति के रूप में देखा जाता था । मेरी माँ के खानदान का बडा सम्मान था और उनके एक वंशज जो अंग्रेजों ने बहादुर की पदवी भी दे डाली थी । मैं कई बच्चों में से एक था लम्बे चौडे वे सुंदर माता पिता का एक छोटी कदकाठी का साधारण सा दिखने वाला बच्चा । हम लोग अपनी पुश्तैनी घर में रहते थे या घर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में बना था । रामेश्वरम कि मस्जिद वाली गली में बनाई है घर चुने पत्थर ईद से बना पक्का और बडा मकान था । मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं एशोआराम वाली चीजों से दूर रहते थे । पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभ पता से उपलब्ध थी । वास्तव में मैं कहूंगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चिंतता और सादे पन में बीता । बहुत इक एवं भावनात्मक दोनों ही तरह से मैं पढाई अपनी माँ के साथ रसोई में नीचे बैठ कर खाना खाया करता था । मेरे सामने केले का पत्ता भी छाती और फिर उस पर चावल एवं सुगंधित स्वादिष्ट सांभर देती । साथ में घर का बना आचार और नारियल की ताजा चटनी वजन के स्वाद को और अधिक बढा देती । प्रतिष्ठित शिवमंदिर जिसके कारण रामेश्वरम प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं, का हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था । जिस इलाके में हम रहते थे वह मुस्लिम बाहुल था यानी बहुत सारे मुसलमान उसे लाभ में रहा करते थे । लेकिन वहाँ कुछ हिंदू परिवार भी थे जो आपने मुसलमान पडोसियों के साथ मिल जुल कर रहते थे । हमारे इलाके में बहुत ही पुरानी मस्जिद थे, जहाँ शाम को नमाज के लिए मेरे पिता जी मुझे अपने साथ से जाते हैं । अरबी में जो नमाज अदा की जाती थी, उसके बारे में मुझे कुछ ज्यादा तो पता नहीं था, लेकिन यहाँ पक्का विश्वास था । ये सारी बातें ईश्वर तक जरूर पहुंच आती हैं । नमाज के बाद जब मेरे पिता मस्जिद के बाहर आते तो विभिन्न धर्मों के लोग मस्जिद में बाहर बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं । उनमें कई लोग पानी के कटोरे मेरे पिताजी के सामने रखते । पिताजी उस पानी में अपनी उंगलियों को डुबोते जाते और कुछ पढते जाते हैं । इसके बाद वह पानी बीमार लोगों को उनके घरों में जाकर पिलाया जाता । मुझे भी याद है कि लोग ठीक होने के बाद शुक्रिया अदा करने हमारे घर आते हैं । पिता जी हमेशा मुस्कुराते और शुभ चिंतक एवं दयावान अल्लाह का शुक्रिया अदा करते । रामेश्वरम मंदिर के सबसे बडे पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिता जी के अभिन्न मित्र थे । अपने शुरुआती बचपन की यादों में इन दो लोगों के बारे में मुझे सबसे अच्छी तरह याद है । दोनों अपनी पारंपरिक वेषभूषा में होते और आध्यात्मिक मामलों पर चर्चाएं क्या करते हैं? जब मैं प्रश्न पूछने लायक बडा हुआ तो मैंने पिताजी से नमाज की प्रसन्न दिखता के बारे में पूछा । पिताजी ने मुझे बताया की नमाज में रहस्य में कुछ भी नहीं है । नमाज से लोगों के बीच भाईचारे की भावना संभव हो पाती है । वे कहते हैं, जब तुम नमाज पढते हो तो तुम अपने शरीर से इत्र प्रमाण का एक हिस्सा बन चाहते हो जिसमें दौलत, आयु, जाति या धर्म पंथ का कोई भेदभाव नहीं होता हूँ । मेरे पिता जी अध्यात्म की जटिल अवधारणाओं को भी तमिल में बहुत ही सुंदर ढंग से समझा देते हैं । एक बार उन्होंने मुझसे कहा, खुद उन के वक्त में खुद उनके स्थान पर, जो वे वास्तव में हैं और जिस अवस्था में पहुंचे हैं, अच्छी या बुरी, हर इंसान भी उसी तरह दैवी शक्ति रूपये ब्रह्मांड में उसके एक विशेष हिस्से के रूप में होता है तो हम संकटों, दुखों या समस्याओं से क्यों घबराएं? जब संकट या दुख आएँ तो उन का कारण जानने की कोशिश करूँ । विपत्ती हमेशा आत्मविश्लेषण के अवसर प्रदान करती है । आप उन लोगों को यह बात क्यों नहीं बताते जो आपके पास मदद और सलाह मांगने के लिए आते हैं? मैंने पिताजी से पूछा, उन्होंने अपने हाथ मेरे कंधों पर रखी और मेरी आंखों में देखा । कुछ क्षण में चुप रहे, जैसे वे मेरी समझ की क्षमता जांच रहे हैं । फिर धीमी से गहरे स्वर में उन्होंने मुझे उत्तर दिया, पिता जी के इस जवाब नहीं हैं । मेरे भीतर नई ऊर्जा और अपरिमित उत्साह भर दिया । उनका जवाब था, जब कभी इंसान अपने को अकेला बंदा है तो उसे एक साथी की तलाश होती है, जो स्वाभाविक है हैं । जब इंसान संकट में होता है तो उसे किसी कि मदद की जरूरत होती हैं । जब वह अपने को किसी गतिरोध में फंसा पाता है तो उसे चाहिए होता है । एक ऐसा साथ ही जो बाहर निकलने का रास्ता दिखा सके । बार बार तडपाने वाली हरते अपेक्षा एक प्याज की तरह होती है । मगर हर प्याज को बुझने वाला कोई न कोई मिल ही जाता है । जो लोग अपने संकट की घडियों में मेरे पास आते हैं, मैं उनके लिए अपनी प्रार्थनाओं के जरिए ईश्वरीय शक्तियों के से संबंध स्थापित करने का माध्यम बन जाता हूँ । हालांकि हर जगह हर बार यह सही नहीं होता । बढना ही कभी ऐसा होना चाहिए । मुझे याद हैं पिताजी की दिनचर्या पहुँच फटने से पहले ही शुरू हो जाते हैं । सुबह चार बजे का समय होता है, जब वे नमाज पढने के साथ अपनी सुबह की शुरुआत किया करते थे । नमाज के बाद में हमारे नारियल के बाद में जाया करते थे । बाद घर के करीब चार में की दूरी बना था । करीब दर्जनभर नारियल कंधे पर ली हैं । पिताजी घर लौटते हैं और उसके बाद ही उनका नाश्ता होता है । पिता जी की यह दिनचर्या जीवन के छठे दशक के आखिरी तक बनी रही । मैंने अपनी विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिता जी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है । मैंने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है, जिन्हें पिताजी ने मेरे सामने रखा और मुझे इस संतुष्टि का आवास हुआ हूँ कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुखों, विषाद और असफलता से छुटकारा दिलाते हैं तथा सही रास्ता दिखाती है । जब पिताजी ने लकडी की नौकाएं बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छह साल का था । ये नौकाएँ तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोडी तक ले जाने के लिए काम में आती थी । एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएं बनाने लगे । बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बडी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई । नहीं, नौकाओं को आकार लेते देखते वक्त में काफी अच्छे तरीके से व्यवहार करता था । पिताजी का कारोबार काफी अच्छी तरह चल रहा था । एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चलें और समुद्र में तूफान है । तूफान में सिद्धू का राई के कुछ लोग और हमारी नौकाएँ बह गई । उसी में पामबान कुल्फी टूट गया और यात्रियों से भरे ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गए । तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती कोई देखा था । उसके बार और अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हत्प्रभ कर दिया । जब तक नाजकी यह कहानी पे वक्त डोभी उम्र में काफी फर्क होने के बावजूद अहमद जलालुद्दीन मेरे अंतरंग मित्र बन गए । वह मुझ से करीब पंद्रह साल पडे थे और मुझे आजाद अगर हमारा घर में थे हम दोनों रोजाना शाम को दूर एक साथ होने जाया करते थे । हम मस्जिद वाली गली से निकलते हैं और समुद्र के दिल्ली धन पर । जनवरी में मैं और जलालुद्दीन फ्राई आध्यात्मिक विषयों पर बातें करते । एक प्रमुख तीर्थस्थल होने के वजह से रामेश्वरम का ये है वातावरण हमारी आध्यात्मिक चर्चाओं में और भी प्रेरक सिद्ध होता रस्ते में हमारा पहला पडाव शिव मंदिर हुआ करता था । इस मंदिर की हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा करते जितनी श्रद्धा से देश के किसी हिस्से से आया कोई भी तीर्थयात्री करता हूँ और ये हैं परिक्रमा के बाद हम अपने शरीर को बहुत ही ऊर्जावान महसूस करते हैं । जलालुद्दीन ईश्वर के बारे में ऐसी बातें किया करते हैं जैसे ईश्वर के साथ उनकी कामकाजी भागीदारी हो । मैं ईश्वर के समक्ष अपने सारे संदेह इस प्रकार रखते जैसे मैं उनका निराकरण पूरी तरह कर देंगे । मैं जलालुद्दीन की और एक तक देखता रहता और फिर देखता । मंदिर के चारों और जमा श्रद्धालुओं तीर्थयात्रियों की उस भेड को समुद्र में डुबकियां लगा रही होती है और फिर पूरी धार्मिक नीतियों से पूजा पाठ करने तथा उसी अज्ञात के प्रति अपने आदर भाव की प्रार्थना करती हैं जिसे हम निराकार सर्वशक्तिमान मानते थे । मुझे इसमें कभी संदेह नहीं रहा कि मंदिर में की गई प्रार्थना जहाँ जिस तरह पहुंचती हैं, ठीक उसी तरह हमारी मस्जिद में पढी गई नमाज भी वहीं जाकर पहुंचती है । मुझे आश्चर्य सिर्फ इस बात का होता जब जलालुद्दीन ईश्वर के विशेष तरह का जुडाव कायम कर लेने की बात बार बार पारिवारिक परिस्थितियों के कारण जलालुद्दीन की स्कूली शिक्षा कोई बहुत ज्यादा नहीं हो पाई थी । यही कारण रहा जिसकी वजह से जलालुद्दीन मुझे पढाई के प्रति हमेशा उत्साहित करते रहते थे और मेरे सफलताओं से हमेशा प्रसन्न होते थे । पढाई से वंचित रह जाने की । हल्की सी भी पेडा कुछ अलग पूछे चलाना तीन में कभी देखने को नहीं । जिंदगी में उन्हें जो कुछ भी मिला मैं उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे हैं और भगवान का धन्यवाद करते रहे हैं । प्रसंगवश मुझे यहाँ यहाँ उल्लेख कर देना चाहिए की मुझे पूरे इलाके में सिर्फ जलालुद्दीन ही थे जो अंग्रेजी में लिखा सकते थे और सुजॅय जिसे भी जरूरत होती चाहे वह अर्जी हो या कुछ और । जलालुद्दीन उसे अंग्रेजी में लिखते थे, मेरे परिचितों में चाहे वह परिवार के लोग हूँ या आस पडोस के जलालुद्दीन के बराबर शिक्षा का स्तर किसी का भी नहीं था और न ही किसी की इनके बराबर बाहरी दुनिया के बारे में कुछ भी बताता हूँ । जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों वैज्ञानिको हो जाऊँ, समकालीन साहित्य और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बता दे रहे हैं । वहीं थी जिन्होंने मुझे सीमित दायरे से बाहर निकालकर नई दुनिया का बोर्ड करवाया । मेरे बाल निकाल में फर्स्ट में एक दुर्लभ वस्तु की तरह हुआ करता हूँ । हमारे यहाँ स्थानीय स्तर पर एक पूर्व क्रांतिकारी या कही उग्र राष्ट्रवादी एसटीआर मानी काम की निजी पुस्तकालय था । उन्होंने मुझे हमेशा पडने के लिए उत्साहित किया । में अक्सर उनके घर से पढने के लिए किताबें लेकर आया करता था । दूसरे जिस व्यक्ति का मेरे बाल जीवन पर गहरा असर पडा है, वह मेरे चचेरे भाई शमसुद्दीन थे । मैं रामेश्वर में अखबारों के एकमात्र वितरक थे । अखबार एजेंसी के अकेले समसुद्दीन चलाते थे । अखबार रामेश्वरम स्टेशन पर सुबह की ट्रेन से पहुँचते थे जो पान बन से आती थी । रामेश्वरम में अखबारों की जुमला एक हजार प्रतियां बिकती थी । इन अखबारों में स्वतंत्रता आन्दोलन से संबंधित ताजा खबरें ज्योति से जुडे संदर्भ और मद्रास जोकि अब चेन्नई के नाम से जाना जाता है कि सर्राफा बाजार के भाव प्रमुखता से होते थे । महानगरीय दृष्टिकोण रखने वाले कुछ थोडे से पाठक हिटलर महात्मा गांधी पढे बिना के बारे में चर्चाएं किया गया है जबकि ज्यादातर पाठकों में चर्चा का विषय स्वर्ण हिंदुओं के रूढिवादी के खिलाफ पेरियार ईवी रामास्वामी द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन होता था । दिन मनी अखबार की मांग सबसे ज्यादा होती है क्योंकि अखबार में जो कुछ भी छपा होता है मेरी समझ से परे होना था । इसलिए सब सुद्दीन द्वारा ग्राहकों को अखबार बांटने से पहले मैं सिर्फ अखबार में छपी तस्वीरों पर नजर डाल कर ही संतोष कर लेता था । सन उन्नीस सौ सैंतालीस की बात है जब द्वितीय विश्व युद्ध छेडा तब मैं आठ वर्ष का था । तभी बाजार में इमली के बीजों कि अचानक तेज मांग उठी । इसका कारण मुझे कभी समझ में नहीं आया । मैं इन बीजों को इकट्ठा करता और मस्जिद वाली गली में एक परचून की दुकान पर भेज देता हूँ । इससे मुझे एक आना रोज मिल जाया करता था । विश्व युद्ध की खबरें जलालुद्दीन मुझे बताते रहते थे जिन्हें बाद में मैं दिनमणि अखबार के शीर्षकों में ढूंढने की कोशिश करता हूँ । विश्व युद्ध का हमारे यहाँ जरा सा भी असर नहीं था, लेकिन जल्दी ही भारत पर भी मित्र देशों की सेनाओं में शामिल होने का दबाव डाला गया और देश में एक तरह का पाँच साल घोषित कर दिया गया । उसका पहला नतीजा इस रूप में सामने आया कि रामेश्वरम स्टेशन पर गाडी का ठहरना बंद कर दिया गया । ऐसी स्थिति में अखबारों के बंडल रामेश्वरम और धनुषकोडी के बीच रामेश्वरम रोड पर चलती ट्रेन से गिरा दिए जाते हैं । तब शम्सदीन को एक ऐसे मददगार की तलाश हुआ करती थी, जो अखबारों के मंडल झेलने और गिरे हुए बंडलों को उठाने में उनका हाथ बटा सकें । स्वाभाविक है मैं ही मददगार बनी इस तरह समसुद्दीन से मुझे अपनी पहली तरफ आधी शताब्दी गुजर जाने के बाद आज भी मैं अपने द्वारा कमाई पहली तक यहाँ पर कर करता हूँ । हर बच्चा एक विशेष आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक परिवेश में कुछ वंशागत गुणों के साथ जान लेता है । फिर संस्कारों के अनुरूप उसे डाला जाता है । मुझे अपने पिता जी से विरासत के रूप में ईमानदारी और आत्मानुशासन मिला तथा वहाँ से ईश्वर में विश्वास और करुणा का भाव मिला । यही गुण मेरे तीनों भाई बहनों को भी विरासत में मिले । लेकिन मैं जलालुद्दीन और शमसुद्दीन के साथ अपना जो समय गुजारा उसका मेरे बचपन में एक अद्वितीय योगदान रहा और इसी के रहते मेरे जीवन में सारे बदलाव आए । स्कूली शिक्षा नहीं होने के बाद भी जलालुद्दीन ऍम शमसुद्दीन इतनी सहजबुद्धि देखे थे कि मेरे अकथ नहीं है संदेशों का यह झट से जवाब दिया करते । बचपन में मैं बिना किसी हिचकिचाहट के, अपनी सृजनात्मकता को उनके बीच रख सकता हूँ । बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे रामनंद खास नहीं अरविन्दन और शिव प्रकाशन ये तीनों ही ब्रह्मण परिवारों से रामानंद शास्त्री जो रामेश्वरम मंदिर के सबसे बडे गुजारें पक्षी लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था । अलग अलग धर्म पालन पोषण पढाई लिखाई को लेकर हम में से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेदभाव महसूस नहीं । आगे चलकर रामानंद शास्त्री तो अपने पिता के स्थान पर रामेश्वरम मंदिर का पुजारी बना । अरविंदन में तीर्थयात्रियों को पाने के लिए टाइम को चलाने का कारोबार कर लिया और शिव प्रकाशन दक्षिण रेलवे में खान पान का ठेकेदार हो गया । प्रतिवर्ष होने वाले श्री सीताराम विवाह समारोह के दौरान हमारा परिवार विवाह स्थल तक भगवान श्रीराम की मूर्तियाँ ले जाने के लिए विशेष प्रकार के नामों का बंदोबस्त किया करता था । यह विवाहस्थल तालाब के बीचोंबीच स्थिरता और इसे रामतीर्थ कहते थे । यह हैं हमारे घर के पास ही था । मेरी माँ और दादी । घर के बच्चों को सोते समय रामायण के किस्से और पैगंबर मोहम्मद से जुडी घटनाएं सुनाया करती । जब मैं रामेश्वरम के प्राइमरी स्कूल में पांचवीं कक्षा में था, तब एक दिन एक नई शिक्षक हमारी कक्षा में आए । मैं टोपी पहना करता था जो मेरे मुसलमान होने का प्रतीक था । कक्षा में मैं हमेशा आगे की पंक्ति में जेएनयू पहने रामानंद शास्त्री के साथ बैठक करना था । नहीं । शिक्षक को एक हिंदू लडके का मुसलमान लडके के साथ बैठना अच्छा नहीं लगा । उन्होंने मुझे उठाकर पीछे वाले बेंच पर चले जाने के लिए कहा । मुझे बहुत बुरा लगा । रामानंद शास्त्री को भी वह बहुत खला । मुझे पीछे की पंक्ति में बिठाए जाते देखकर वह काफी उदास नजर आ रहा था । उसके चेहरे पर जो रूआंसी के भाव थे, उनकी मुझ पर एक गहरी छाप पडी । स्कूल की छुट्टी होने पर हम घर गए और सारी घटना अपने घरवालों को बताई । यह सुनकर लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक को बुलाया और कहा कि इससे निर्दोष बच्चे के दिमाग में इस तरह सामाजिक असमानता और सांप्रदायिकता का विश्व नहीं खोलना चाहिए । हम सब भी उस वक्त वहां मौजूद थे । लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक से साफ साफ कह दिया कि यहाँ तो मैं क्षमा मांगी या फिर स्कूल छोडकर यहाँ से चला जाए । शिक्षक ने अपने किए व्यवहार पढना सिर्फ दुख व्यक्त या बल्कि लक्ष्मण शास्त्री के कडे रुख और धर्म निरपेक्षता में उनके विश्वास से उस नौजवान शिक्षक अंतर है बदलाव आ गया । पूरे रामेश्वरम में विभिन्न जातियों का छोटा सा समाज था । वह कई स्तरों में था । इस प्रत्यक करन के मामले में ये जातियां बहुत ही कठोर थीं । मेरे विज्ञान के शिक्षक शिव सुब्रमण्यम अय्यर कट्टर सनातनी ब्राह्मण थे और उनकी पत्नी घोर रूढिवादी नहीं लेकिन वे कुछ कुछ रूढीवाद के खिलाफ हो चले थे । उन्होंने इन सामाजिक रूढियों को तोडने के लिए अपनी तरफ से काफी हो जाएगी ताकि विभिन्न वर्गों के लोग आपस में एक दूसरे के साथ मिल सकें और जातीय असमानता खत्म हो । बे मेरे साथ का समय बिताना है और कहाँ करते हैं कलाम मैं तो मैं ऐसा बनाना चाहता हूँ कि तुम बडे शहर के लोगों के बीच एक उच्च शिक्षित व्यक्ति के रूप में पहचानी चाहूँ एक दिन उन्होंने मुझे खाने पर अपने घर बुलाया उनकी पत्नी इस बात से बहुत परेशान और बहन थी कि उनकी पवित्र और धर्मनिष्ठ रसोई में एक मुसलमान युवक के भोजन करने पर कैसे आमंत्रित किया जा सकता है । उन्होंने अपनी रसोई के भीतर मुझे खाना खिलाने से साफ इंकार कर दिया । शिवसुब्रमण्यम अय्यर अपनी पत्नी के इस रुख से जरा भी विचलित नहीं हुए और नहीं नहीं करो जाया बल्कि उन्होंने खुद अपने हाथ से मुझे खाना परोसा और फिर बाहर आकर मेरे पास अपना खाना लेकर बैठ गए । उनकी पत्नी यह सब रसोई के दरवाजे पीछे खडे देख रही हैं । मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या वे मेरे चावल, खाने के तरीके, पानी पीने के ढंग पर खाना खा चुकने के बाद उस स्थान को साफ करने के तरीके में कोई सब देख रही हैं । जब मैं उनके घर से खाना खाने के बाद लौटने लगा तो अय्यर माँ और देने मुझे फिर अगले हफ्ते रात को खाने पर आने के लिए आमंत्रित किया हूँ । मेरी हिचकिचाहट को देखते हुए वे बोले इसमें परेशान होने की जरूरत नहीं है । एक बार जब तो व्यवस्था बदल डालने का फैसला कर लेते हो तो ऐसी समस्याएँ सामने आते ही हैं । पुस्तक विंग फायर के भाग एक को यहीं विराम देते हैं । आप दो लेकर फिर से हाजिर होंगा । इसी तरह से को पैसा सुनते रही और आपके आपने आज गुरमीत धीमान को प्यार देते रही । फिलहाल के लिए दीजिए इजाजत नमस्कार हाँ ।